MK Venu and Maya Mirchandani
मोदी सरकार और विश्व की दिग्गज आईटी कंपनियों, खासकर ट्विटर और फेसबुक के बीच चल रही रस्साकशी काफी पाखंडपूर्ण है, खासकर यह देखते हुए कि सत्ताधारी भाजपा सरकार -अब तक- सोशल मीडिया की प्रसार करने की शक्ति की इस्तेमाल करने के मामले में सबसे सफल रही है.
भाजपा ने न सिर्फ इन मंचों का इस्तेमाल जीत सुनिश्चित करनेवाले राजनीतिक अभियानों का आगाज करने के लिए किया है, बल्कि इसकी कुख्यात आईटी सेल ने प्रोपगेंडा फैलाने और धार्मिक अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवी आलोचकों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए इसका इस्तेमाल दुरुपयोग की हद तक किया है.
अंदरखाने की जानकारी रखने वाले व्हिस्लब्लोअर्स के विवरणों, खासकर पिछले साल फेसबुक के अंदर से आए विवरणों ने यह बताया कि मोदी तंत्र ने कितनी सफलता के साथ, इसके भारतीय पॉलिसी हेड के दफ्तर के माध्यम से इस प्लेटफॉर्म पर पार्टी की लकीर पर चलने और इसके तहत खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहरीले हेट स्पीचों के द्रुत प्रसार को लेकर अपनी आंखें मूंदे रखने का दबाव बनाया.
ऐसा कई यूज़र्स के द्वारा बेहद नफरत से भरी सामग्रियां लगातार पोस्ट करने से फेसबुक के अपने ही बनाए कम्युनिटी स्टैंडर्ड का कई शिकायतों के बावजूद खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया गया. इसलिए ट्विटर और फेसबुक जैसे मंचों के खिलाफ सरकार के हालिया बयानों और फेसबुक के स्वामित्व वाले मैसेजिंग प्लेटफॉर्म वॉट्सऐप से एंड टू एंड इनक्रिप्शन से समझौता करने की मांग को देखते हुए यह सवाल पूछना लाजिमी हो जाता है कि आखिर इसके पीछे वजह क्या है?
अब यह स्पष्ट है कि जिस चीज की शुरुआत कुछ समय पहले ऊपरी तौर पर हम सबसे कई गैजिलियन बाइट डेटा एकत्र करने वाली और हमारे व्यवहार और पसंदों के माध्यम से पैसा बनाने वाली दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियों को विनियमित करने के एक वैध, अनेक हितधारकों से जुड़े प्रयास के तौर पर हुई थी, उसने एक महत्वपूर्ण हितधारक यानी सरकार की वास्तविक मंशाओं को जाहिर दिया है.
नागरिकों पर जासूसी बैठाने, असहमति को दबाने, राजनीतिक विपक्ष को धमकाने और बेखबर जनता को पर एकछत्र प्रभाव डालने के सवाल पर नरेंद्र मोदी के अधीन भारत सरकार को किसी तरह का कोई खेद या पछतावा नहीं है.
नए डिजिटल मीडिया नियमों को लागू करने की सरकार की एकतरफा कोशिशों से भड़ककर सोशल मीडिया मंचों ने मोदी सरकार से दो-दो हाथ करने का फैसला कर लिया है.
अगर ट्विटर ने विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ भाजपा नेताओं के प्रोपगेंडा ट्वीटों को ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ (छेड़छाड़ किया गया) मीडिया करार दिया (जिसके जवाब में सरकार ने ट्विटर को नोटिस थमा दिया), तो दूसरी तरफ वॉट्सऐप ने नियमों को असंवैधानिक और निजता (जो इस प्लेटफॉर्म का मुख्य आकर्षण है) का उल्लंघन बताते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
सरकार के नए आईटी नियम में शिकायत निपटारा प्रक्रिया की निगरानी और कानूनी आदेश के 36 घंटे के भीतर कंटेंट को हटाने लिए एक स्थानीय अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है. इसमें ऐसे अधिकारियों द्वारा आदेशों का पालन न करने की स्थिति में अभियोजन की चेतावनी भी दी गई है.
