Girish Malviya
आप जानते हैं कि कोरोना की दवा रेमडेसिविर बेहद सस्ते दाम पर देश की जनता को बड़ी मात्रा में बहुत आसानी से उपलब्ध हो सकती है. लेकिन तब जब केंद्र में बैठी मोदी सरकार चाहे. रेमडेसिविर के लिए पूरे देश में त्राहि-त्राहि मची हुई है. लोग किसी भी कीमत पर इसे पाने को आतुर हैं. मरीज के परिजन इसके लिए किसी नेता अधिकारी के पैर तक पड़ने के लिए तैयार हैं.
रेमडेसिविर की लागत 1 डॉलर से भी कम है. यानी 75 रूपये से भी कम. यह तथ्य लिवरपूल विश्वविद्यालय में एक वरिष्ठ रिसर्च फैलो एंड्रयू हिल द्वारा किए गए एक अध्ययन में सामने आया है. जिन्होंने पाया है कि दवा एक डॉलर प्रति शीशी से कम में बनाई जा सकती है. यानी यदि दो गुना मार्जिन भी जोड़ लें तो बड़ी आसानी से यह इंजेक्शन 250 रू मात्र में एक आदमी को मिल सकता है.
जी हां! जिस 1 इंजेक्शन के दाम आप आज पचास हजार तक चुकाने के लिए तैयार है, वह सिर्फ ढाई सौ रु कीमत रखता है.
तो हमें यह मिलता क्यों नहीं? दरअसल रेमडेसिविर का पेटेंट गिलियड साइंस कंपनी के पास है. जो एक अमेरिकन कंपनी हैं, यह कम्पनी महंगी दवाईयों को बेचने के लिए कुख्यात है. इस रेमेडिसवीर को मूल रूप से इबोला के लिए निर्मित किया गया था. भारत जेनेरिक दवाओं का बहुत बड़ा निर्माता है. हम रेमडेसिविर भी आसानी से बना सकते हैं.
आपको जानकर बेहद आश्चर्य होगा जब आप जानेंगे कि भारत में रेमडेसिविर का यह पेटेंट गिलियड साइंस कंपनी को कब दिया गया! वह तारीख थी 20 फरवरी 2020 ! जी हां ! भारत में कोरोना महामारी शुरू होने से ठीक एक महीना पहले,
याद है न 22 मार्च 2020 को पहला जनता कर्फ्यू लगा था. अब इसमें कांस्पिरेसी ढूंढिए या मत ढूंढिए, यह तथ्य तो बदलने वाला है नहीं! सब जानते हैं कि जनवरी 2020 में ही चीन में जब यह महामारी फैली थी, तब ही इस दवा के टेस्ट कोरोना मरीजों पर कर लिये गए थे. यानी मोटा मुनाफा कमाने का खेल गिलियड के हाथों में था, उसे बस भारत में पेटेंट हासिल करना था. अगर मोदी सरकार के कर्ताधर्ता जरा भी अकल लगाती, जरा सा भी दूरदर्शिता दिखाती, तो वह 20 फरवरी 2020 को गिलियड को पेटेंट देती ही नहीं! लेकिन फार्मा कंपनियों को तो आप जानते ही हैं. और इस सरकार के बड़बोलेपन को भी.
एक और मजे की बात जान लीजिए. मोदी सरकार चाहती तो साल भर में इस पेटेंट को भी एक झटके में निरस्त कर सकती थी. आज भी कर सकती है ! पेटेंट कानून के प्रावधान के तहत. “कोई देश पेटेंट के मालिक की सहमति के बगैर मैन्युफैक्चरर को किसी खास ड्रग के उत्पादन की अनुमति दे सकता है. सरकार के पास सार्वजनिक हित में पेटेंट को रद्द करने की शक्ति होती है, उसे बस इतना करना होगा कि पेटेंट धारक को एक बार सुनने का अवसर दें. और आधिकारिक राजपत्र में उस आशय की घोषणा करें और उसके बाद पेटेंट को निरस्त माना जा सकता है.”
धारा भी जान लीजिये. भारत के पेटेंट क़ानून के क्लॉज 92 के अनुसार, भारत इस दवा के उत्पादन की इजाज़त भारतीय कंपनियों को दे सकती है. भारत के जेनेरिक दवा उत्पादकों के पास आसानी से इतनी क्षमता है कि वो रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्जन का उत्पादन कर सकें.
अब सवाल उठता है कि अब तक किसी ने इसकी मांग क्यों नहीं की! तो जान लीजिये, मांग हुई थी. लेकिन बिकाऊ मीडिया चैनलों ने जो फार्मा कंपनियों की दलाली करते हैं, उन्होंने यह सारे फैक्ट आपको एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा.
भारत के एक संगठन Cancer Patients Aid Association CPAA ने फरवरी 2020 में ही कहा था कि गिलियड साइंस को इस दवा को दिए गए पेटेंट को नवीनता और आविष्कारशीलता की कमी के कारण निरस्त किए जाने की आवश्यकता है. सीपीएए ने सरकार से अनुरोध किया है कि वह एक रेमडेसिविर कंपाउंड में गिलियड को दिए गए पेटेंट को रद्द करे. CPAA ऐसे मुकदमे पहले भी लड़ चुका है. CPAA ने संशोधित पेटेंट अधिनियम (2005) के तहत देश की पहली फार्मा पेटेंट मुकदमेबाजी में एक केंद्रीय भूमिका निभायी थी. जिसमें नोवार्टिस की रक्त कैंसर दवा Glivec शामिल थी.
Doctors Without Borders जैसे प्रतिष्ठित समूह ने भी रेमडेसिवीर पर गिलियड के पेटेंट का विरोध किया था. इस समूह का कहना है कि दुनिया भर में आई स्वास्थ्य इमरजेंसी के बीच इस तरह के लाइसेंसिंग समझौते स्वीकार्य नहीं किये जाने चाहिए.
लेकिन चाहे लाखों लोग मर जाए किसे फिक्र है !.न फार्मा कंपनियों को फिक्र है, न सरकार को फिक्र है ! न मीडिया को फिक्र है.
वैसे भी जो अंधी बहरी गूंगी जनता जो अपने हक के लिए आवाज नहीं उठा सकती उसका हाल बेहतर कैसे हो सकता है.
डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं औऱ यह लेख उनके फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हो चुका है.