Faisal Anurag सरकारी राजनैतिक दल के एजेंडे को लागू करने की दिशा में प्रशासन और पुलिस की सक्रियता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के आगाह किए जाने के बावजूद करनाल में किसानों के साथ जिस बर्बरता का सलूक हुआ, उससे कहीं ज्यादा दुखद यह है कि उसके समर्थन में हरियाणा के मुख्यमंत्री का आ जाना. किसानों के खिलाफ दुश्मनों की तरह व्यवहार अधिकारियों का शगल बनता जा रहा है. हरियाणा के मुख्यमंत्री ने लाठीचार्ज के औचित्य को सही ठहराते हुए सिर्फ इतना कहा कि प्रदर्शन कर रहे किसानों के साथ सख्ती गलत नहीं है. हालांकि एसडीएम के सिरफोड़ देने वाले बयान को उचित उन्होंने भी नहीं ठहराया. प्रशासन का अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए कानून के शासन का उल्लंघन किए जाने की घटनाएं हालात की गंभीरता की ओर इशारा करती हैं. करनाल ही नहीं वाराणसी में भी नेत्रहीन छात्रों पर किए गए लाठीचार्ज ने लोकतंत्र की आत्मा को लहूलुहान कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के जज लगातार">https://lagatar.in/">लगातार
कानून के शासन और संविधान के अनुकूल आचरण करने वाली ब्यूरोक्रेसी के लिए सजग करते रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कानून के शासन और कानून द्वारा शासन के फर्क को बताया है. उन्होंने देसाई व्याख्यान देते हुए कहा था कि हमने ‘क़ानून के शासन’ के लिए संघर्ष किया था. जबकि ‘क़ानून द्वारा शासन’ औपनिवेशिक हुकूमत के लिए राजनीतिक दमन का उपकरण था, जिसका इस्तेमाल वे ग़ैरबराबरी पूर्ण और मनमाने तरीक़े से करते थे. दरअसल देश की ब्यूरोक्रेसी में आए बदलाव के इस दौर में चीफ जस्टिस के इन बातों का महत्व रेखांकित होता है. देश के भीतर यह माहौल बन गया है कि सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलना या प्रतिरोध करना देश के खिलाफ कदम है. हालत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन करने वाले किसी भी गैर भाजपा राजनैतिक दलों के खिलाफ मुकदमों की भरमार हो गयी है. ताजा मामला तो यह है कि दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह पर मुकदमा दर्ज किया गया है, क्योंकि उन्होंने एक तिरंगा यात्रा में भाग लिया. कांग्रेस समाजवादी पार्टी सबके खिलाफ यह हथकंडा अपनाया गया है. सरकार का आदेश पालन करना ब्यूराक्रेसी का कर्तव्य है, लेकिन गैर संवैधानिक आदेशों पर वह सवाल भी उठा सकती है. अतीत के कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जिसमें अधिकारियों ने गैर संवैधानिक आदेशों को मानने से इंकार कर दिया. केबी सक्सेना जैसे अनेक अधिकारियों को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है. लेकिन प्रोन्नति,मनचाही पोस्टिंग और अधिकारियों के गुड बुक में प्रथम रहने की होड़ इस समय चरम पर है. करनाल की घटना तो एक उदाहरण भर है. पिछले 9 महीनों से किसानों का आंदोलन जितना ही प्रभावी हो रहा है. भाजपा शासित राज्यों की सरकारों का दमनात्मक कदम उतना ही संविधान के मूल्यों के खिलाफ पुलिस रूल के हालात बना रहे हैं. किसानों की बढ़ती ताकत ने भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की नींद हराम कर दी है. हिमाचल पर प्रदेश में जैसे ही सेब के खरीद मूल्य को अडानी समूह ने कम किया, किसानों का प्रतिरोध तेज हुआ. इसी प्रतिरोध के बाद किसानों के दमन की घटनाएं भी तेज हुई हैं. हिमाचल में सेब मूल्यों का मामला तो किसानों के कृषि कानूनों के विरोध के औचित्य को वैधता ही प्रदान करता है. किसान फसलों के उचित मूल्य को कॉरपोरेट के हवाले किए जाने के विरोध में हैं. सेबों की खरीद के लिए किसानों पर जिस तरह कॉरपोरेट दबाव बना रहा है, उससे जाहिर है कि वह फसलों के मूल्यों को अपनी शर्तों के अनुकूल लागू करने के लिए स्वतंत्र हैं. किसान नेताओं का तर्क है कि यह आज सेब किसानों के साथ हो रहा है, कल न्यूनतम मूल्य को कानूनी नहीं बनाए जाने के कारण अन्य फसलों पर भी सक्ष्ती से लागू होगा. किसानों की आशंका और सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. करनाल के लाठीचार्ज जिसमें एक किसान की मौत भी हुई है, उससे बाद पूरे हरियाणा में किसान पंचायतों में भारी भीड़ हो रही है. इसमें महिला किसानों की संख्या भी प्रभावी है. 2022 में पंजाब और उत्तर प्रदेश में चुनाव है. इन दोनों राज्यों में भी किसानों के आंदोलन का व्यापक असर है. किसानों ने सांप्रदायिक बंटवारे को नकाराना शुरू कर दिया है. किसान पंचायतों में इसपर खासा जोर दिया जा रहा है. हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर तो किसानों के आंदोलन के पीछे पंजाब के मुख्यमंत्री को बता रहे हैं. दरअसल किसानों के आंदोलन की हकीकत को नकारने के केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयास जारी हैं. 22 जनवरी के बाद से किसानों से केंद्र ने बातचीत तक नहीं किया. प्रधानमंत्री के फोन कॉल की दूरी तो लगातार">https://lagatar.in/">लगातार
बढ़ती ही जा रही है. बावजूद इसके न तो किसानों का हौसला टूटा है और ना ही उनके समर्थन में कमी आयी है. चुनाव के ठीक पहले भाजपा के लिए यह चिंता की सबसे बड़ी चिंता है. वह एक एसडीएम के औपनिवेशिक मानसिकता तो बढ़ा पुचकार सकती है, लेकिन इससे आंदोलन के तेवर पर असर पड़ता नहीं दिख रहा है. किसान नेताओं ने आकाओं के फरमान पर कानून के शासन का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों को चेतावनी दी है. [wpse_comments_template]
राजनीतिक आकाओं के फरमान पर चलने वाले अधिकारियों को किसानों ने चेताया

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