बैजनाथ मिश्र
बिहार में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गयी है. इस बार दो चरणों में वोट पड़ेंगे. पहला छह नवंबर को और दूसरा ग्यारह नवंबर को. चौदह नवंबर को नतीजे आ जायेंगे. लेकिन अभी मुकाबले की दशा-दिशा पूरी तरह साफ नहीं है. अभी तो दोनों बड़े गंठबंधनों के बीच सीटों के बंटवारे पर फंसा पेंच सुलझ नहीं पाया है. यह मुकम्मल तौर पर सुलझेगा या नहीं, यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है. सबकी तमन्नाएं हैं, गलतफहमियां भी हैं. चाहे इधर चिराग हों या उधर के सहनी. सीट बंटवारे की पहेली सुलझ भी गयी तो टिकट बंटवारे का बखेड़ा खड़ा होगा. जिसे टिकट नहीं मिलेगा, उसकी भुजाएं फड़केंगी, सुसुप्त पराक्रम अंगड़ाई लेगा. नहीं दलीय तो निर्दलीय ही सही, लेकिन बेटिकट करने वालों को उनकी औकात दिखानी ही पड़ेगी. ऐसे लोगों के लिए तेजप्रताप, ओवैसी, केजरीवाल और किंचित प्रशांत किशोर भी चारा डाले बैठे हैं.
बिहार का यह चुनाव पहले के चुनावों से अलग होगा. यह चुनाव न केवल बिहार का राजनीतिक भविष्य तय करेगा, बल्कि देश की राजनीति की दिशा भी तय करेगा. वर्तमान विधानसभा में भाजपा और राजद क्रमशः पहले व दूसरे नंबर हैं. जद (यू) तीसरे, कांग्रेस चौथे और वाम मोर्चा पांचवें पायदान पर है. अगर कोई बड़ा उलट फेर नहीं हुआ तो इस बार के चुनाव नतीजे भी इसी क्रम के अनुसार आ सकते हैं. अलबत्ता सीटें घट-बढ़ सकती हैं. दोनों गंठबंधनों के आगे-पीछे होने का मूल आधार भाजपा-राजद ही होंगे. यही दोनों पार्टियां अपने-अपने गंठबंधनों को लीड करेंगी.
भाजपा महारथियों, रथियों से लैस है. उसके शस्त्रागार में मिसाइलों की भरमार है और सुरक्षा कवच भी है. लेकिन उसके पास कोई ऐसा बिहारी नेता नहीं है जिसकी कमान में वह शंखनाद कर सके. राजद के पास नेता भी है और अलग-अलग व्यूहों की रक्षा के लिए सक्षम-समर्थ शूरवीर भी. सामाजिक आधार के गोला बारूद से लैस राजद समर का परिणाम बदल सकता है. लेकिन उसके पंद्रह साल के शासन के कलंक का अभिशाप उसके रथ का पहिया धरती में धंसा सकता है. उसके साथ खड़े वामपंथियों के पराक्रम पर संदेह नहीं है, लेकिन उनकी सीमाएं हैं. वे पूरे बिहार के दुर्गों को जीतने में सहायक नहीं हैं. रही बात कांग्रेस की तो वह बिहार में पराश्रयी है. उसका ताना-बाना तो रणबांकुरों जैसा है, रथ भी सुसज्जित है, लेकिन दशा "लड़ते हैं मगर हाथ में तलवार ही नहीं वाली" है. इस गंठबंधन के साथ खड़े वीआइपी सहनी अपने जिस सैन्य बल की धौंस दिखा रहे हैं, उसका आधा तो भाजपा पहले ही हड़प चुकी है.
