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मेगा इवेंट राजनीति के बीच इनकम टैक्स के छापों से बदलता यूपी का समीकरण

Faisal Anurag  इनकम टैक्स रेड, नेताओं से होने वाली राजनीतिक मुलाकातों पर खुफिया नजर और सभाओं में आने वाली भीड़ एक तरफ विकास के चकाचौंध के विज्ञापन, शिलान्यासों की झड़ी, बूथ को लेकर जमीनी नियंत्रण के तेज प्रयास और चुनाव आयुक्तों को पीएमओ में हाजिरी का पत्र. उत्तर प्रदेश का राजनीतिक दृश्य इन्हीं घटनाक्रमों के साथ बन बिगड़ रहा है. चुनाव राजनीतिक बहसों या फिर आम लोगों के निर्णय लेने की स्व प्रक्रिया के बजाय एक प्रोडक्ट की तरह बना दिया गया है. मेगा राजनैतिक कार्यक्रम इवेंट जैसे हो गए हैं. न तो विकास को लेकर संजीदा रोडमैप न पिछले पांच सालों के कार्यकाल की ठोस समीक्षा और न ही लोकलुभावन येाजनाओं का वस्तुपरक मूल्यांकन. तो क्या सभाओं की भीड़ राजनैतिक संकेत हैं या फिर वह एक ऐसा तमाशा जिसके आधार पर कोई भी भविष्यवाणी जोखिम है. यदि भीड़ को एक मानदंड माना जाए तो यह कहना मुश्किल नहीं होगा कि कोई भी राजनीतिक दल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है. यहां तक कि पांच सालों के विकास का डंका पिटने वाली योगी सरकार भी. वह दौर तो न जाने कब गुम हो गया. जब सत्ताविरोधी रूझान का इस्तेमाल विपक्ष अपनी ताकत के रूप में करता था क्योंकि पांच सालों तक सड़क और सदन में अपनी मौजूदगी दिखाता था.उत्तर प्रदेश में न तो समाजवादी पार्टी और न ही बहुजन समाजवादी पार्टी जबाव देने की स्थिति में है कि पिछले पांच सालों में उसने सड़क के माध्यम से सरकार को निरंकुश होने से कितना रोका है. कांग्रेस जरूर जबाव दे सकती है कि उसका प्रदेश अध्यक्ष पिछले पांच सालों में दो दर्जन से ज्यादा बार सरकार की नीतियों और कदमों का विरोध करते हुए जेल गया. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के नजदीकी लागों पर इनकम टैक्स के रेड के बाद से यूपी का राजनीतिक मिजाज गरम है. अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया है कि अभी तो इनकम टैक्स विभाग ही आया है,इडी और सीबीआई का आना बाकी है. अखिलेश यादव ने महाराष्ट्र और बंगाल का उदाहरण भी दिया,जहां विधानसभा चुनाव के पहले एजेंसियों के छापे पड़े. इनकम टैक्स का छापा ठीक चुनाव के पहले पड़ने को राजनीतिक नजरिए से देखा जा रहा है. प्रेक्षक इसे राजनीतिक हताशा के रूप में देख रहे हैं और यूपी के बदलते राजनीतिक समीकरण को प्रभावित करने का प्रयास बता रहे हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों की बात माने तो कहा जा सकता है कि अखिलेश की प्रदेश यात्रा में उमड़ी भीड़ से भाजपा खासी परेशान है.यहां तक कि प्रियंका गांधी की सभाओं में भी भीड़ हो रही है. अखिलेश यादव ने आधे दर्जनों छोटे दलों के साथ गठबंधन का एलान कर जातीय समीकरण को भी प्रभावित किया है. यूपी के संदर्भ में राजननीतिक प्रेक्षक बता रहे हैं कि इस बार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड का असर अभी तक नहीं दिख रहा है. जबकि भाजपा ने जिन्ना और अब्बाजान जैसे प्रतीकों को मैदान में उतार दिया है. मंदिरों के माध्यम से भी राजनीति को साधने की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री तक शामिल हो गए हैं. अमित शाह बूथ स्तर पर मजबूती के साथ तैयारी में लगे हैं. अजय मिश्र टेनी के मामले में नरेंद्र मोदी और अमित शाह पूरी भाजपा के साथ बचाव में लग गए हैं. जिस तरह पीएमओ ने चुनाव आयुक्तों को पत्र भेज कर बुलाया है उसे भी यूपी के चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है. पूर्व चुनाव आयुक्त कुरैशी ने तो यहां तक कह दिया है कि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त संस्था है पीएमओ को कोई अधिकार नहीं कि वह चुनाव आयुक्तों को तलब करे. पीएमओ के पत्र में आदेशात्मक लहजा तो नहीं है बावजूद विपक्ष सवाल उठा रहा है कि जब पांच राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं. ठीक उसी समय पीएमओं की चिट्ठी का क्या मकसद है. चुनाव आयोग विभिन्न कारणों से विवादों में रहा है. विपक्ष ने कई बार आरोप लगाए हैं कि प्रधानमंत्री के दौरों को ध्यान में रखते हुए आयोग चुनाव की तिथिय़ां और आचार संहिता का एलान करता है. चुनाव के ठीक पहले जिस तरह शिलान्यास और उद्घाटन होते हैं वे चुनावों को प्रभावित करते हैं. लेकिन इस पर निगरानी या नियंत्रण की कोई प्रक्रिया चुनाव आयोग विकसित नहीं कर पाया है. बंगाल चुनाव के समय तो आयोग पर यहां तक आरोप लगा था कि चुनावों की तिथियों के निर्धारण में भी सत्तरूढ़ दल के हिसाब से की जाती है. क्या चुनाव को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए रखने को लेकर यदि चुनाव आयोग पर सवाल हो रहे हैं तो इसका संज्ञान तो लेना ही चाहिए. बड़े चुनावी इवेंटों में जिस तरह धन बहाया जा रहा है उसका हिसाब किताब करने का भी साहस दिखाना चाहिए. राजनैतिक प्रेक्षक मान रहे हैं कि वोटर लिस्ट से विपक्षी वोटरों के नाम काटने की जिस तरह अफवाह है उसे लेकर भी आयोग को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. [wpse_comments_template]
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