इसका मतलब है कि इन मंचों को इनके उपयोगकर्ताओं द्वारा पोस्ट किए गए झूठे और घृणा से भरे कंटेंट के लिए कानूनी रूप से जवाबदेह ठहराया जाएगा. ये यूज़र्स चाहे ज्ञात हों या पहचान किए जाने लायक या अज्ञात हों.
आपत्तिजनक कंटेंट के प्रसार की जवाबदेही को ये मंच भी साझा करें, इस बात की जरूरत पर किसी तरह का कोई विवाद नहीं है. वर्षों से विशेषज्ञों और टेक्नोलॉजी, मीडिया और राजनीति के गठजोड़ पर काम कर रहे पेशेवरों ने एक बेहतर पहचान करने के मैकेनिज़्म का विकास करने की जरूरत पर बल दिया है- इस मैकेनिज़्म में कंटेंट मॉडरेटरों की संख्या बढ़ाना और आर्टिफिश
ियल इंटेलीजेंस/मशीन लर्निंग को और मजबूत करना शामिल है, जो आपत्तिजनक कंटेंट के पोस्ट किए जाने के साथ ही उसे हटा दें और ऐसी सामग्री पोस्ट करनेवालों पर कार्रवाई कर सकें.
लेकिन वह एक अलग बहस है.
गलत समय का चुनाव
सरकार द्वारा डिजिटल मीडिया मंचों के खिलाफ युद्ध छेड़ने का समय इससे ज्यादा खराब नहीं हो सकता था. याद कीजिए, यह वही ट्विटर है जिसने इस साल 6 जनवरी को जो बाइडेन की चुनावी जीत को चुनौती को देते हुए अमेरिकी कैपिटल में हुए फसाद के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अपने प्लेटफॉर्म से सस्पेंड कर दिया था.
दूसरी तरफ सरकार द्वारा सीबीआई और दिल्ली पुलिस द्वार ट्विटर के खाली और अंधेरे दफ्तरों पर तब छापा मारने का फैसला लिया गया जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर कोविड संकट से जूझ रही भारतीय जनता के लिए वैक्सीन की वार्ता करने के लिए वाशिंटगन पहुंचे ही थे. इस कार्रवाई ने बाइडेन के अमेरिका में अवांछित सुर्खियां बनने का ही काम किया.
अपनी यात्रा के दौरान बातचीत में विदेश मंत्री को बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसा और भारत में नागरिक अधिकारों की रक्षा को लेकर बढ़ रही चिंताओं पर पूछे गए सवालों का जवाब देना पड़ा.
यूरोपियन यूनियन के ग्लोबल डेटा प्रोटेक्शन रिजीम या जीडीपीआर के तहत सभी बड़ी टेक कंपनियों को- जो निजी उपयोगकर्ताओं के बारे में अंतहीन डेटा एकत्र करती हैं- संभावित खतरों, जिनमें लीक हुई वित्तीय जानकारियां, बाल तस्करी और राज्य द्वारा जासूसी सबसे अहम थे- के आलोक में उपयोगकर्ताओं की निजता की रक्षा करने का वचन देना पड़ा है.
ऐसे में कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अपने दफ्तरों पर भारत सरकार द्वारा मारे गए छापों के जवाब में ट्विटर ने अभिव्यक्ति की आजादी के संभावित खतरों को लेकर अपनी चिंता जाहिर की और साथ ही जरूरत के हिसाब से किसी कंटेंट ‘मैनिपुलेटेड’ (छेड़छाड़ किया गया), अनवेरिफाइड (गैरसत्यापित) या ‘खतरनाक’ करार देने का वचन दोहराया.
दिलचस्प यह है कि जिस समय यह नाटक परदे पर खेला जा रहा था, उस समय गूगल के मुखिया और हमारे सभी डेटा को जमा करने वाले सुंदर पिचाई सभी के बचाव में आते दिखे.
इंटरनेट की स्वतंत्रता के बुनियादी स्वभाव को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि गूगल आज्ञापालन के मामले में सरकार के साथ रचनात्मक तरीके से काम करने के लिए प्रतिबद्ध है, मगर साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पारदर्शिता के तकाजे को देखते हुए कंपनी सरकार के आग्रहों को पालन किए जाने के मौके को अपनी ट्रांसपेरेंसी रपटों में रेखांकित करने के लिए विवश है.
