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जयराम महतो विधानसभा चुनाव पर फोकस करें तो सफलता की उम्मीद ज्यादा होगी

Anand Kumar झारखंड में फिलहाल खतियानी मूलवासी युवा दिलों की धड़कन और टाइगर के नाम से प्रसिद्ध जयराम महतो ने घोषणा की है कि वे अपनी नयी नवेली पार्टी झारखंड भाषा खतियान संघर्ष समिति के बैनर तले 2024 का लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव लड़ेंगे. लेकिन सवाल है कि क्या लोकसभा का चुनाव लड़ना जयराम महतो के लिए फायदेमंद रहेगा या फिर नुकसान का सौदा साबित होगा. झारखंड में सरकारी नौकरियों के लिए होनेवाली नियुक्ति की परीक्षाओं में झारखंडी भाषाओं को ही शामिल किये जाने को लेकर आंदोलन से पहचान बनानेवाले जयराम महतो अब राजनीति के अखाड़े में बड़े-बड़े और और नामचीन पहलवानों को चुनौती दे रहे हैं. आज की तारीख में जयराम की सभाओं में जितनी भीड़ जुटती है, उतनी तो बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताओं की सभाओं में नहीं जुटती. जयराम की सभाओं में भीड़ स्वतः स्फूर्त आती है. चिलचिलाती धूप में, पसीने से तरबतर लोग 28 साल के इस युवक को देखने और सुनने आते हैं, जो भगत सिंह औऱ सुभाष चंद्र बोस का प्रशंसक हैं और बिनोद बिहारी महतो, कॉमरेड एके राय, निर्मल महतो और पूर्व सांसद सुनील महतो उसके आदर्श. लोग उसको सुनने के लिए घंटों बैठे रहते हैं, क्योंकि उन्हें अंग्रेजी भाषा से पीएचडी कर रहे जयराम में उन्हें झारखंड की राजनीति में धारा को बदलने की संभावना दिखती है. कुछ तो बात जरूर है छरहरे युवक में कि भाषा के आंदोलन से बढ़ता हुआ, छात्रों का आंदोलन 60-40 की नियोजन नीति के विरोध तक पहुंचा औऱ अब राजनीति के मैदान में उतर कर महारथियों को चुनौती दे रहा है. जयराम और उनके साथियों की मांग है कि झारखंड की सरकारी नौकरियों में खतियान आधारित स्थानीय नीति बनाई जाये, ताकि स्थानीय छात्रों को नौकरी मिले. यह सीधी मांग है. कोई लाग-लपेट नहीं. वे कहते हैं कि अगर बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ समेत देश के बाकी राज्यों में जब आवेदन मंगाते समय विज्ञापन में यह लिखा जाता है कि आवेदक भारत का नागरिक होगा और अमुक राज्य का स्थायी निवासी होगा तो फिर झारखंड में निकलनेवाली नियुक्तियों में यह क्यों लिखा रहता. केवल यह क्यों लिखा रहता है कि आवेदक सिर्फ भारत का नागरिक होगा. वे सवाल पूछते हैं कि यहां के बच्चे पढ़ लिखकर बेरोजगार बैठे रहेंगे और बाहर से लोग आकर यहां की नौकरियां हथिया लेंगे, अब यह नहीं चलेगा. वे कहते हैं कि हमने आग्रह करके देख लिया. सरकार को कोई फर्ख नहीं पड़ा. आंदोलन भी करके देख लिया. फिर भी हमारे पक्ष में नीतियां नहीं बनीं. अब हम खुद सदन में जायेंगे, ताकि हम अपने हक की नीतियां खुद बना सकें. इसलिए जयराम महतो ने झारखंड भाषा-खतियान संघर्ष समिति बनायी हैं और राजनीति की नदी में उतरकर इसका प्रवाह बदलने का निश्चय कर लिया है. आज भले राजनीतिक विश्लेषक, राजनीतिक पंडित और बड़े सियासी दल जयराम महतो को हल्के में ले रहे हैं, इसे जवानी के नये खून का उबाल मान रहे हों, लेकिन जयराम की बातों को सुनने से कहीं से नहीं लगता है कि वह महज 28 साल के अनुभवहीन युवा हैं. सभी मुद्दों पर जयराम महतो की एक स्पष्ट और बेबाक राय है. पिछले दिनों एक अखबार के कार्यक्रम में जयराम महतो आये थे और वहां अखबार के अनुभवी पत्रकारों ने उनसे हर तरह के सवाल पूछे. मसलन बाहरी किसे मानते हैं और झारखंडी किसे, आपको कहां से फंडिंग मिल रही है, बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के बीच में आप कैसे सर्वाइव करेंगे, कहां से चुनाव लड़ेंगे. इन सब विषयों पर जयराम महतो ने बिल्कुल स्पष्ट और बेबाक राय रखी थी. उस कार्यक्रम में जयराम