Faisal Anurag
इतिहास बनते आज दुनिया ने देखा. 1928 में भी इतिहास बना था. वह समय था जब भारत अंग्रेजों के पराधीन था और भारत के हॉकी खिलाड़ियों ने हॉकी गोल्ड मेडल जीत कर दुनिया को दिखा दिया कि भारत जाग चुका है और जल्द ही वह आजाद मुल्क के रूप में अपनी महत्ता साबित करेगा. 1948 में वह अवसर आया और भारत ने एक बार फिर हॉकी का गोल्ड तमगा जीता. इन्हीं जीतों की तरह भारत की लड़कियों ने भी एक ऐसे इतिहास का निर्माण किया है जिसका संदेश है पूरब की लड़कियां पश्चिम को चुनौती देने में किसी से कम नहीं हैं.
2007 में जब स्मित अमीन ने चक दे इंडिया फिल्म बनायी थी तब किसने कल्पना होगी कि उसके अगले 14 साल के भीतर ही भारत की वे लड़कियों महिला हॉकी में अस्ट्रेलिया को पराजित कर सेमीफाइनल का सफर तय करेंगी. यह किसी सपने की तरह है जब भारत की लड़कियां अस्ट्रेलिया को पराजित कर सेमीफाइनल में पहुंच जाएंगी. भारत ने हॉकी के तमाम दिग्गज टीमों को बता दिया है कि उसे आसानी से या कम कर न लिया जाए. उनके पास जज्बा है और कुछ भी कर गुजरने का हौसला है.
भारत के लड़कों ने भी सेमीफाइनल में धमाकेदार पहुंच बना कर अपने उस पुराने गौरव की वापसी का संकेत दिया है जब हॉकी का मतलब भारत ही होता था. ओलंपिक में भारत के नाम 9 गोल्ड मेडल है इन में आठ हॉकी के ही हैं. इसके साथ रजत और कांस्य पदक भी है. यह आंकड़ा बता रहा है कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी हॉकी ताकत है और वह पुरूष और महिला दोनों वर्गो में अपने स्वर्णिम दिनों की वापसी के लिए संघर्ष का हौसला दिखा रहा है. बीच के सालों में बदले नियमों और मैदान के हुनर में भारत भी पारंगत हो गया है.
चक दे इंडिया में कोच के किरदार के रूप में शाहरूख खान ने अपने खिलाड़ियों को कहा था तुम्हारे पास 70 मिनट हैं. इन्हीं 70 मिनट को भारत की लड़कियों ने पूरे दिल और इरादे से खेलते हुए अस्ट्रेलिया जैसी टीम को हरा दिया. क्या संयोग है चक दे इंडिया के फाइनल में भी भारत ने अस्ट्रेलिया को ही हराया था. वह फिल्म थी लेकिन टोक्यो में बादलों पर उड़ती लड़कियों की गति,बचाव और आक्रमण को दुनिया ने देखा.
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जीत की नायिका गोलकीपर सविता पुनिया रहीं, जिन्होंने कुल 9 बेहतरीन बचाव किए. इसके अलावा भारत की ओर से एकमात्र निर्णायक गोल गुरजीत कौर ने 22वें मिनट में पेनाल्टी कॉर्नर पर किया, जो भारत को सेमीफाइनल में पहुंचाने के लिए काफी था. टोक्यो से एक और बदलाव के सपने की उड़ान देखी जा सकती है. वह है भारत की लड़कियों की दावेदारी. इन लड़कियों ने वह कर दिखाया है जो करोड़ों भारतीयों के लिए गर्व का विषय है. साथ ही लड़कियों को लेकर प्रचलित मान्यताओं पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है.
हिंदी की लेखिका कनुप्रिया ने अपने पोस्ट में लिखा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में लड़कियां जो कमाल दिखा रही हैं वो महज उनकी या देश की खेल उपलब्धि नहीं है, वो देश समाज को अपना नजरिया बदलने वाली नज़ीर पेश कर रही हैं. अब लड़कियों को मूर्ख समझने वाले, ज़नाना और चूड़ी शब्द को कमजोरी से जोड़ने वाले, लड़कियों को बोझ समझने वाले इतना तो जान गए होंगे कि सदियों से जो आरोप महज लड़की होने से जुड़े थे वो दरअसल लड़कियो की सामाजिक व्यवस्था और उससे जुड़ी मानसिकता की दिक्कत थी.
अब तक भारत ने दो पदक जीते हैं दोनों को ही लड़कियों ने जीता है. महिला बॉक्सिंग में एक पदक पक्का है और उसे भी लड़की ने ही जीता है. जिसके पिता की मासिक आय 2500 रुपये मात्र है. शॉर्टपुट में एक महिला पदक के करीब है. भारत के पिछले चार पदक भी लड़कियों के ही नाम है. यह भारत में एक नई सांस्कृतिक लहर जैसा दिखता है. लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार और उन्हें दोयम दर्जे को समझने की प्रवृति को खत्म होना ही होगा. इस सांस्कृतिक जागरण का यह स्पष्ट संदेश है.
दक्षिण एशिया के देशों आमतौर पर पितृसत्ता की भयावहता के शिकार रहे हैं. ऐसे समाजों के भीतर से महिलाओं का तमाम वर्जन, सामाजिक मान्यताओं और बंधनों के खिलाफ उठ खड़ा होना ऐतिहासिक परिघटना से कम नहीं है. याद किया जा सकता है कि रंगभेद और महिला को दोयम समझने की प्रवृति कितनी गहरी है. रंगभेद के खिलाफ दुनिया सजग है. अमेरिका जैसे देश में ब्लैक लाइव्स मैट्रस जैसे आंदोलन ने उसे वैश्विक बना दिया है. महिलाओं को खेलों में बराबरी दिए जाने की मांग जोरों पर है. टेनिस के ग्रैंड स्लम में पुरूषों जितनी ही इनामी राशि के उनके संघर्ष को याद किया जा सकता है.
अभी भी क्रिकेट और फुटबॉल में जो रूतबा पुरूष टीमों की है वह महिलाओं को नहीं दी गयी है. जब कि बॉलीबाल का विश्व नजरिया तेजी से बदल रहा है. एथलेटिक्स में भी महिलाओं ने पुरूषों की बराबरी हासिल की है. उसके लिए लंबा संघर्ष किया है. भारत की लड़कियों की इस दावेदारी को उन उत्पीड़ित देशों और समाजों की तरह है. जिसके एक मुक्केबाज ने अमेरिकी मुक्केबाज को ओलंपिक में ही हरा कर कहा था मेरे मुक्के साम्राज्यवादी जुल्म और परंतंत्र बनाने वाली उसकी नीतियों व इरादे के खिलाफ लगे हैं. फुटबॉल के अनेक खिलाड़ी भी अपनी जीत को देशों के गरीब और सताए गए लोगों से प्रेरित बताया. भारत की लड़कियों ने भी सामाजिक बंधन को चुनौती दिया है.
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