Prafulla kolkhyan
भारत में लोकतंत्र का चुनाव परिणाम बताता है कि चुनाव के माध्यम से ‘चुनावी तानाशाही’ को पराजित किया जा सकता है. ‘चुनावी लोकतंत्र’ की दृष्टि से यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं होती है और न है. इसका जितना बखान किया जाये कम ही है. बखान करते समय यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के माध्यम से ‘चुनावी तानाशाही’ को निर्णायक रूप से पराजित किया जा सकता है. ‘कारण’के रहते ‘कार्य’यानी परिणाम के फिर से उपस्थित हो जाने की संभावना या आशंका के घटित होने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. भारत में चुनाव सुधार की मांग लंबे समय से की जा रही है. चुनाव की प्रक्रिया को दुरुस्त किये जाने के लिए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की स्थापना 1999 में भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद के अध्यापकों के एक समूह ने की. इसकी पहल पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार उम्मीदवारों के लिए अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि का हलफनामा के माध्यम से जरूरी हो गया है.
चुनावी फंड के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में एक पक्ष एडीआर भी था. चुनाव सुधार के कानूनी पहल के लिए एडीआर जैसे संगठन अपना काम करते रहते हैं. हर संगठन की अपनी सीमा होती है, अपना कार्य-क्षेत्र और कौशल होता है. सामान्य लक्ष्य को हासिल करने के लिए बाकी काम अन्य संगठन की सक्रियता जरूरी होती है. एक संदर्भ पर उदाहरण के लिए विचार किया जाना चाहिए. उम्मीदवारों के हलफनामा में आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि का उल्लेख होता है. मुख्य धारा की मीडिया में उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठ-भूमि की विशिष्ट चर्चा शायद ही कभी होती है. सामान्य परिचर्चा में अधिक-से-अधिक आपराधिक पृष्ठ-भूमिवाले उम्मीदवारों की कुल संख्या, प्रतिशत आदि का सामान्य विश्लेषण होता है. उम्मीदवार भी प्रतिपक्षी उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठ-भूमि की चर्चा नहीं करते हैं, अधिक-से-अधिक भ्रष्टाचार के मुद्दों की चर्चा करके आगे बढ़ जाते हैं. एक तरह की मनोवैज्ञानिक मिलीभगत बन गई लगती है.
भारत के लोकतंत्र की संवैधानिक संरचना में व्यापक सुधार की जरूरत की गंभीरता को अविलंब विमर्श के केंद्र में लाया जाना चाहिए. यह दलीय-निष्ठा पर आघात किये बिना भी मानना चाहिए कि दल की अंदरूनी राजनीतिक गतिविधि, खासकर दल के भीतर चुनाव के मामला में तानाशाही का रुख और रवैया रखनेवाला दल या नेता, अपने संवैधानिक आचरण में कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता है. जिस किसी दल की अंदरूनी राजनीतिक गतिविधि में तानाशाही का रुख और रवैया दिखे, लोकतंत्र को पसंद करनेवालों को उससे अपनी दूरी अविलंब तय कर लेनी चाहिए. ऐसा नहीं करने का मतलब लोकतंत्र को ‘चुनावी तानाशाही’ खतरे की चपेट में पड़ने से रोकने में लापरवाही बरतना है. ईवीएम को लेकर बार-बार विवाद उठता रहता है. बार-बार संदेह व्यक्त किया जाता है. चुनाव नतीजा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े व्यंग्यात्मक लहजा में पूछा, ‘ईवीएम मर गया कि जिंदा है!’ कभी चाल-चरित्र-चेहरा पर इतरानेवाली भारतीय जनता पार्टी में चिढ़ाने-चिल्लाने-चौंकाने की प्रवृत्ति घर कर गई है. यह दुखद है.
अभी दुनिया के जाने-माने व्यक्ति एलेन मस्क ने भी अमेरिकी चुनाव के प्रसंग में ईवीएम पर सवाल उठाया है. राहुल गांधी ने भी इसे ‘ब्लैक-बॉक्स कहा है. भारत के मतदाताओं ने साबित कर दिया है कि वह लोकतंत्र का सौदा नहीं कर सकता है. रखो अपनी ‘पचकेजिया मोटरी’ अपने पास! हजारों साल से पूजित हमारे भगवान को हमारे विरुद्ध नहीं खड़ा किया जा सकता है, चाहे बना लो जितना भी भव्य-दिव्य-विराट मंदिर. सामान्य जन का जीवन अतिरेकी विराटता के पूजन से नहीं, लघुता के समवाय से चलता है. पता नहीं सौ-साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किस संस्कृति की बात कर रहा था! सबसे भयानक बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी के शासन में भारत के लोगों की मौलिक वृत्तियों के साथ छल करने का कोई प्रकरण नहीं छोड़ा गया. चुनाव परिणाम देखने के बाद, भारतीय जनता पार्टी का अपने पक्ष में ‘स्थाई बहुमत’ का जुगाड़ कर लेने का भ्रम और संभावना में कुछ-न-कुछ टूट तो जरूर हुई होगी. राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ उपचार में लगा है, यह जरूरी भी है और स्वाभाविक भी.
दलबदल कानून को अधिक सार्थक और प्रभावी बनाने पर भी विचार किया जाना चाहिए. ‘आया राम, गया राम’ की राजनीतिक खुराफात को रोकने के दलबदल संबंधी कानून के परिप्रेक्ष्य को समझते हुए इस की व्यापक समीक्षा की जरूरत है. सरकार की स्थिरता के लिए दलबदल संबंधी कानून की अहमियत है. लेकिन इनकार नहीं किया जा सकता है कि दलबदल कानून से राजनीतिक दल के सदस्यों की आंतरिक स्वतंत्रता कम हुई है और राजनीतिक दलों में अंदरूनी तानाशाही को बढ़ावा भी मिला है. एक सामान्य और स्वस्थ लोकतांत्रिक परिवेश में माना जा सकता है कि दलबदल विरोधी कानून स्वतंत्रता को बाधित नहीं करता है, यह जरूरी भी है. लेकिन इसके अन्य असर की समीक्षा की ही जानी चाहिए. यह ठीक है कि स्वतंत्रता के नाम पर मनमानेपन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन मनमानेपन के डर से स्वतंत्रता की बलि भी नहीं ली जा सकती है.
चुनाव के माध्यम से मतदाताओं की संप्रभुता जन-प्रतिनिधियों को शर्त के साथ अंतरित होती हैं. शर्तें संविधान से तय होती हैं. जन-प्रतिनिधियों के पास मतदाता से प्राप्त संप्रभुता को अपनी ‘अन्य प्रेरित इच्छा’ के अनुसार किसी को भी अंतरित करने का अधिकार जन-प्रतिनिधियों को नहीं होना चाहिए. इसे कानूनी तरीके से रोके जाने का उपाय किया जाना चाहिए. ध्यान रहे, उन उपायों में राजनीतिक दलों की अंदरूनी राजनीति में दलीय तानाशाही को बढ़ावा देनेवाला तत्व नहीं होना चाहिए. विश्वास किया जाना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र के लिये दी गई आहुतियों को याद रखने से 2024 के आम चुनाव के परिणाम से लोकतंत्र के लिए वैचारिक संघर्ष के विभिन्न आयाम स्वतः सामने आयेंगे.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.