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महामहिम को फिर से मिल गई बिल लटकाने की आजादी!

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने आज एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए कहा है कि बिलों की मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल के लिए कोई टाइमलाइन निर्धारित नहीं किया जा सकता. बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के पहले के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें बिल को मंजूर करने के लिए समय सीमा तय की गई थी. बेंच ने अपने आदेश में संविधान की आर्टिकल 200/201 का हवाल दिया है, जिसमें बिलों की मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति व राज्यपाल के लिए समय सीमा नहीं तय किया जा सकता.


हालांकि बेंच ने यह भी कहा है कि अगर बिल को लंबे समय तक रोका जाता है, तो यह कानूनी विचार का विषय होगा. और समय सीमा के भीतर फैसला लेने का निर्देश देने के लिए अदालत बाध्य होगा. सुप्रीम कोर्ट के बेंच का फैसले का विवादों में आना तय है. इसकी कई वजहें हैं. 


दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के बेंच का यह फैसला वैसा ही है, जैसा कि केंद्र की सरकार चाहती हैं. केंद्र ही राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति करती है. राज्यों के राज्यपाल केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हैं. 
और अक्सर ऐसा देखा गया है कि राज्यपाल केंद्र के इशारे पर ही काम करते हैं. यहां तक कि कई बार केंद्र की सत्तासीन राजनीतिक पार्टी की तरफ से पक्षपात करने के भी उदाहरण हैं. महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार को सत्ता से बेदखल करना इसके ताजा उदाहरण हैं.

 

बिलों पर फैसले को लेकर राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए जो समय सीमा तय की गई थी, वह कई राज्यों की उन शिकायतों पर सुनवाई के बाद की गई थी, जिनमें राज्यपालों के द्वारा बिलों को अनिश्चितकाल तक के लिए लटकाकर रखा गया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राष्ट्रपति ने 14 सवाल उठाये थे. जिसपर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के बेंच ने आज फैसला दिया. 


नए फैसले का असर यह होगा कि राज्यपाल फिर से वही सब करेंगे, जो पहले किया करते थे. राज्यों के बिलों पर बेवजह आपत्ति करेंगे, दुबारा भेजने पर लंबे समय तक रोक देंगे. कुछ समय बीतने के बाद फिर राष्ट्रपति को भेज देंगे. फिर वहां भी लटकाये जाने की पूरी गुंजाईश है. और यह सब होते-होते राज्य की सरकार के शायद पांच साल पूरे भी हो जाये. और यह सब कुछ होगा लोकतांत्रिक तरीके से.

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