महतो अपनी ताकत या कमजोरियों को लेकर जरा भी सशंकित नहीं दिखे. उन्हें इनका बखूबी एहसास है और तभी वह कहते हैं कि मैं थोपा हुआ राजनेता या जबरन लाद दिया गया, कैंडिडेट नहीं बनना चाहता हूं. लोग जहां से बुलाएंगे मैं वहां चुनाव लड़ लूंगा. वे यह भी कहते हैं कि जैसे बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा की हालत हो गई, यानी उसके विधायकों को भाजपा ने तोड़ लिया, आगे चलकर कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो, इस पर भी वे सचेत हैं. वे कहते हैं कि हमें तैयारी करनी होगी. आत्ममंथन करना होगा. हमें ऐसे युवाओं को चुनना होगा, जो किसी भी हालत में किसी भी प्रलोभन के आगे डिगे नहीं. अपनी कनविक्शन पर अड़े रहें और वे यह भी कहते हैं कि अगर चीजें उनके प्रतिकूल हुईं, अगर उनके साथी अपने कनविक्शन से, अपनी विचारधारा से डिग गये तो ऐसी हालत में वह राजनीति से अलग होकर चिंतन करेंगे. समाज में सुधार लाने के लिए लोगों को दिशा दिखाने का काम करेंगे. जयराम महतो ने यह भी कहा है कि वह लोकसभा और विधानसभा का चुनाव जो 2024 में होनेवाला है, उनकी पार्टी जेबीकेएसएस दोनों ही चुनावों में भाग लेगी. इसको लेकर मुझे थोड़ी चिंता हो रही है. जयराम महतो कहीं अति उत्साह में जल्दबाजी तो नहीं कर रहे. जयराम की ताकत पर मुझे जरा भी संदेह नहीं है. उन्हें मिल रहा जनसमर्थन किसी की आंख खोलने के लिए काफी है, तो आप पूछेंगे कि फिर चिंता किस बात की है. मेरी चिंता का कारण यह है कि जयराम महतो जिन मुद्दों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, लोकसभा चुनाव की आंधी में उन मुद्दों के गुम हो जाने का खतरा और अंदेशा मुझे दिखाई दे रहा है. क्योंकि जो सूरत बनती दिखाई दे रही है, लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर, उसमें साफ दिख रहा है कि लोकसभा में मुकाबला दो ध्रुवीय होगा. यानी एक तरफ नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी होंगे और दूसरी तरफ विपक्षी दलों का एक संयुक्त मोर्चा होगा, जो यह तय करने में जुटा है, कि हर सीट पर वन ऑन वन मुकाबला हो. यानी भाजपा के मुकाबले विपक्ष की तरफ से एक साझा उम्मीदवार खड़ा हो ताकि वोटों का बिखराव नहीं हो सके. चुनावी मुद्दे भी आक्रामक होंगे जैसे हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता तुष्टीकरण बनाम सांप्रदायिकता, महंगाई, सरकारी नौकरियों की कमी, सरकारी उपक्रमों की बिक्री, नोटबंदी, अदानी को जरूरत से ज्यादा फेवर, विदेश नीति, विपक्षी नेताओं के यहां ईडी और सीबीआई के छापे आदि-आदि. इसलिए मुझे डर है कि इन आक्रामक प्रचार की गूंज में और दो बड़े ध्रुवों की टक्कर के निकले गुबार में जयराम महतो और उनकी नयी-नवेली पार्टी जो कि नितांत ही क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर लड़ रही है, कहीं गुम न हो जाये. गायब ही न हो जाये. हम सभी जानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं. लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहते हैं और विधानसभा के चुनाव में क्षेत्रीय मुद्दों पर जोर रहता है. जनता भी अब इस फर्क को अच्छे से समझ गयी है और इसी आधार पर वोट शक्ति है. अपने झारखंड की ही बात कर लें, तो पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2019 में भारतीय जनता पार्टी-आजसू अलायंस को लोकसभा की 14 में से 12 सीटें हासिल हुई थीं. राज्य की 81 में से 70 विधानसभा सीटों पर इंडिया के प्रत्याशियों ने बढ़त बनायी थी और बीजेपी को लग रहा था कि आगामी विधानसभा चुनावों में उसे कम से कम 65 सीटें तो आ रही जायेंगी. लेकिन छह महीने बाद जब विधानसभा का चुनाव हुआ और नतीजे आये, तो भारतीय जनता पार्टी 25 सीटों पर सिमट गय़ी. लोकसभा चुनाव में मोदी-मोदी गूंज रहा