किसानों के सत्याग्रह ने केंद्र को कृषि कानूनों की वापसी के लिए बाध्य किया

Faisal Anurag फैज की एक नज्म की पंक्ति है `` न उनकी हार नयी, न अपनी जीत नई.`` फैज ने शासकों के फैसलों के खिलाफ हुए आंदोलनों के लिए यह नज्म कही थी. लोकतंत्र में चुनावों की हार जीत की आहट बड़ी से बड़ी जिद के ध्वस्त हो जाने का सबब है. तीनों कृषि कानूनों को जिस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "आज़ादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आज़ादी" देने वाला क़ानून बताया था उसे प्रकाश पर्व के दिन वापस लेने का एलान किया. यही नहीं प्रधानमंत्री मोदी ने देश से पहली बार माफी भी मांगा और संसद के शीतकालीन सत्र में संवैधानिक तरीके से वापस लेने की प्रक्रिया की भी बात की. तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर किसान आंदोलन में शामिल 700 से ज्यादा किसानों की मृत्यु हुई. लखीमपुरखीरी में मोदी के ही एक मंत्रीमंडलीय सहयोगी के पुत्र ने किसानों को जीप से कुचल कर मार दिया. कृषि कानूनों की वापसी के एलान के बाद श्रम कानूनों और बिजली के प्रस्तावित कानून जिसे रद्द करने की मांग मजदूर किसान कर रहे हैं, उन्हें लेकर भी दबाव बनने की संभावना प्रबल हो गयी है. पिछले साढ़े सात सालों में यह पहला अवसर है, जब केंद्र की सरकार जनता के किसी आंदोलन के दबाव में आयी है. अगले साल होने वाले पांच विधानसभा चुनावों में खासकर उत्तर प्रदेश,पंजाब और उत्तराखंड के राजनीतिक हालातों का दबाव भी इस वापसी पर साफ है. प्रधानमंत्री के एलान के बाद क्या उत्तर प्रदेश,पंजाब और उत्तराखंड के राजनीतिक समीकरण और माहौल कितना बदलेगा यह तो निकट भविष्य में ही पता चलेगा. लेकिन किसानों ने जिस साहस और संकल्प का परिचय दिया है, वह किसी भी लोकतंत्र और जनांदोलन के इतिहास में फख्र का विषय है. भारत की राजनीति में किसान आंदोलन की यह उपलब्धि मील का पत्थर है. पिछले 70 सालों के इतिहास में एक साल तक चले किसान आंदोलन ने सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव के लिए व्यापक विमर्श को जन्म दिया है. किसान आंदोलन न केवल सांप्रदयिक ध्रुवीकरण के खिलाफ एक बड़ा राजनीतिक गठबंधन बनाने में कामयाब रहा है, बल्कि जाति और धर्म के तमाम बंधनों को तोड़ने की दिशा में एक तरह के सामाजिक आंदोलन की नींव भी डालने में कामयाब हुआ है. किसान आंदोलन की मजबूती और समझौता के खिलाफ पूरी वैचारिकता के साथ डटे रहने का एक नया राजनीतिक विचार भी खड़ा किया है. कृषि कानूनों को लेकर सरकार का रवैया बेहद अड़ियल और तानाशाही भरा था. राज्यसभा तक में नियमों को ताक पर रखकर पास करवाया गया था. इसलिए प्रधानमंत्री चाहकर किसानों के बीच यह संदेश नहीं भेज सकते कि यह फैसला उन्होंने किसानों के हमदर्द बनकर वापसी का निर्णय लिया है. किसानों ने तीन कृषि कानूनों को निरस्त किए जाने के साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर संवैधानिक गारंटी के लिए कानून बनाने की भी मांग की है. प्रधानमंत्री ने एमएसपी सहित अन्य सवालों पर एक कमेटी बनाने का भी एलान किया है, जो व्यपक विचार विमर्श कर सुझाव देगी. सवाल है कि तीनों कृषि कानून हों या फिर श्रम कानून या बिजली विधेयक या फिर सरकारी संस्थानों के निजीकरण का फैसला केंद्र सरकार कभी भी बातचीत करते या लोगों के बीच सहमति बनाने से क्यों चूक जाती है. केंद्र के किसी भी फैसले या कानून को मास्टर स्ट्रोक बताने वाले यह सवाल नहीं पूछते कि क्या इसमें संबंधित पक्ष की राय लेने की कोशिश की गयी है. नागरिकता कानूनों के खिलाफ भी पूरे देश में बड़े आंदोलन हुए. इसी दौरान दिल्ली के दंगे हुए और उसके आरोप में उन लोगों को यूएपीए लगाकर जेल में बंद कर दिया गया, जिन्होंने या तो सीएए के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया था या समर्थन किया था. आंदोलन करने या सरकार से असहमति प्रकट करने वाले अनेक लोग जिस तरह सरकार के निशाने पर आए, उससे लोकतंत्र,संविधान और निजी स्वतंत्रता के सवाल को लेकर अनेक सवाल उठे. किसान आंदोलन के खिलाफ केंद्र या राज्य सरकारों ने भी दमनात्मक तरीका अपनाने का उपक्रम किया, लेकिन किसानों की ताकत, एकता और प्रतिरोध करने के संकल्प ने दमन के तमाम सरकारी तरीकों को ही बेमानी साबित कर दिया. प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद कम से कम यह तो अपेक्षा बनती है कि आने वाले दिनों में आंदोलकारियों को तालिबानी,खलिस्तानी, आतंकवादी कहने के बजाय उठे सवालों को संजीदगी और हमदर्दी के साथ समझने की राजनीतिक प्रक्रिया के नए दौर की शुरूआत होगी. भारत की कृषि संस्कृति को पूंजीपतियों या मुनाफाखोर निगमों के हवाले करने के बजाय किसानों के फसल उपजाने के निर्णय और अधिकार की भी गारंटी की जाएगी. किसानों ने एक बार फिर सत्याग्रह को जिस तरह अमोघ अस्त्र की तरह प्रयोग किया, इससे भी देश के लोग सबक लेंगे. गांधी के सत्याग्रह की ताकत एक बार फिर प्रमाणित हुई है. किसान नेताओं ने प्रधानमंत्री के एलान का स्वागत किया है. लेकिन वे सावधान भी हैं. तो क्या इस एलान के बाद पांचों राज्यों में किसानों का समर्थन हासिल करने में बीजेपी सफल हो जाएगी. किसान नेताओं की प्रतिक्रिया से तो इसकी कोई उम्मीद तुरंत नहीं दिख रही है. हां, अब किसान आंदोलन वाले राज्यों में गांवों में भाजपा नेताओं के प्रवेश पर रोक लगी थी, वह जरूर खत्म होगी. 2017 और 2019 के चुनावों में भाजपा की जीत में किसानों के समर्थन की बड़ी भूमिका थी. पिछले एक सालों में किसानों ने राजनीति भी सीखा है और अपने वोट की ताकत का भी अहसास किया है. 2022 के चुनावों में किसानों की यह सीख निर्णायक साबित होगी. [wpse_comments_template]
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