Srinivas
इस तरह के आरोपों का मुकम्मल जवाब दिया जाता रहा है, मैंने भी लिखा, पर पुनः पुनः यह चर्चा चलती रहती है. कुछ समय पहले दिल्ली वीवि में हिंदी के शिक्षक अपूर्वानंद का एक लेख भी छपा था. बीबीसी से जुड़े रहे कुर्बान अली भी ऐसा लिखते-कहते रहते हैं. इसी संदर्भ में वाहिनी समूह ने एक ऑनलाइन चर्चा करायी थी- दो दिन! मुझे भी बोलना था. उसमें जो कहा, वह पढ़ें..
कुछ कहने से पहले- पिछली मीटिंग पर चर्चा के क्रम में वाहिनी में रही एक युवती का कमेंट- आप लोग जितना भी दिल पर लें, संघ उस आंदोलन से स्थापित तो हुआ ही.
शायद एक हद तक यह सही है, मगर एक हद तक ही और अधूरा सच. चूंकि संघ/भाजपा वाले उस आंदोलन का हिस्सा थे, तो आंदोलनकारी का तमगा लटकाने (जिसका हक भी है) के साथ उन्हें जेपी का वारिस होने का दावा करने का अधिकार/मौका भी मिल गया.
मगर आज संघ या भाजपा के मजबूत होने के लिए जेपी या आंदोलन को जवाबदेह मानना बेबुनियाद है. इसके लिए कोई ठोस तर्क नहीं है. जो लोग 1967 में ही संघ/जनसंघ को गले लगा चुके थे, उनके साथ सत्ता सुख भोग चुके थे, कम से कम उन्हें यह कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. उनमें समाजवादी और सीपीआई के लोग शामिल हैं.
वैसे हिंदी पट्टी में जनसंघ तब भी एकदम हाशिये पर नहीं था. बिहार के शहरी इलाकों में उसकी उल्लेखनीय उपस्थिति थी. संघ सक्रिय था, उसकी शाखाएं लगती थीं. विद्यार्थी परिषद भी था. आंदोलन में भागीदारी के कारण अन्य दलों को भी नया जीवन मिला ही, वे यदि आगे उसका लाभ नहीं उठा सके, यह उनकी कमी है.
उस दिन मंथन ने बीते दशकों की वोटिंग के आंकड़ों के आधार पर बताया था कि अपनी स्थापना- 80- के बाद भाजपा के मत प्रतिशत में कब कितना इजाफा हुआ या कमी आयी. उससे भी स्पष्ट है कि इसका जेपी आंदोलन में उसके होने न होने का कोई प्रभाव नहीं है.
उल्लेखनीय है कि जेपी का निधन 1979 में हो गया. उसके बाद के चुनाव (’80) में कांग्रेस की वापसी हो गयी. केंद्र सहित सभी राज्यों में जनता पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी. उसके बाद यदि संघ मजबूत हुआ तो जेपी के कारण या कथित सेकुलर दलों के निकम्मेपन के कारण?
1984 में तो परिस्थिति विशेष थी, लेकिन 1989 में भी इनको एक पूर्व कांग्रेसी - वीपी सिंह - का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा!
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि बाबरी ध्वंस के बाद भाजपा शासित चार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था. उसके बाद हुए चुनावों में भाजपा हर जगह हार गयी! यानी बाबरी ध्वंस का भी उसे तत्काल कोई लाभ नहीं मिला.
जेपी के निधन के 17 वर्ष बाद भाजपा के वाजपेयी जी पहली बार ‘96 में तेरह दिन के लिए प्रधानमंत्री बने- बिना बहुमत के, तत्कालीन राष्ट्रपति की सायास या अनायास चूक के कारण! 1998 में फिर बने- ‘गैरकांग्रेसवाद’ के पुरोधाओं की मदद से- जार्ज, शरद यादव और रामविलास पासवान उस पालकी में सवार हो गये, उसे ढोते रहे. इसमें जेपी की कोई प्रेरणा थी? इसलिए कि जेपी संघ को सर्टिफिकेट दे चुके थे? नहीं. ये वही लोग थे, जिन्होंने दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी की सरकार गिरा दी थी, यानी 1998 के पहले तक ये भाजपा और संघ के धुर विरोधी थे. तब उनको याद नहीं था कि जेपी तो संघ को प्रमाणपत्र दे चुके थे!
मेरे ख़याल से तो सबसे अधिक निराश कथित समजवादियों ने ही किया है. आजादी के ठीक बाद वही विकल्प थे. इसलिए पहले कांग्रेस और अब भाजपा की मजबूती के लिए उनकी काहिली, उनका ढुलमुलपन भी बड़ा कारण रहा है. 90 में वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और माकपा दोनों का समर्थन हासिल था.
अब अपूर्वानंद- ये जनाब तब सीपीआई में थे, जो आंदोलन के विरोध में ही नहीं थी, इमरजेंसी में भी फासिस्ट विरोधी सम्मेलन करती थी. उसकी नजर में जेपी और हम सब फासिस्ट थे. आरोप है कि पुलिस को आंदोलनकारियों की सूचना देती थी. इमरजेंसी के पहले चंपारण के एक गांव में हमारी सभा पर भाकपा वालों ने बाकायदा हमला किया, जनता के प्रतिरोध के कारण भाग गये!
