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भारत एक संप्रभु देश है वह किसी महाशक्ति से नहीं डरता

 Faisal Anurag किसी भी संप्रभु देश की स्वतंत्र विदेश नीति से अमेरिकी आका परेशान क्यों हो जाते हैं और वे सीधे धमकाने की लहजे में बात करने लगते हैं. अमेरिका भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से असहज जान पड़ता है. वहीं चीन के साथ पहले से उसके विवाद को यूक्रेन संकट पर चीनी नीति ने और गहरा कर दिया है. अमेरिका के उप-सुरक्षा सलाहकार दिलीप सिंह, जो हैं तो भारतीय मूल के, लेकिन वे कट्टर अमेररिकी साबित करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं. हाल ही में दिल्ली यात्रा के दौरान परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने भारत पर पूरा दबाव बनाने और विदेश नीति को प्रभावित करने का प्रयास किया. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि चीन जब भारत पर आक्रमण करेगा तो उसे बचाने रूस नहीं आएगा. दरअसल यूक्रेन युद्ध के मामले में भारत ने न तो रूस की निंदा की और न ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस की निंदा के प्रस्ताव का समर्थन किया. एशिया के दो अन्य देश चीन और पाकिस्तान ने भी निंदा प्रस्ताव के पक्ष में मतदान नहीं किया. लेकिन रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लवरोव की भारत यात्रा के बाद से कुछ अमेरिका ज्यादा ही तल्ख नजर आ रहा है. ताजा घटनाक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रमुख आर्थिक सलाहकार ब्रायन डीज ने कूटनीति की मर्यादाओं का ध्यान रखे बगैर कहा है कि भारत को रूस के साथ गठबंधन की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. उनकी नजर में रूस यूक्रेन मुद्दे पर चीन और भारत द्वारा लिये गये फैसलों ने पश्चिमी देशों को निराश किया है. अमेरिका यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस को संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद से निलंबित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव लेकर आया है. इस पर मतदान होना है. दूसरी ओर रूस ने भी चेतावनी दी है कि अगर किसी भी देश ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया तो वह गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे. भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अमरिका पर आरोप लगाया है कि उसने विपक्ष के साथ मिलीभगत कर उनकी सरकार गिराने का प्रयास किया. इमरान खान के अनुसार इसके पुख्ता दस्तावेज मौजूद हैं. जिस दिन यूक्रेन पर रूस ने हमला किया था उस दिन इमरान खान मास्को में ही थे और रुसी  नेताओं से मुलाकात कर रहे थे. दरअसल अमेरिका की यह पुरानी नीति है कि जो भी देश स्वतंत्र तरीके से चलने का प्रयास करता है वह उसकी नजरों में खटकने लगता है. लातिनी और अनेक अफ्रीकी देशों की ऐसी सरकारें जो बहुमत से चुनाव जीत कर सत्ता में आयीं और अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दी,देर सबेर उसको भारी कीमत चुकानी पड़ी. क्यूबा और वेनेजुएला दो ऐसे देश हैं जिन्होंने तमाम प्रतिबंधों के बावजूद अमेरिकी वर्चस्व को अभी तक स्वीकर नहीं किया है. शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में अमेरिका ने अपनी वैचारिक जीत का डंका बजाया. लेकिन चीन और रूस के उभार के बाद उस पर विराम लगा है. एकध्रुवीय दुनिया अब बहुध्रुवीय होती दिखने लगी है. भारत का इसमें एक बड़ा किरदार है. भारत ने वियतनाम युद्ध के समय भी अमेरिका का पक्ष नहीं लिया था और वह पूरी ताकत से गुटनिपरेक्षता की नीति पर चलता रहा. आज के दौर में गुट निरपेक्ष आंदोलन केवल कागजों पर ही है, लेकिन अनेक ऐसे देश हैं जो राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख कर फूंक फूंक कर कदम रखते हैं. भारत एक ओर अमेरिका,अस्ट्रेलिया और जापान के गठबंधन ``क्वाड`` का सदस्य है तो दूसरी ओर उसने रूस के साथ अपने 55 साल पुराने जीवंत रिश्तों को भी नहीं छोड़ा है. यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है कि अमेरिकी और नाटो देशों के खेमों के साथ ही उसके रूस जैसे देशों के साथ भी संबंध हैं. रूस से हथियार के ताजा सौदे पर भी अमेरिका ने नराजगी जतायी थी, लेकिन भारत ने अमेरिका की नाराजगी के बावजूद अपने रक्षा व्यापार सौदे को जारी रखा है. वर्तमान वैश्विक घटनाक्रम, जिसमें व्यापार सबसे ज्यादा प्रभावी है, भारत जैसे तेजी से उभरते देश की गुटनिपरेक्ष नीति की ताकत को एक बार फिर सही साबित करता है.पूर्वी यूरोप,अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के अनेक देशों में चुनी गयी सरकारों के खिलाफ विपक्ष का इस्तेमाल कर सत्ता गिराने की घटनाएं इस नीति की प्रासंगिता को सही साबित करती हैं. दोस्ती सबसे गुलामी किसी की नहीं की राह ही भारत जैसे देश के लिए जरूरी है. [wpse_comments_template]

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