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मैं 'Emergency' नहीं देखूंगा...

यह फिल्म आज 17 जनवरी को  रिलीज हो रही है SriNiwas  मैं  इमर्जेंसी` नहीं देखूंगा...इसलिए नहीं कि श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रति मेरी धारणा बदल गयी है. या उनकी निरंकुशता को भूल गया हूं. या इमर्जेंसी लगाये जाने को या उसके पक्ष में दिये गये तर्कों को सही मानने लगा हूं... मैं और मेरे जैसे हजारों लोगों ने, जो तब युवा थे, राजनीति का ककहरा ही उस समय की कांग्रेस और उसकी सरकार का विरोध करते हुए सीखा. विरोध का खामियाजा भी भुगता. ‘इमरजेंसी’ का विरोध करने के कारण करीब एक साल जेल में रहा, अनेक साथी तो और भी लंबे समय तक रहे. हमें भी अवसर था कि घर बैठ जाते, भूमिगत हो जाते; या कांग्रेस के साथ ही हो जाते. पर हमारे जमीर को यह गंवारा नहीं हुआ. आंदोलन के दौरान पहले भी तीन-चार बार गिरफ्तार हुआ था, शांतिपूर्ण जुलूस में शामिल रहते हुए भी. एक बार ‘मीसा’ के तहत भी. लेकिन पहली बार इमरजेंसी लगने के बाद ही सड़क पर प्रतिवाद करते हुए गिरफ्तार हुआ. 25 जून की रात जब इमरजेंसी की घोषणा हुई :  25 जून की रात जब इमरजेंसी की घोषणा हुई, तब मैं बेतिया, अपने कार्यक्षेत्र, में नहीं, परिवार के साथ मुजफ्फरपुर में था. 26 की सुबह वह खबर सुनते ही बेतिया जाना तय कर लिया. बाबा (पिता) ने कहा- सोच लीजिए, इस बार पकड़े गये तो लंबे समय तक अंदर रहना होगा. मैंने कहा था- पहले लापरवाह रहते थे, अब पकड़े ही नहीं जायेंगे. मगर हुआ यह कि 27 को बेतिया पहुंचा और 28 जून को इमरजेंसी के विरोध में शहर बंद करने का फैसला हो गया. सुबह हम लोग सड़क पर थे, पुलिस आयी और मुझ सहित कुछ और साथी लोग पकड़े गये; और सचमुच लंबे नप गये. पकड़े जाने का अफसोस भी हुआ, पर इसलिए कि हम कुछ कर नहीं पा रहे थे. इमरजेंसी को डिफेंड करने का तो सवाल नहीं है, किसी कीमत पर नहीं : एक साल बाद बाहर निकले, तब भी पुलिस से बचते हुए उसके विरोध में कुछ न कुछ खुराफात करते रहे. इसलिए इमरजेंसी को डिफेंड करने का तो सवाल नहीं है, किसी कीमत पर नहीं. भले ही आज कांग्रेस के बजाय, उस समय हमारे साथ रही जमात अधिक असहिष्णु/निरंकुश और देश की एकता के लिए अधिक नुकसानदेह लगने लगी है! बेशक मानता हूं कि आजाद भारत के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम और भयावह दौर का दस्तादेजीकरण होना चाहिए, उस पर फिल्म बननी चाहिए, पुस्तक लिखी जानी चाहिए. लिखे भी गये हैं. लेकिन उसके पीछे राजनीतिक दुराग्रह अनुचित लगता है. कंगना राणावत को उनकी क्षुद्रता के बावजूद मैं  सक्षम अभिनेत्री मानता हूं : कंगना राणावत इस फिल्म में इंदिरा गांधी बनी हैं, शायद निर्माता और निर्देशक भी हैं. उनके तमाम बड़बोलेपन और उनकी क्षुद्रता के बावजूद मैं उनको सक्षम अभिनेत्री मानता हूं. अनुपम खेर निश्चित ही शानदार अभिनेता हैं. लेकिन अब समझ गया हूं कि अच्छा कलाकार या खिलाड़ी, अच्छा इंसान भी हो, जरूरी नहीं है. ऐसे तमाम उदाहरण सामने हैं. ये दोनों तो हैं ही. पिछले 10 वर्षों से ये जिस तरह ‘मोदी नाम केवलम’ करते रहे हैं, लगता ही नहीं कि इनमें कोई विवेक और सहज बुद्धि भी है! इसके अलावा बीते वर्षों में जितनी खालिस प्रोपेगेंडा