किसानों के विश्वासघात दिवस ने बढ़ायी भाजपा की बेचैनी
Faisal Anurag किसानों ने विश्वासघात दिवस का आयोजन कर एक बार फिर उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड और पंजाब के चुनावों के समीकरण को प्रभावित कर दिया है. जाट नेताओं से दिल्ली में अमित शाह से मुलाकात के बाद यह नरेटिव सेट करने का जोरशोर से प्रयास किया गया कि अब किसानों का गुस्सा खत्म हो गया है. इस नरेटिव में ही अमित शाह ने यह कह कर चुनावों को भाजपा के कोर मुद्दे हिंदू-मुसलमान ध्रुवीकरण की ओर मोड़ने का प्रयास किया है कि यदि कमल को वोट दिया तो दंगे नहीं होंगे.मुजफ्फरनगर में 26 साल पहले हुए दंगों की याद ताजा करने का प्रयास किया. 26 साल पहले के दंगों ने न केवल किसानों की एकता में दरार डाल दिया, बल्कि वे अलग थलग भी हो गए. चौघरी महेंद्र सिंह टिकैत जिस किसान एकता को धर्मों से परे रख कर राजनीति में किसानों को बड़ी वारगेनिंग ताकत दी थी, वह चकनाचूर हो गयी. लेकिन तीन कृषि कानूनों ने एक बार फिर किसानों को बड़ी राजनैतिक ताकत बना दिया. इसी क्रम में आंदोलन के समय ही मुजफ्फरनगर महापंचायत के बाद 2013 के दंगों के लिए माफी का दौर चला और तीन राज्यों की चुनावी राजनीति में किसान एक बड़े कारक के बतौर पर फिर से फ्रंट पर आ गए. तीनों कृषि कानूनों की वापसी के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समीकरण को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती रही है. गृहमंत्री अमित शाह और आदित्यनाथ ने पहले तो कैरान जा कर एक नया जुमला उछाला `तमंचावादी`. समाजवादी पार्टी के लिए प्रयोग किया गया. यही नहीं जिस तरह आदित्यनाथ ने अपनी जाति बता कर राम का वंशज बताने का प्रयास किया, उससे ही जाहिर होता है कि हालात बेहतर नहीं लग रहे हैं. इस हालात में किसानों के विश्वासघात दिवस ने चुनावों के बीच अपनी अहमियत को उजागर कर दिया है. किसानों का यह विश्वासघात दिवस संसद के बजट सत्र के पहले दिन ही आयोजित किया जा रहा है. जाहिर है कि किसान केंद्र सरकार से नाराज हैं और इसके दो बड़े कारण हैं. पहला कारण तो यह है कि केद्र सरकार ने वायदा करने के बावजूद न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी के लिए कमिटी का गठन नहीं किया और लखिमपुरखिरी मामले में केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी को न तो मंत्रिमंडल से हटाया गया और न ही उनके खिलाफ कार्रवाई की गयी. इसके साथ ही किसानों को अंदेशा बना हुआ है कि पांच राज्यों के चुनावों के बाद भाजपा किसी न किसी तरीके से कृषि संरचना और मिलकियत में बदलाव के लिए कानूनी पहल कर सकती है.किसान नेता राकेश टिकैत के अनुसार नौ दिसंबर को सरकार द्वारा किए गए वादों के एक पत्र के आधार पर दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से अधिक समय से चल रहे विरोध प्रदर्शन को वापस ले लिया गया था, लेकिन वादे अधूरे रह गए. राजनैतिक प्रेक्षक मानते हैं कि किसानों का आक्रोश भाजपा की चुनावी संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है. पंजाब में कैप्टन अमरेंदर सिंह के साथ गठबंधन के बावजूद भाजपा अब तक हाशिए पर है. पंजाब में मुख्य मुकाबला कांग्रेस बनाम आम आदमी पार्टी के बीच है. उत्तराखंड में किसानों का नरेटिव सक्रिय है और भाजपा इसे खतरा मानने लगी है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे को ले कर सबसे ज्यादा बेचैनी है. कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता यूपी हो कर ही गुजरता है. यूपी में एक ओर जहां अखिलेश यादव ने एक नया नरेटिव और समीकरण बनाया है और वे मुलायम सिंह यादव की छवि से अलग दिख रहे हैं. तो दूसरी ओर किसानों के आक्रोश ने भी भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी है. यही नहीं मणिपुर में टिकट बंटवारे के बाद भाजपा कार्यालय में जिस तरह उपद्रव हुए और इस्तीफों का दौर चला उससे पूर्वोत्तर के इस राज्य में भाजपा की तय मानी जा रही जीत की संभावना को लेकर संदेह व्यक्त किया जाने लगा है. गोवा का उंट किस करवट बैठेगा इसे लेकर भी संशय बना हुआ है. किसानों ने इतना तो तय कर ही दिया है कि उसने राजनैतिक दलों की आथरिटी पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है. 2022 के चुनाव कई अर्थो में महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं. एक समाचार पत्र के अनुसार केद्रीय बजट के बाद पिछले 15 सालों में 42 चुनाव हुए हैं और इसमें 18 बार सत्तारूढ़ दलों को पराजय का समाना करना पड़ा है. केवल 11 बार ऐसा हुआ है कि बजट का चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. चूंकि नरेंद्र मोदी की सरकार 2019 के बाद से बजट को सुधारोन्मुख बना कर पेश कर रही है. इन सुधारों ने किसानों,मजदूरों और कर्मचारियों को प्रभावित किया है. इन तबकों के आंदोलनों का दौर जारी है. किसानों ने तो एक इतिहास ही बना दिया है, जब नरेंद्र मोदी को बाध्य होना पड़ा कि वे मीडिया में आए और कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान किया. यही नहीं उन्होंने किसानों से माफी भी मांगी. लेकिन साल भर चले आंदोलन में 700 किसानों की मौत का पलड़ा इतना भारी है कि भाजपा इसकी काट नहीं खोज पा रही है. किसानों के प्रभाव वाले इलाके में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के तमाम प्रयास अब तक कारगर होते नहीं दिख रहे हैं. भाजपा ने 2014,2017 और 2019 में जिस सोशल इंजीनियरिंग को तैयार कर जातियों का समन्वय बनाया था वह इस बार समाजवादी पार्टी के पक्ष में ज्यादा दिख रहा है. उत्तर प्रदेश के राजनैतिक प्रेक्षकों ने तो जमीनी स्तर पर चल रही राजनैतिक प्रवृतियों और चुनावी प्रक्रियाओं को लेकर जो कुछ कहा है उसका लब्बोलुआब यह है कि इस बार कोई भी राजनैतिक दल आश्वस्त नहीं दिख रहा है. [wpse_comments_template]

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