Anand Kumar
साल 2015 में बिहार का एक वाकया याद होगा आपको. नहीं है, तो हम बताये देते हैं. यही जून का महीना था. बिहार के मुख्यमंत्री आवास 1-अणे मार्ग के बगीचे में लगे लीची और आम के पेड़ फलों से लदे थे. लाल-लाल लीची और तरह-तरह के आम सबको ललचा रहे थे. 20 फरवरी 2015 को मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बहुमत साबित न कर पाने के कारण इस्तीफा दे चुके थे, लेकिन सपरिवार मुख्यमंत्री आवास में ही रह रहे थे. वहां की बगिया आम, लीची और कटहल के फलों से लदी थी, लेकिन मांझी या उनके परिवार के किसी सदस्य को एक फल भी तोड़ने की इजाजत नहीं थी. चौबीसों घंटे फलों की निगरानी के लिए 24 पुलिस अफसरों और सिपाहियों का पहरा बैठा दिया गया. बाद में सारे फल तोड़ कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आवास पर पहुंचा दिये गये और मांझी को सब्र का फल खाकर संतोष करना पड़ा.
इस पांच किलोमीटर लंबी भूमिका का मकसद आपको पुरानी कहानी सुनाकर बोर करना नहीं है. ये कहानी तो फेसबुक पर सीपी चचा की एक तस्वीर देख कर याद आ गयी. सीपी चचा, यानी सीपी सिंह. पूर्व मंत्री और रांची के विधायक. तीन बड़े कार्टूनों में भरे हुए आमों की तस्वीर साझा करते हुए उन्होंने लिखा है कि इन्हें कारबाइड के बिना पकाने की तैयारी है. यहीं नहीं, उन्होंने कोरोना का हवाला देते हुए आम पार्टी देने से भी मना कर दिया है. तो उनके चाहनेवालों को भी मांझी की तरह आमों की जगह सब्र का फल ही खाना पड़ेगा, ये तो लाजिमी है. लेकिन हमारे मन में सवाल उठा कि ये आम के फल आखिर फले कहां. तो हमने उनसे सीधे ही पूछ लिया कि सर, ये आम फले कहां हैं. उन्होंने बड़ी ईमानदारी से बता दिया कि फल लगे तो उनके सरकारी आवास के पेड़ों पर हैं. लगे हाथ हमने यह भी पूछ डाला कि आखिर सरकारी आवासों में लगनेवाले फलों पर अधिकार किसका होता है. सीपी बाबू मंत्री रहे हैं. विधानसभा के स्पीकर भी रहे हैं, लेकिन उन्हें भी इस बारे में क्लीयर कट जानकारी नहीं थी. बोले, मैं 21 साल से इस सरकारी आवास में रह रहा हूं. आवास भले ही सरकारी है, लेकिन जितने भी पेड़ हैं उन्हें मैंने खुद लगाया है. आम, लीची, केला सहित कई फल, फूल के अलावा चंदन के पेड़ भी हमारे आवास में हैं. इन फलों पर किसका अधिकार है, ये तो चीफ सेक्रेटरी या राजस्व या भूमि सुधार विभाग ही बता सकता है.
आमों की कथा निकली, तो एक और वाकया सुनाते हैं आपको. झारखंड का ही है. निधि खरे दुमका की डीसी थीं. दुमका के डीसी आवास में उस साल खूब नींबू फला था. एक दिन निधि खरे ने उन सभी फलों को तुड़वाया. गिनवाया और स्टाफ के हाथों उन्हें बाजार में बेचने को भेज दिया. नींबुओं को बेचकर जो पैसे मिले उन्हें निधि खरे ने सरकारी खजाने में जमा करवा दिया.
जब यह वाकया सुना, तो हम फिर पसोपेश में पड़ गये. तो हम बाबा के पास गये. बाबा यानी आयोध्या नाथ मिश्र. बाबा नियम-कानून-कायदों के जानकार हैं. मुख्यमंत्री तक उनसे सलाह लेते रहे हैं. हमने अयोध्या बाबा से पूछा – बाबा, सरकारी आवासों में लगे फलों पर हक किसका होता है? बाबा ने बताया कि सरकारी जमीन पर लगी संपत्ति का मालिक सरकार ही होती है. अगर किसी ने उस संपत्ति पर कुछ उपजाया है, तो वह उसका साझीदार हो सकता है, मालिक नहीं. यानी उपज का कुछ ही हिस्सा सरकारी बंगले में रहनेवालों का है. बाकी को बेच कर पैसा सरकारी खाते में जमा कर देना है, या बंगले की देखरेख करनेवाला विभाग इन फलों को तोड़ कर उनकी बिक्री करके पैसा खजाने में जमा कर सकता है.
अब हम सोच रहे हैं कि झारखंड में इतने सरकारी बंगले हैं. राजधानी में ही राजभवन, मुख्यमंत्री आवास, डीसी-एसपी आवास, मंत्रियों, सचिवों और विधायकों के कई-कई एकड़ में फैले सरकारी बंगलों में आम, लीची, जामुन, कहटल जैसे फलों के सैकड़ों फलदार वृक्ष लगे हैं, इनमें रहनेवाले लोग सत्ता की मलाई की तरह इन फलों का गूदा और रस भी चट कर जाते हैं. अवाम को आम तो क्या, गुठली भी नसीब नहीं होती है. सीपी चचा ने कम से कम ईमानदारी से फलों की फोटो दिखाई. घर आने पर आम खिलाने का वादा भी किया. वरना हमने तो कई सरकारी बंगलों में उगे फलों और तरकारियों को बाजार में बिकते और पैसों को जेब में रख लेनेवालों को भी देखा है.
बहरहाल, किस्सा यहीं खत्म होता है, लेकिन मेरे मन में यह सवाल अभी भी पेड़ पर टंगे आम की तरह लटका है कि आखिर फलों पर हक है किसका? बंगले में रहनेवाले का, पेड़ लगानेवाले का, सरकार का या अवाम का. आपको जवाब मिले न मिले, सब्र के साथ आमों पर नजर बनाये रखिये. शायद आपको भी अगले साल किसी सरकारी बंगले का आम चखने को मिल जाये. आखिर आम की बात चली है, तो अवाम की हिस्सेदारी तो बनती है.
आमदार स्टोरी है…मैंगो मैन के लिए अच्छी जानकारी है.