फिल्में बनी हैं, उन सब के पीछे मूल मंशा रही है वर्तमान निजाम/सत्ताधारियों  का महिमामंडन, उसके विरोधियों-आलोचकों को बेईमान, निकम्मा और देश विरोधी के रूप में चित्रित करना. अतीत के, वर्तमान सत्तारूढ़ जमात के पसंदीदा, ‘नायकों’ का महिमामंडन; एक खास समुदाय को नीच, आक्रांता, क्रूर, देशद्रोही, हिंदुओं के शत्रु में चित्रित करना. देश की बहुसंख्यक आबादी (करीब अस्सी फीसदी) को खतरे में बताना, 15-20 फीसदी आवादी वाले ‘शत्रु’ समुदाय की साजिशों का शिकार बताना... गनीमत  है कि उनमें से अधिकतर फिल्मों को पब्लिक ने नकार दिया. कश्मीर फाइल्स’, केरला स्टोरी’, गोधरा’, ‘साबरमती  आदि फिल्में बनीं  : याद करें कि आजादी के बाद कितनी फिल्में गांधी, नेहरू या कांग्रेस के महिमामंडन के लिए या कांग्रेस/ नेहरू-गांधी के आलोचकों को नीचा दिखाने के लिए बनीं; और पिछले 10 साल में बनीं फिल्मों को याद कीजिये- अटल बिहारी वाजपेई और नरेंद्र मोदी के जीवन चरित्र पर, सावरकर पर, गोडसे को गांधी के समकक्ष दिखाने वाली, ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरला स्टोरी’, ‘गोधरा’, ‘साबरमती’... आदि आदि.  इन सबके पीछे एक ही मकसद, राजनीतिक उद्देश्य रहा है; ये कला के नाम पर कला के दुरुपयोग के उदाहरण हैं. ये प्रोपगेंडा फिल्में हैं, जैसी हिटलर के समय जर्मनी में बनती थीं. आश्वस्त हूं कि ‘इमरजेंसी’ बनाने के पीछे भी ऐसी ही मंशा होगी : इसलिए मैं लगभग आश्वस्त हूं कि ‘इमरजेंसी’ बनाने के पीछे भी ऐसी ही मंशा होगी. मौजूदा सत्तारूढ जमात के अनुकूल, इंदिरा गांधी और कांग्रेस के उस सचमुच के काले अध्याय को और बढ़ा चढ़ा कर पेश करना. इंदिरा गांधी को निरंकुश और तानाशाह के रूप में चित्रित करने में कोई हर्ज नहीं है. हम भी इंदिरा गांधी को तानाशाह कहते थे. अब भी मानता हूं. इसीलिए इंदिरा गांधी को खलनायिका बताने या इमरजेंसी को काला दौर बताने को गलत नहीं मानता. वह आजादी के बाद का- 74 से लेकर 77 तक- ऐसा घटनाक्रम है, जिसका ईमानदारी से तटस्थ दस्तावेजीकरण होना चाहिए विश्लेषण होना चाहिए. हो सकता है, यह फिल्म भी ठीक-ठाक ही बनी हो, लेकिन इसके पीछे की मंशा पर कोई संदेह नहीं है. इसलिए कि फिल्मों को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की एक परियोजना के तहत जिस तरह की फिल्में बनती  रही है; यह भी उसी कड़ी की एक और फिल्म होगी. खुद को गर्व से मोदी जी का चमचा कहने वाले अनुपम खेर परदे पर जयप्रकाश नारायण के रूप में दिखेंगे!  :  वैसे भी चाटुकारिता के इनाम स्वरूप ‘माननीय’ हो चुकीं कंगना जी को देखना तो अब झेलना ही होगा. हालांकि वह इंदिरा गांधी के ‘खलनायिका’ जैसे दौर की भूमिका में हैं, तो एक तरह से सही भी है! मगर यह सोच कर भी कोफ्त होती है कि खुद को गर्व से मोदी जी का चमचा कहने वाले अनुपम खेर परदे पर जयप्रकाश नारायण के रूप में दिखेंगे! उस जेपी के रूप में, जो 72 वर्ष की उम्र में ‘बेटी समान’ इंदिरा गांधी की निरंकुशता के विरोध में सड़क पर उतरा, लाठी खायी, जेल गया, जहां से मरणासन्न होकर निकला! ऐसे महान व्यक्तित्व की भूमिका में रीयल ‘चमचा’, तौबा! सच यह है कि अब फिल्में अमूमन नहीं देखता हूं  : कुछ मित्रों का मानना है कि आलोचना करने के लिए भी किसी पुस्तक को