अब लौटते हैं जद (यू) पर. यह नारा जरुर लग रहा है कि पच्चीस से तीस, फिर नीतीश, लेकिन यह अपने हिस्से की आधी सीटें भी जीत ले तो बड़ी बात होगी. नीतीश पूरी तरह भाजपा के सहारे और गैर यादव पिछड़ों के भरोसे हैं. उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके अति पछड़े सेनानियों को तोड़ने-बिखराने में सभी विरोधी पूरी शिद्दत से लगे हैं. जीतनराम मांझी गिरते-पड़ते अपना मोर्चा संभाल सकते हैं और चिराग भी मजबूती से डट सकते हैं, लेकिन अपनी रक्षा खुद कर पाने में असमर्थ हैं. इस बार ओवैसी तड़फड़ा रहे हैं. उन्हें पिछली बार जैसा समर्थन मिलना मुश्किल है. इसलिए वह महागंठबंधन का खेल बिगाड़ने में लगे हैं.
जहां तक प्रशांत किशोर के जन सुराज की बात है, उसकी आभा प्रदीप्त है. प्रशांत का आकलन है कि पिछले चुनाव में दोनों गंठबंधनों को 72 प्रतिशत वोट मिला था. बाकी 28 फीसदी वोट बिखरे हुए थे. ये बिखरे वोट वह समेटने में लगे हैं और यदि दोनों समूहों के दस-दस फीसदी वोट भी कट गये तो वह समर फतह कर लेंगे. उनके एक बड़े नेता पवन वर्मा का कहना है कि करीब एक करोड़ मतदाता उनसे जुड़ गये हैं. यदि ऐसा है तो कहना पड़ेगा कि बिहार में हिलोर बा, प्रशांते किशोर बा. उनके पास साधन संसाधन की कोई कमी नहीं है. हिसाब-किताब में वे माहिर हैं ही. लेकिन उनके साथ ऐसे लोगों की भरमार है, जो नाम बड़े और दर्शन छोटे के पर्याय हैं. फिर भी वह एक मजबूत कोण बना रहे हैं. यह बात अलग है कि चाय की प्याली होंठ तक आते-आते युग बदल जाता है.
बहरहाल, यह चुनाव वही जीतेगा जिसे महिलाओं और युवाओं का भरपूर समर्थन मिलेगा. नीतीश सरकार ने महिलाओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए दस हजारी योजना शुरु कर दी है. पिछली बार भी अंतिम चरण में महिलाओं ने ही उनकी इज्जत बचा ली थी. लेकिन राज्य में करीब पौने दो करोड़ जेनजी (युवा) मतदाता किसी की भी खाट खड़ी कर सकते हैं और किसी को सिंहासन दे सकते हैं. यदि विकास का मुद्दा सिर चढ़कर बोला तो एनडीए फायदे में रहेगा लेकिन रोजगार का मामला फिफ्टी-फिफ्टी पर फंस जाएगा. प्रशांत किशोर इसी पर जोर दे रहे हैं और इसे शिक्षा तथा पलायन से जोड़ रहे हैं.
प्रसंगवश इस बात का भी उल्लेख आवश्यक है कि यदि नीतीश ने दो बार पलटी मारकर तेजस्वी को संजीवनी नहीं पिलायी होती तो आज राजद हाशिए पर पड़ा कसमसा रहा होता. याद कीजिए 2010 का चुनाव, जब राजद दो दर्जन सीटों पर सिमट गया था. लेकिन नीतीश ने मोदी से खुन्नस के कारण ऐसा कर दिया कि कमजोर होता राजद आज उन्हें प्रत्यक्ष चुनौती दे रहा है. खैर, इस चुनाव में दावे-वादे और इरादे महत्वपूर्ण फैक्टर है. दावे सरकारी पक्ष करेगा, वादे विपक्षी करेंगे और इरादे वोट के जरिए मतदाता व्यक्त करेंगे. देखना होगा कि वोटर दावों पर विश्वास करते हैं या वादों पर. पर अभी तो चुनाव फंसा हुआ है. तीनों विकल्प एनडीए, महागंठबंधन और जन सुराज मतदाताओं के लिए खुले हुए हैं.
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