आप बस कल्पना कीजिए कि भारत सरकार को दुनियाभर में किस तरह से देखा जाएगा जब एक टेक प्लेटफॉर्म अपनी ऐसी ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट में भारत सरकार के अनगिनत निवेदनों को रेखांकित करेगा.
संभवतः वैश्विक मीडिया में और खराब संदेश जाने के खतरों के मद्देनजर यह बात देश के नीति-निर्माताओं को भी समझ में आई है. शुक्रवार को सूचना एवं तकनीक मंत्री रविशंकर प्रसार ने एक ज्यादा सुलह-सफाई वाला लहजा अपनाया.
ट्विटर को यह कहते हुए कि नए नियमों का पालन न करके वह भारत की कानूनी व्यवस्था की अवहेलना कर रहा है और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर इसकी चिंताएं ‘पूरी तरह से बेबुनियाद, गलत और भारत को बदनाम करने की कोशिश’ है, या वॉट्सऐप से 36 घंटे के भीतर उपयोगकर्ता की जानकारी देने की मांग करते हुए, एक तरह से प्रसाद ने एक सोची-समझी या भ्रम पैदा करनेवाली पलटी मारी और यह स्पष्टीकरण दिया कि उन्होंने ‘सामान्य’ उपयोगकर्ताओं के लिए इनक्रिप्शन को हटाने की मांग नहीं की है.
गलत साबित हुई रणनीति
मामला कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि सरकार ने खुद को एक मुश्किल स्थिति में डाल दिया है. एक ऐसे समय में जब यह ऑनलाइन आलोचकों का दमन करने कोशिश में लगी है, बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के खिलाफ तलवार निकालकर इसने शायद खुद को अपने ही बुने चक्रव्यूह में फंसा लिया है.
भाजपा जिस ब्रांड की राजनीति करती है, वह काफी गहराई से इसकी ऑनलाइन उपस्थिति और सोशल मीडिया के उपयोग और दुरुपयोग से जुड़ी है. क्या प्रधानमंत्री लगभग 7 करोड़ फॉलोवर्स के विशाल दर्शक-श्रोता वर्ग को इतनी आसानी से हाथों से निकलने देंगे? आईटी सेल अपनी वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के सहारे मिथ्या प्रोपगेंडा अभियान किस तरह से चलाएगी?
प्रधानमंत्री की रणनीति हमेशा से सोशल मंचों का इस्तेमाल अपने महावृत्तांतों को गढ़ने के लिए करने की रही है. लेकिन हाल के इतिहास में ऐसे मौके आए- मसलन पिछले साल हुए किसानों के आंदोलन और इस साल कोविड की दूसरी लहर की कमजोर तैयारी और उसके आपराधिक कुप्रबंधन को लेकर व्यापक जनआक्रोश- जब ये सोशल प्लेटफॉर्म्स ही सत्ताधारी दल के गले की फांस बन गए.
वास्तव में दिग्गज सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी मंचों और ऑनलाइन न्यूज मीडिया के लिए नये नियमों को लेकर विवादास्पद बहस एक साथ ऐसे मौके पर आई है जब मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अपने नेतृत्व के सामने आई अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि प्रधानमंत्री की छवि पर बट्टा लगा है और उनके लिए सुर्खियों का प्रबंधन करने वालों को भारत और विदेशों में आई नकारात्मक खबरों तथा रिपोर्टों की सुनामी से निपटने में पसीने छूट रहे हैं. जवाब में मोदी सरकार ने आजाद अभिव्यक्ति दबाने में लग गई है, क्योंकि यही वह एकमात्र अस्त्र है, जिससे इसे गहरी चोट लगती है.
उसके निशाने पर सिर्फ सोशल मीडिया ही नहीं, बल्कि घरेलू डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भी हैं. इसलिए जहां एक तरफ यह अमेरिकी की बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों के खिलाफ सीमित असलहे के साथ लड़ रही है, वहीं दूसरी तरफ इसने घरेलू डिजिटल मीडिया को अपने निशाने पर ले लिया है, क्योंकि इसे लगता है इसे ज्यादा आसानी से डराया जा सकता है.