यदि 77 का परिणाम कुछ और होता, तो ये शायद इमरजेंसी का समर्थन करने की ‘गलती’ भी शायद स्वीकार नहीं करते. अब भी अंदर से शायद एहसास नहीं है, कसक है. तो इस तरह की बातें बोलते रहते हैं. शायद कांग्रेस के करीब होने की आकांक्षा भी हो! हालांकि अपूर्वानंद बहुत अच्छा बोलते-लिखते हैं. गांधी को भी पढ़ा-समझा है. संघ-भाजपा की कारस्तानियों पर बहुत साफ बोलते हैं. अफसोस कि सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में संभावित सहयोगियों को पहचान नहीं पा रहे- जानबूझ कर या क्यों, पता नहीं!
अपूर्वानंद सहित कुछ अन्य भाजपा/मोदी विरोध के नाम पर इंदिरा गांधी और इमरजेंसी तक का बचाव करने लगते हैं! हमें कांग्रेस से करीबी गांठने की जरूरत महसूस नहीं होती, इसलिए हम उसके उस अतीत का बचाव भी नहीं करते! आज तो हम भी न सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि संघ/ भाजपा जमात या सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में कांग्रेस की भूमिका भी देखते हैं.
वह जन-आंदोलन था, उसमें किसी को भाग लेने से हम या जेपी भी रोक नहीं सकते थे. फिर भी किसी भी दल या संगठन को अपने बैनर के साथ प्रदर्शन में शामिल होने की इजाजत नहीं थी. नारे भी निर्धारित थे. फिर भी कुछ लोग अपने नारे गढ़ लेते थे, जो आंदोलन के मिजाज के अनुकूल ही होते थे. कोई समूह कहीं कोई आपत्तिजनक नारा लगाता होगा, तो उसके लिए आंदोलन के नेतृत्व को दोषी बताना, या वैसे किसी नारे को आंदोलन का प्रतिनिधि नारा बताना या तो नादानी है या इसके पीछे बदनीयती है. (आरोप लगाया गया है कि आंदोलन में कुछ मुसलिम विरोधी नारे लगते थे.)
एक वाकया मुझे याद है. जुलाई 74 में विधानसभा के सामने सत्याग्रह के क्रम में गिरफ़्तारी के बाद हमें बस से भागलपुर ले जाया जा रहा था- हम गा रहे थे- ‘जय जय शिव शंकर, कांटा लगे न कंकर, गफ़ूरवा को तंग कर, ये जेल तेरे नाम...’ इसमें गफ़ूर कोई मुसलमान नहीं, मुख्यमंत्री थे. वैसे भी अब्दुल गफ़ूर की छवि भ्रष्ट नेता की नहीं थी.
बेशक जेपी ने आंदोलन के प्रभाव से संघ में सकारात्मक बदलाव आने की उम्मीद की होगी, की थी. 1980 में गठित भाजपा ने जब अपना लक्ष्य ‘गांधीवादी समाजवाद’ घोषित किया. सबको लगा कि यह आंदोलन का असर है. मगर शायद ऐसा मानना गलत था. ‘84 में महज दो सीट मिलने पर वह ‘राम की शरण’ में चली गयी, यानी अपनी कथित मूल विचारधारा की ओर लौट गयी. जेपी या औरों की उम्मीद गलत साबित हुई. कहा जा सकता है कि जेपी इस जमात को पहचान नहीं सके. लेकिन विश्वास करने वाले से बड़ा गुनहगार विश्वास तोड़ने वाला, धोखा देने वाला होता है.
जेपी ने संघ के बारे में क्या कहा था- हम कुमार प्रशांत जी के हवाले से जानते हैं और हमें उन पर विश्वास है. उनके मुताबिक जेपी ने जनसंघ के अधिवेशन (’74, दिल्ली) में कहा था- यदि जनसंघ इस कारण फासिस्ट है कि वह इस सरकार का विरोध करता है, तब तो मैं भी फासिस्ट हूं. (शब्दों में हेरफेर हो सकता है, भाव यही था.) कुमार प्रशांत तब जेपी के साथ थे.
वैसे जेपी ने यह भी कहा था कि संघ को अपने दरवाजे गैर हिंदुओं के लिए खोल देने चाहिए. यदि वे संघ से प्रभावित भी थे, तो उसमें ऐसा बदलाव चाहते थे! यदि संघ-भाजपा के लोगों में जेपी का जरा भी सम्मान होता, ईमानदारी होती तो वे इस बात का भी उल्लेख करते हुए बताते कि हम उनकी यह सलाह नहीं मान सकते, क्योंकि...
अंत में इतना कि यह सब चलता रहेगा, हम जवाब भी देते रहेंगे. पर ज्यादा चिंता करने वाली बात मुझे नहीं लगती. मुझे नहीं लगता कि आज की तारीख में राहुल गांधी या कांग्रेस का कोई गंभीर नेता भी इन बातों को तूल देगा. हां, यदि ऐसा आरोप लगाने वाले संजीदा हैं और बात कर सकते हैं, तो हमें आमने-सामने बात करने के लिए तैयार रहना चाहिए.