था, लेकिन विधानसभा आते-आते मोदी हवा हो गये और क्षेत्रीय मुद्दे हावी हो गय़े. रघुवर दास की व्यक्तिगत छवि, सरकारी नौकरियों का मुद्दा, सीएनटी एसपीटी एक्ट में संशोधन, पत्थरग़ड़ी आंदोलन, धर्मांतरण निषेध कानून, नियोजन नीति में जिलों को शिड्यूल और नॉन शिड्यूल में बांटने के उनके फैसले ने जनमानस को उनके खिलाफ कर दिया और चुनाव में यही मुद्दे हावी रहे. भाजपा मोदी की उपलब्धियां गिनाती रह गयी और उसके मुख्यमंत्री रघुवर दास तक चुनाव हार गये. इसलिए मुझे डर है कि अगर विधानसभा चुनाव के पहले जयराम महतो और उनकी पार्टी ने लोकसभा का चुनाव लड़ा और भाजपा और विपक्ष के टकराव में अगर वह गुम हो गये. नजरअंदाज हो गये और चुनाव में उन्हें चर्चा के लायक सफलता नहीं मिली, तो सारा नैरेटिव जो अभी जयराम के पक्ष में दिखाई दे रहा है, अचानक से उनके विरोध में चला जायेगा. फिर जो लोग आज जयराम महतो को टीआरपी टाइट करने के लिए लिख और दिखा रहे हैं, यही लोग तब उनकी छीछालेदर करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे. मीडिया के साथ-साथ बड़े-छोटे राजनीतिक दल जिन्हें अभी जयराम से खतरा दिखाई दे रहा है, वे भी इस बात का पूरा प्रयास करेंगे यह बताने का कि जयराम महतो कभी कोई फैक्टर नहीं थे और उनकी पूरी लोकप्रियता बनावटी औऱ हवा-हवाई थी. और ऐसी हालत में जनता को भी यही लगेगा कि इनके पास कोई बड़ा बदलाव लाने की ताकत नहीं है और ऐसे में जयराम महतो और उनके साथियों के संघर्ष और आंदोलन को भारी धक्का लग सकता है और उनकी दो साल की मेहनत बेकार हो सकती है. मुझे लगता है कि जयराम महतो को अपनी ताकत दिखानी है तो उन्हें सीधे विधानसभा चुनाव में उतरना चाहिए. क्योंकि विधानसभा के चुनाव में उनके मुद्दे ज्वलंत रहेंगे. हेमंत सोरेन सरकार कई आरोपों में घिरी है. एंटी इन्कंबैंसी भी है, भाजपा का शासन भी लोग देख चुके हैं. जयराम को झारखंड के एक बड़े वर्ग का समर्थन हासिल है और वह लगातार बढ़ रहा है. वे अपनी पूरी ताकत से विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे, तो हो सकता है कि वे एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभर कर सामने आयें और तब वे जैसा चाहते हैं, वैसा कर पाने में सफल होंगे. अगर उनके पास इतने विधायक आ जायें कि वह किसी सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा बन सकें या किसी दल या गठबंधन को सरकार बनाने में सहयोग कर सकें, तो वे अपनी मांगों को लेकर सरकार पर दबाव भी बना सकते हैं और उन्हें पूरा भी करा सकते हैं. लेकिन यह तभी संभव है जब जयराम महतो अपनी पूरी शक्ति, पूरी ऊर्जा और पूरा ध्यान सिर्फ विधानसभा चुनाव पर लगायें. जयराम महतो ने 18 जून को धनबाद के बलियापुर में जेबीकेएसएसके बनाने की घोषणा करते हुए कहा था कि वे लोकसभा का चुनाव वार्मअप के तौर पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन कई बार खिलाड़ी वार्मअप में घायल होकर मुकाबले से ही बाहर हो जाता है. जयराम भी कहीं वार्मअप में ही असफल रहे, तो विधानसभा का मैच भी हाथ से चला जायेगा. मेरे विचार में जयराम महतो, उनके सलाहकारों और उनके साथियों को जितनी जल्दी हो सके, इस पर बैठकर चिंतन-मनन करना चाहिए. क्योंकि वह कहावत है कि एके साधे सब सधे और सब साधे सब जाए. कहीं लोकसभा लड़ने के चक्कर में जयराम महतो ने इतनी मेहनत से अपने मुद्दों को लेकर एक जनमत और जन समर्थन क्रिएट किया है, कहीं उससे हाथ धोना न पड़ जाये. जयराम और उनके साथियों ने झारखंड की ठहरी हुई राजनीतिक धारा में कंकड़ फेंक कर जो हलचल पैदा की है. वह लहर बनने से पहले ही दब गयी, तो यह अफसोसनाक होगा. डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये इनके निजी विचार हैं. 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