पहले पढ़ना और फिल्म को देखना चाहिए! वैसे सच यह है कि अब फिल्में अमूमन नहीं देखता हूं. हॉल में जाकर तो नहीं ही. टीवी पर भी दस-पंद्रह मिनट से अधिक नहीं देख पाता. मगर आलोचना के लिए भी देखना चाहिए, इस तर्क से एक हद तक सहमत होते हुए इस फिल्म के दर्शकों की संख्या में एक का भी इजाफा करने को तैयार नहीं हूं. इंदिरा गांधी का मूल्यांकन दो-तीन वर्षों के घटनाक्रम के आधार पर करना  सही नहीं है  : एक बात और- आज जब ठहर कर सोचता हूं, तो यह भी लगता है कि इंदिरा गांधी का मूल्यांकन सिर्फ उन दो-तीन वर्षों के घटनाक्रम के आधार पर करना शायद सही नहीं है. वैसे भी ‘इमरजेंसी’ की आलोचना तो सबों ने की है; और  कांग्रेस के भी नेताओं ने उस दौर में हुई ज्यादतियों के लिए माफी मांगी है! इमरजेंसी के मुद्दे पर तो कांग्रेस हमेशा से कटघरे में रही है और रहेगी. उसके अलावा भी इंदिरा गांधी के चरित्र की कुछ बातें हैं, जिनमें कुछ सकारात्मक भी है. मुझे तो लगता है, एक जयप्रकाश नारायण को छोड़ कर इंदिरा गांधी के सामने उस समय के सारे राजनेता बौने साबित हुए. दृढ़ता में, फैसले लेने में, स्वाभिमान में, विदेश नीति और कूटनीति आदि के लिहाज से उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली  दिखता है. इंदिरा गांधी  के सारे फैसले सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ के तहत नहीं  थे : बेशक सत्ता का मोह, चाटुकारिता पसंद और अहंकार  के कारण बहुत सारी गलतियाँ हुई, इमरजेंसी तो अक्षम्य ही थी. मगर उनके सारे फैसले सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ के तहत नहीं थे. कई बार उनमें देश का हित और स्वाभिमान नजर आता है. बांग्लादेश प्रकरण में उन्होंने जो दूर दृष्टि और कूटनीतिक परिपक्वता व क्षमता  दिखायी, उसी दौरान अमेरिका की धमकी के आगे न झुकने की जो दृढ़ता दिखायी, वह सब कोई कैसे भूल सकता है? और अंततः जिस नृशंसता से उनकी हत्या हुई, उसने उनके अनेक ‘अपराधों’ की गंभीरता कुछ कम कर दी. उस समय तक तो देश ‘इमरजेंसी’ के अपराध को भूल भी चुका था. कंगना  मानती है कि भारत को आजादी 2014 में मिली   : इंदिरा गांधी के समग्र जीवन का मूल्यांकन करते हुए कोई फिल्म बने तो उसको ज्यादा बड़ा फलक मिलेगा.  मगर  ‘इमरजेंसी’ नाम से ही जाहिर है कि वह उस काले कालखंड पर बनी है; और उस कंगना ने बनायी है, जो मानती है कि भारत को आजादी 2014 में मिली! हालांकि अब कहने लगी है- फिल्म को प्रोमोट करने के लिए ही सही- कि जो महिला (इंदिरा गांधी) आजाद भारत में तीन बार प्रधानमंत्री बनी, वह साधारण कैसे हो सकती है. यह कहते समय वह भूल गयी कि, उसके ही अनुसार, तब तो भारत आजाद ही नहीं हुआ था! बहरहाल, फिर भी मैं नहीं चाहूंगा कि इस फिल्म पर बैन लगे; इंदिरा गांधी के समर्थक और कांग्रेसी ऐसी मांग करें या उसके खिलाफ हंगामा करें. जिसे नहीं देखनी, नहीं देखें. मैं भी नहीं देखूंगा, चाहूंगा कि लोग नहीं देखेँ. हर खबर के लिए हमें फॉलो करें Whatsapp Channel: https://whatsapp.com/channel/0029VaAT9Km9RZAcTkCtgN3q">https://whatsapp.com/channel/0029VaAT9Km9RZAcTkCtgN3q">https://whatsapp.com/channel/0029VaAT9Km9RZAcTkCtgN3q

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