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यह सब अब भी नहीं दिख रहा, तो सचमुच आप खतरे में हैं

देश में चल क्या रहा है. कौन खतरे में है? किसे कुछ भी नहीं दिख रहा? यह सवाल आज बहुत सारे लोगों को परेशान कर रहा है. जो हो रहा है, जिसे होने दिया जा रहा है, जिसका महिमामंडन किया जा रहा है, चुप रहकर, सम्मान देकर, वह कितना खतरनाक है, यह अगर नहीं दिख रहा है तो मान लीजिये आप सचमुच खतरे में हैं.

 

इस माह हुई तीन घटनाओं पर गौर करें


17 दिसंबर - केरल के पलक्कड़ जिले में वालायर के पास स्थानीय लोगों की एक भीड़ ने एक मजदूर को बांग्लादेशी घुसपैठिया समझ कर बुरी तरह पीटा. उसे तब तक पीटा जाता रहा, जब तक कि वह मर नहीं गया. मृतक छत्तीसगढ़ का रहने वाला था.


09 दिसंबर- उत्तराखंड के देहरादून स्थित जिग्यासा यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले छात्र एंजेल चकमा को कुछ लोगों ने नस्लीय गालियां दीं. विरोध करने पर उस पर चाकू से हमला किया गया. 17 दिनों बाद 27 दिसंबर को उसकी मौत हो गयी. उसके पिता बीएसएफ के जवान हैं. घटना के वक्त एंजेल चकमा अपने भाई माइकल चकमा के साथ सब्जी खरीदने गया था.


24-25 दिसंबर- क्रिसमस से पहले और क्रिसमस के दिन वीएचपी और बजरंग दल जैसे हिन्दुवादी संगठन के लोगों ने देशभर में हंगामा खड़ा कर दिया. चर्च, स्कूल, बाजार, सड़क पर लगे क्रिसमस की सजावट को तहस-नहस कर दिया. आग लगा दी और चर्च के सामने हनुमान चलीसा पढ़ने लगे. अधिकांश जगहों पर जब यह सब हो रहा था, पुलिस के जवान तैनात थे. साफ है शासन का मौन समर्थन रहा.

 

एक माह के भीतर हुई इन तीन घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि देश के हर हिस्से में नस्लवाद, कट्टर धार्मिक उन्माद और उग्रवाद तेजी से फन पसार रहा है. फिर भी बहुसंख्यक लोगों को यही लग रहा है कि जो हो रहा है, वह ठीक हो रहा है. लोग मौन हैं. तब भी जब दुष्कर्म के आरोपी को जमानत दे दी जाती है और इसका विरोध करने पर पुलिस पीड़िता को उठा लेती है. ऐसे चुप हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं.

 

ऐसा लगता है कि हम करीब 90 साल पहले जर्मनी में जो हुआ, उसे भुला चुके हैं. वहां क्या हुआ था? उसे समझने के लिए जर्मन कवि पादरी मार्टिन निमोलर के लिखे यह संदेश काफी होगा- पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए, मैं कुछ नहीं बोला. क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था. फिर वे ट्रेड यूनियन वालों के लिए आए, मैं कुछ नहीं बोला. क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था. फिर वे यहूदियों के लिए आए, मैं कुछ नहीं बोला. क्योंकि मैं यहूदी नहीं था. फिर वे मेरे लिए आए, लेकिन तब तक कोई नहीं बचा था, जो मेरे लिए बोलता. 

 

अब हो क्या रहा है, यह समझिये. क्रिसमस पर चर्चों के सामने हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, चर्च में तोड़फोड़ कर रहे हैं, सभ्य समाज चुप है क्योंकि वो ईसाई नहीं हैं. इससे पहले दलितों को नंगा करके पीटा गया. सब चुप हैं, क्योंकि सभी दलित नहीं हैं. वो आदिवासी पर पेशाब करते हैं, समाज चुप रहता है, क्योंकि वो सभी आदिवासी नहीं हैं. चुनाव से ठीक पहले सामूहिक दुष्कर्म के आरोपी बाबाओं को जेल से रिहा कर दिया जाता है, सभी चुप रहते हैं, क्यों? क्योंकि घटना उनके परिवार के साथ नहीं हुआ है. दरअसल हम चुप रहकर यही बता रहे हैं कि हम उनके ही साथ हैं. आपकी अंतरात्मा मर चुकी है. तय मानिये, आप खतरे में हैं.

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