बीते हफ्ते सरकार ने एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया जिसमें इसने घरेलू डिजिटल न्यूज मीडिया से नए हस्तक्षेपकारी नियमों का पालन करने के लिए कहा है. ये नियम सरकार को किसी न्यूज कंटेंट को हटाने की असीमित शक्ति देते हैं और इसके लिए उसे प्रकाशक को जानकारी देने की भी जरूरत नहीं है.
कानून के विशेषज्ञ इस बात को लेकर एकमत हैं कि ऑनलाइन डिजिटल मीडिया के लिए नये नियम भारत की अभिव्यक्ति की आजादी संबंधी कानूनी सिद्धांतों को सिर के बल पलटने वाले हैं. डिजिटल मीडिया संस्थानों ने कानूनी तौर पर सरकार को इस आधार पर चुनौती दी है कि ये नए कानून संविधान का उल्लंघन करने के साथ-साथ आईटी अधिनियम, 2020, जो उस मूल कानून है, जिसके तहत ये नियम सोशल प्लेटफार्म्स, ओटीटी और डिजिटल न्यूज मीडिया के लिए अलग-अलग लाए गए हैं, का भी उल्लंघन है.
डिजिटल मीडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन, जिसमें बड़ी ऑनलाइन उपस्थित वाले परंपरागत मीडिया समूह शामिल हैं ( इंडिया टुडे, मलयालम मनोरमा, टाइम्स ऑफ इंडिया, दैनिक भास्कर और एनडीटीवी जैसे संस्थान) ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को खत लिखकर कहा है कि वे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी जैसे वर्तमान वैधानिक और स्व-विनियामक निकायों के तहत भली-भांति विनियमित हैं और इन नए नियमों की वास्तव में कोई जरूरत नहीं है.
उन्होंने मंत्री महोदय को देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में डिजिटल न्यूज संस्थानों द्वारा दायर लंबित कानूनी याचिकाओं की भी याद दिलाई और सरकार से कानूनी चुनौतियों का सामना कर रहे नए नियमों को थोपने की कोशिश करने से पहले इन मामलों में फैसला आने का इंतजार करने की गुजारिश की.
डिजिटल न्यूज के लिए नए नियमों के खिलाफ कानूनी और संवैधानिक याचिकाएं केरल और दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित हैं. केरल उच्च न्यायालय ने तो याचिकाकर्ता लाइव लॉ को निशाना बनाने वाली कोई दमनात्मक कार्रवाई न करने की चेतावनी भी दी. इसके अलावा, द क्विंट, द वायर और द न्यूज मिनट ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दो अलग याचिकाएं दायर की हैं.
ये संदेश अनसुने कर दिए गए हैं, जो इस बात का संकेत देते हैं कि सरकार बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों और घरेलू ऑनलाइन डिजिटल मीडिया के साथ टकराव के रास्ते पर है. वास्तव में सरकार की चुप्पी में घमंड की बू आ रही है. न सिर्फ उन्होंने लंबित कानूनी याचिकाओं को रेखांकित करने वाली चिट्ठियों का जवाब नहीं दिया है, बल्कि इसने 15 दिन के भीतर हस्तक्षेपकारी डिजिटल मीडिया कानूनों को लागू करने की अधिसूचना भी जारी कर दी है.
इसका अर्थ यह है कि सरकार को यह लग रहा है कि जोर-जबरदस्ती और डराने-धमकाने से सरकार की बिगड़ रही छवि की समस्या का समाधान हो जाएगा.
यहां यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि अतीत की किसी भी सरकार ने नियमों से प्रभावित होने वाले पक्षों से किसी भी तरह का सलाह-मशविरा किए बगैर इस तरह एकतरफा तरीके से व्यवहार नहीं किया है. ऐसे में आजाद अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक कार्य-पद्धति के इसके दावों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?
ऐसे में जबकि सरकार नये डिजिटल मीडिया नियमों को थोपने पर आमादा है, वैसे तो सवालों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिसका जवाब उसके पास नहीं है. लेकिन, इस एक सवाल का जवाब देने में सरकार की असमर्थता काफी कुछ बयान करने वाली है.
साभार : द वायर
(माया मीरचंदानी अशोका यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडीज की असिस्टेंट प्रोफेसर और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की सीनियर फेलो हैं. एमके वेणु द वायर के संस्थापक संपादक हैं.)