श्रीनिवास
वह विद्रोह के लिए उकसाना नहीं था. मगर राहुल और विपक्षी दल विदेशी ताकतों से मिल कर अराजकता फैला रहे हैं! 12 जून, 1975. इलाहाबाद हाइकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. 1971 में हुए लोकसभा चुनाव (रायबरेली) में विजयी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी धांधली का दोषी मान कर उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी.
उन पर आरोप यह था कि चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री के सरकारी निजी सचिव यशपाल कपूर ने उनके चुनावी एजेंट की भूमिका निभाई थी और उनकी चुनावी रैली के लिए मंच आदि बनाने में उत्तर प्रदेश सरकार ने खास मदद की थी. कुल मिला कर जजमेंट में बहुत दम नहीं था, लेकिन फैसला प्रधानमंत्री के खिलाफ था. इसलिए विपक्ष को बड़ा मुद्दा मिल गया. किंचित शिथिल पड़ते बिहार (जेपी) आंदोलन को भी नयी ऊर्जा मिल गयी.
माना जाता है कि इंदिरा गांधी ने इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था, मगर उनके आस-पास के बंसी लाल जैसे चापलूसों, बेटे संजय गांधी, और सीपीआई के नेताओं ने उनको ऐसा करने से मना किया. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम फैसला भी इंदिरा गांधी के पक्ष में आ गया. उसमें कहा गया कि यह चुनावी अनियमितता इतनी भी गंभीर नहीं है कि सदस्यता रद्द की जाये. वह प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं, संसद भी जा सकती हैं, लेकिन अंतिम निर्णय तक वेतन नहीं ले सकतीं और (संसद में) वोट नहीं दे सकतीं. यह इंदिरा गांधी के लिए बड़ी राहत थी. यह एक तरह से उनको बेदाग कहना था, मगर विपक्ष नैतिकता के आधार पर उनसे इस्तीफे की मांग पर अड़ा हुआ था.
अगले ही दिन 25 जून को जेपी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली को संबोधित किया. मैं आश्वश्त नहीं हूं, मगर अनेक लोगों का मानना है, ‘जेपी : नायक से लोकनायक तक’ शीर्षक पुस्तक में प्रवीण कुमार झा ने भी लिखा है- “जेपी ने कहा, ‘यह सरकार अब अपने सभी संवैधानिक अधिकार खो चुकी है. मैं देश की पुलिस और सेना का आह्वान करता हूं कि वह इस सरकार के आदेश मानना बंद कर दे.”
एक निर्वाचित प्रधानमंत्री से इस्तीफ़े की मांग और सरकार के खिलाफ एक तरह से विद्रोह का आह्वान- हालांकि सुप्रीम ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगनादेश दे दिया था- ‘लोकतंत्र की रक्षा’ के लिए जरूरी आह्वान था. हमारे जैसे लोग तो ऐसा मानते ही हैं...आज की सत्ताधारी दल एंड कंपनी सहमत ही होगी. लेकिन चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल करना देश, लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ है!
प्रसंगवश, एक ‘गोदी विद्वान’ ने नया शोध पेश किया है- भारत का विपक्ष अराजकता फैला कर लोकतंत्र और व्यवस्था से जनता का विश्वास डिगाना चाहता है. जैसा बांग्लादेश में हुआ था! यानी ‘गोदी जी’ के अनुसार बांग्लादेश में जो हुआ, उसमें शेख हसीना वाजेद का कोई दोष नहीं था! इसलिए कि शेख हसीना पर वहां के विपक्षी दल 'हिन्दू तुष्टिकरण' का आरोप लगाते थे, जैसे यहां कांग्रेस सहित विपक्षी दलों पर भाजपा 'मुसलिम तुष्टिकरण' का आरोप लगाती है! हसीना पर आरोप गलत था, पर कांग्रेस पर सही है! अतः वहां चुनाव में कोई धांधली नहीं हुई थी! बांग्लादेश की जनता एकदम खुशहाल और संतुष्ट थी!
अब मोदी सरकार के एक मंत्री ने भी इसी तरह का आरोप लगाते हुए कहा है कि राहुल गांधी विदेशी ताकतों से मिल कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं! वैसे यह कहना कि विपक्ष अराजकता फैलाना चाहता है, घिसा हुआ आरोप है. इंदिरा गांधी भी विरोधियों पर यही आरोप लगाती थीं! इनको कुछ नया सोचना चाहिए; या कि इनके लिए इंदिरा गांधी ही आदर्श हैं!
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