Soumitra Roy
फ्रीडम फ्लोटिला, ब्रेक द सीज या मेडेलिन, जिस किसी नाम से पुकारें, इस मिशन ने अन्याय, आतंकवाद और जियोनिज्म के खिलाफ लोगों के दबे हुए गुस्से को दिशा दी है. कल ग्रेटा थनबर्ग ने पेरिस में कहा कि इस गुस्से की अभिव्यक्ति में दुनिया की और महिलाओं को आगे आना चाहिए. इसका मतलब क्या है? ग्रेटा कौन है? भारत की औरतों से उसका क्या रिश्ता है? भारत तो फिलिस्तीन नहीं है, फिर ग्रेटा होती कौन है सलाह देने वाली?
दिल्ली में चाय बेचने वाली एक लड़की के दामन पर पुलिस ने हाथ डाला. उसे घसीटा. बदतमीजी की. उधर, सोनम नाम की एक लड़की अपने पति की हत्या का आरोप माथे पर चिपकाए हवालात में है. सोनम चर्चा का विषय है. चाय वाली लड़की नहीं. दोनों ही हिंदू हैं, लेकिन एक विलेन और एक पीड़ित. लड़की ने इज्जत कमाई तो देश की बेटी और इज्जत गंवाई तो बेटी नहीं कलंक. सारा खेल इज्जत का ही तो है.
भारत में पीड़ितों के प्रति गुस्सा कम और सहानुभूति ज्यादा दिखती है. बस, यही फर्क है पूरब और पश्चिम में. इसे निजाम का खौफ कहें या मजहबी, पारिवारिक, सामाजिक मजबूरियां. लेकिन, अगर देश की इज्जत जूतों तले दबी, कराह रही हो तो सब चुप. कल जन आंदोलन के एक पुराने साथी मुझे कह रहे थे कि हर रोज 13 बलात्कार, हत्याओं, यौन उत्पीड़न के बावजूद भारत की आधी आबादी ने खुद को एडजस्ट कर लिया है. उनके लिए ग्रेटा एक मिशाल बन सकती है, बस ट्रिगर की जरूरत है.
कल ग्रेटा के 7 नहीं, 8 साथी यातनागृह में डाल दिए गए. बदबूदार, असुरक्षित, भयानक गंदगी से भरी कोठरियों में. पीने को गंदा पानी और भूख, यातना. उन्हीं में एक और लड़की रीमा हसन है. उसका वतन फिलिस्तीन है. वे अपने कंफर्ट जोन फ्रांस से गाजा आई है. खौफनाक नतीजों से बेपरवाह. उसे मालूम था कि अगर अरेस्ट हुई तो छुड़ाने की हिम्मत कोई नहीं करेगा. लेकिन, अब दुनिया भर के लोगों का हुजूम उसे छुड़ाने को निकल पड़ा है.
हम पितृसत्ता की बात करते हैं और घूंघट को भी जायज ठहराते हैं. पति को परमेश्वर मानते हैं. क्योंकि, वही दाल-रोटी देता है. क्या होता अगर सोनम अपने प्रेमी के साथ शादी के बाद भाग जाती. राजा की जान बच जाती, पर कलंक सोनम के माथे पर ही लगना था. ग्रेटा, रीमा हसन जैसे किरदारों को लाल सलाम करने वालों से मैं उम्मीद करता रहा कि वे इनकी बहादुरी को भारत के संदर्भ में देखें. यहां भी एक कब्जा है-औरत के दामन पर. उसकी इज्जत, आजादी और अभिव्यक्ति पर. मजहब के नाम पर बैठी एक सत्ता और उसके संस्थानों का. जो आधी आबादी को मार देना चाहती है. जो हवस में भूखी है.
इस अराजक सत्ता के कब्जे को तोड़ने के लिए ब्रेक द सीज की जरूरत है- लेकिन भारत में न ग्रेटा है, न रीमा. कल ग्रेटा का उसके वतन स्टॉकहोम में जमकर स्वागत हुआ. बेखौफ, बेधड़क, आजाद 22 साल की एक लड़की. उसकी आवाज में मजबूती है. लफ्जों में गुस्सा और विद्रोह, लेकिन अंदाज विनम्र.
क्या आप अपने परिवार में ऐसी किसी ग्रेटा को बर्दाश्त करेंगे? कर भी लें तो क्या समाज को मंजूर है? ऑफिस, सड़क, मॉल, फैक्ट्री या दुकान में? नहीं. क्योंकि हर जगह वह कब्जा तोड़ना चाहेगी. फिलिस्तीन की आजादी अब भारत को छोड़कर पूरी दुनिया का मिशन है. वहीं फिलिस्तीन, जिसके नेता यासिर अराफात को इंदिरा कभी भाई कहती थीं. हमने फिलिस्तीन को मरने के लिए छोड़ दिया, क्योंकि वे मुसलमान हैं. हम अलग–थलग पड़ गए.
हमारा सिंदूर उजड़ गया और हम जूते के नीचे आ गए, लेकिन कब्जा तोड़ने का हौसला अभी भी नहीं है. रूसी विदेश मंत्री लावरोव इसी हफ्ते दिल्ली आ रहे हैं. पाकिस्तान ब्रिक्स में शामिल हो रहा है. भारत उसके साथ एक मंच पर कैसे बैठेगा? हम फिर अलग–थलग पड़ जाएंगे. फिलिस्तीन की तरह. किसी नाव की उम्मीद में. किसी 22 साल की ग्रेटा, रीमा के इंतजार में. हमें घूंघट, सिंदूर से प्यार है. आजादी से नहीं. 5000 साल के लिखित इतिहास की दासता हमारे डीएनए में है.
इजरायल ने मेडेलिन के बहादुरों को सेल्फी टीम कहा है. हमारे देश में लाखों रील क्वीन हैं. यही होना चाहिए. यही खुशी है. यही अभिव्यक्ति की असल आजादी है, भले अंजाम कुचले जाने का क्यों न हो.
डिस्क्लेमर : यह लेखक के निजी विचार हैं.