Krishwar Anjum
हर घाट, हर शहर, हर राज्य का यही हाल है. एक के बाद एक आती हुई एम्बुलेंस. और उनसे उतरते पैकेट्स…. पैकेट्स. जिनमें कोई सामान नहीं. इंसान लिपटे हुए हैं. फर्क यही है कि वो अब सामान हो गए हैं. लाशों में बदले जीते जागते इंसान, सामान ही तो हैं. उनको क्या फर्क पड़ता है, जलाओ चाहे दफनाओ. फेंको चाहे समेटो. जमीन पर डाल के रखो चाहे स्ट्रेचर पर. लकड़ी में जलाओ या इलेक्ट्रिक भट्टी में. इज्जत से कब्र में उतारो या जेसीबी से ढकेलो गड्ढे में. कायदे से मिट्टी डालो या मशीन से मिट्टी में दबा दो.
सब इंतेज़ार में हैं. मरने के पहले भी लाइन में लगीं थीं और मरने के बाद भी… यही नियति है शायद… ये लाशें जिंदा थीं, तो अस्पताल के बेड के लिए. ऑक्सीजन के लिए. रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए इंतज़ार कर रही थीं. नहीं मिला. पहुंच वाली नहीं थीं न! अब जलने या गड़ने के लिए लाइन में लगी हैं.
किसी नेता ने हज़ारों जीवन रक्षक इंजेक्शन की कालाबाजारी की… किसी अस्पताल के किसी कर्मचारी ने बेड के लिए सौदेबाज़ी की… एंबुलेंस वाले ने हजारों रुपये वसूले. किसी ने कुछ फायदा उठाया, तो किसी ने कुछ. पर, सबने मुझे पैकेट में बदलने में कुछ न कुछ भूमिका जरुर निभाई.
एक फोटोग्राफर शमशान के बाहर खड़े होकर ड्रोन उड़ा रहा है. सरकार ने कहा है कि कोरोना से सिर्फ चार मरे हैं. उसने ड्रोन उड़ा के 45 पैकेट्स का जलना दिखा दिया.
मैं इलेक्ट्रिक चिमनी में से धुंआ बनके निकली. … मेरे नन्हें बच्चों ने कहा, अंकल! मम्मी जा रही है, वो देखो, फोटो ले लो…
मैं फिर से मर गई… अपने बच्चों की बेबस आंखों से गिरते खारे पानी में मैं फिर से जल गई…
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.