क्या अंधी सुरंग में चली गयी है किसान और सरकार की वार्ता
Faisal Anurag मरेंगे या जीतेंगे. किसानों का यह संकल्प केंद्र सरकार के ताजा रूख के बाद परवान चढ़ रहा है. किसानों के साथ केंद्र सरकार की बातचीत 9वें दौर के बाद अधर में दिखायी दे रही है. 15 जनवरी को 10वें दौर की बातचीत की संभावना तो व्यक्त की जा रही है. केंद्र ने जिस तरह किसानों के आगे सुप्रीम कोर्ट की शरण लेने का सुझाव दिया है. उससे साफ जाहिर होता है कि बातचीत बंद सुरंग में धकेल दिया गया है. केंद्र सरकार जिस तरह के किसान संगठनों के समर्थन का दावा कर रही है उस की असलियता को एनडीटीवी ने उजागर कर दिया है. जिन किसान संगठनों ने तीनों कृषि कानूनों का समर्थन किया है. वे सभी भारतीय जनता पार्टी के ही हिस्से. एक संगठन हिंद मजदूर किसान संघ उसका निबंधन 20 दिसंबर को हुआ और उसे केंद्रीय कृषि मंत्री ने अपने पास बुला कर उसके समर्थन का एलान कर दिया समर्थन देने वाले लगभग सभी किसान संगठन उत्तर प्रदेश के हैं. जब कि आंदोलनरत किसान छह राज्यों से दिल्ली आये हैं और कई अन्य राज्यों के किसान अगले चार पांच दिनों में दिल्ली पहुंच जायेंगे. केंद्र पर भारी दबाव है. उसे किसानों की राजनैतिक शक्ति कोप की आशंका तो है. लेकिन कानूनों की वापसी करने को वह तैयार नहीं है. इसका एक बडा कारण तो आर्थिक सुधारों के लिए ढांचागत बदलावों की मोदी की कोशिश है. नरेंद्र मोदी ने अपना इरादा तो 2014 के चुनावों में जीत के तुंरत बाद ही यह कहते हुए जाहिर किया था. कि वे भारत के आर्थिक क्षेत्र को बदल देंगे. जापान में मोदी ने कहा था कि उनके खून में व्यापार है. यह मामूली बात नहीं थी क्योंकि मोदीराज के छह साल कारपारेट समूहों के लिए ही रहा है. हालांकि अंबानी की कंपनी ने कृषि कानूनों से कुछ को अलग तो कर लिया है बावजूद इसके कानूनों पर सरकार के अडे रहने का मतलब है कि वह आर्थिक सुधारों से पीछे जाने को तैयार नहीं है.किसान आंदोलन ने जिस तरह जाति की दीवार को तोड़ा है और सांप्रदायिक भेदभाव को भी खत्म कर दिया है. भाजपा इन्हीं दो हथियारों से आंदोलन को अब तक तोलती रही है. किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि केंद्र किसानों के सब्र का इम्तेहान ले रहा है. किसानों की कृषि संस्कृति तो अपराजेय धैर्य की ही सीत देता है केंद्र इसे भूल रहा है. ये वही टिकैत हैं जिनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत नं 90 के दशक में दिल्ली को घेर कर किसानों की मांग को मनवाया था. किसानों के संगठन पिछले तीन दशकों में राज्य सरकारों से लेकर किसानों के हित में अनेक सुविधाओं को हासिल किया है. टिकैत ने दो दिनों पहले यह भी कहा था कि वे मई 2024 तक संघर्ष करने को तैयार है. यही समय है जब लोकसभा का आम चुनाव होगा. किसानों की लडाई में राजनैतिक दलों की भूमिका नहीं है लेकिन उनका संदेश पूरी तरह राजनैतिक है. केंद्र सरकार चाहती है कि किसान कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट जाये और हक हासिल करें. लेकिन किसानों ने साफ कर दिया है कि वे सरकार की इस चाल के शिकार नहीं होंगे. सुप्रीम कोर्ट 11 को उस याचिक पर फिर सुनवायी करेगा. जिसमें कोरोना काल में भीड़ के जमा होने के खतरों की बात की गयी है. सुप्रीम कोर्ट ने दो दिनों पहले ही कहा है कि किसान आंदोलन में कोरोना नियमों का पालन किया जा रहा है कोरोना पर नियम टूटने पर तब्लीगी जमात जैसी परेशानी होगी. जिस तरह तबलीग जमात की चर्चा सप्रीम कोर्ट कर रहा है उससे कई संकेत मिलते हैं. कोरोना काल में ही बिहार के चुनावों में भारी भीड़ इकट्ठा हुई, बंगाल मे अमित शाही और नड्डा रैलियों कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में पिछले 44 दिनों में दिल्ली के चारों बोर्डरों पर जमे किसानों के बीच से कोराना संक्रमितो का नहीं निकलना बहुत कुछ कह रहा है. किसान नेताओं को आशंका है कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट का आड़ लेना चाहती है. किसानों के 7 जनवरी के ट्रैक्टर मार्च में जिस तरह लोग सामने आये इससे आंदोलन का हौसला बढा ही है. महिला किसानों का नया नेतृत्व आंदोलन की गति में बराबर की भूमिका निभा रहा है. किसान भारत में एक बडी राजनैतिक ताकत हैं बावजूद उनकी बातों को अनसुना किया जाना सामान्य नहीं दिख रहा है. 2019 के चुनावों की शुरूआत के साथ ही प्रधानमंत्री ने किसानों को हर साल दो हजार रूपये किसानों किश्तों में देने का एलान किया. चुनाव के समय किसानों को दो किश्त का भुगतान किया. तब विरोधी दलों ने कहा था केंद्र सरकार किसानों को एक तरह का लालच चुनाव में समय दे रही है. लेकिन इस का असर नहीं हुआ. 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी को किसानों ने खुल कर वोट किया. अनेक ऐसे वीडियो आंदोलन स्थल से वायरल हो रहे हैं जिसमें किसान कह रहे हैं कि उन्होने वोट दे कर गलत किया था. चुनाव किसानों के सवाल पर नहीं लडा गया था. बावजूद कोविड काल में बिना किसानों से चर्चा किये ही तीनों कानून बनाये गये. आंदोलन की भावी दिशा क्या होगी यह तो अगले चार छह दिनों में ही उजागर होगा लेकिन इतना तो तय है कि किसानों का नया संकल्प है कि वे मरेंगे या जीतेंगे वापस तब ही जाएंगें.

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