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भारत की नाकाम होती विदेश नीति

Nishikant Thakur कितनी पीड़ा होती है जब बांग्ला देश के राष्ट्राध्यक्ष द्वारा भारतीय राजदूत को `तलब` किया जाता है, लेकिन हां, यही राजनीति है और आज का परिवेश कमोबेश ऐसा ही हो गया है. पिछले दिनों बांग्ला देश सीमा पर तारबंदी को लेकर पूर्व में हुए समझौते को नकारते हुए भारतीय उच्चायुक्त प्रणय वर्मा को `तलब` कर बांग्ला देश के विदेश सचिव मोहम्मद जशीम उद्दीन ने विदेश मंत्रालय में बैठक के दौरान हाल में सीमा पर तनाव को लेकर बांग्ला देश की ओर से गहरी चिंता जताई. इस घटनाक्रम पर यदि आप गंभीरतापूर्वक विचार करें तो आप यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि हमारे विदेश मंत्रालय की ऐसी क्या कमी रह गई, जिसके कारण आज हमारे उच्चायुक्त को बुलाकर उन्हें बांग्ला देश जैसे अदने राष्ट्र का एक मामूली-सा अधिकारी लाल आंखे दिखा रहा है. आपको इस बात की पक्की जानकारी होगी कि लगभग एक लाख सैनिकों सहित पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को समर्पण करना पड़ा था, यह वही बांग्ला देश है, जिसके निर्माता होने का संपूर्ण श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी और जनरल मानिक शाह को जाता है और इसके लिए इतिहास उन्हें आज भी याद करता है. साथ ही भारत आज भी बांग्ला देश को अपना सबसे करीबी मित्र देश मानता है. हां, वर्ष 1971 में ही भारत यदि चाहता, तो अलग देश बनाने के स्थान पर अपने देश में ही मिला लिया होता, लेकिन भारत ने सदाशयता दिखाते हुए उसे अलग देश बनवा दिया और वह विश्व में बांग्ला देश के रूप में स्थापित हो गया. यदि हम निष्पक्ष भाव से देखें, तो यह बात सच प्रतीत होती दिखाई देती हैं कि अब हमारी विदेश नीति में ही कुछ कमी आ गई है. ऐसा इसलिए भी कह सकते हैं कि एक छोटा देश बांग्ला देश, जिसका अवतरण भारत के गर्भ से ही हुआ है, बड़ा होते ही हमारे सीने पर सवार होकर युद्ध तक के लिए तैयार हो बैठा है. आज भी बांग्ला देसी घुसपैठिये भारत में जगह-जगह भरे पड़े हैं और वे सभी हम भारतीयों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं, लेकिन हम उसे भी बर्दाश्त करते हुए यह कहते हैं कि आखिर यह शरणार्थी हैं. हमारे भारत की दया पर गैरकानूनी ढंग से प्रवेश कर अपना गुजारा कर रहे हैं. लेकिन यह क्या? अब सत्ता परिवर्तन क्या हुआ, भारत को युद्ध के लिए ललकार रहा है और उसे लाल आंखें दिखा रहा है. ज्ञात हो कि पाकिस्तानी अत्याचारों से परेशान होकर स्व. मुजीबुर्र रहमान ने भारत के समक्ष अपनी गुहार लगाई थी, जिस बर्बरता को देखकर तत्कालीन भारत सरकार ने मानवाधिकार की रक्षा करते हुए हस्तक्षेप किया था और युद्ध जीतकर उसे वहीं के नेता के हवाले करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाकर विश्व के मानचित्रों संग खड़ा कर दिया. सच तो यही है कि यह वही देश है, जिसने अपने ही नेता मुजीबुर्र रहमान के पूरे परिवार को गोलियों से भूनकर मार डाला था. अब उन्हीं के परिवार की एक सदस्या शेख हसीना को देश निकाला दे किया, जो आज भी भारत के शरणागत है. याद दिलाते चलें कि भारत-रूस के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें तय हुआ था कि भारत-रूस एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करेगा और वह एक-दूसरे की मदद करेगा. जब भारत पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार का हनन कर रहा था और वहां के नेता ने भारत से अनुरोध किया कि उनकी रक्षा भारत करे, तो भारत ने मानवीयता और मानवाधिकार की रक्षा करने के लिए पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं के अनुरोध को स्वीकार कर मदद के लिए आगे आया. लेकिन, ऐसा करना पाकिस्तान को अप्रिय लगा. फिर अमेरिका ने पूर्वी पाकिस्तान की मदद के लिए अपना युद्धक बेड़ा भेज दिया. उसी से भारत की रक्षा के समझौते को ध्यान में रखते हुए रूस ने अपना आठवां युद्धक बेड़ा भेज दिया. फिर अमेरिका की हिम्मत नहीं हुई कि वह भारत की ओर रुख करके एक भी हथियार फेंके. लेकिन, अमेरिका को अपना युद्धक बेड़ा समुद्र मार्ग से अपने देश की ओर बिना युद्ध लड़े लौटाना पड़ा. भारत ने रूस से अपने निजी संबंधों के उपयोग में बांग्ला देश बनाने और पाकिस्तान से आजादी दिलाने के लिए किया, लेकिन आज समय ने पाला बदला और उसने हमारे उच्चायुक्त को लाल आंखें दिखाकर तलब कर लिया. ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति भारतीय राजनीति के लिए क्यों आई, इस पर गहन अध्ययन की जरूरत है; क्योंकि सत्ता के केंद्र में बैठे अधिकारी एक-एक बात की एक-एक समस्या पर गहन अध्ययन करते हैं और उनका निदान ढूंढते हैं. फिर उसके राजनीतिक पहलुओं को सामने रखते हुए, इसका समाधान किस तरह किया जा सकता है, उस पर मनन करते हैं. उन्हें आज के समय में खुलकर इस स्थिति की जानकारी देश को देनी चाहिए कि कथित रूप से `विश्वगुरु` बनने जा रहे हम भारतीय को बांग्ला देश की धौंसपट्टी में अब और कितने दिन रहना पड़ेगा? वैसे, देश में आमलोगों की धारणा यह बनती जा रही है कि भारत में मुसलमानों पर किए जा रहे अनैतिक अत्याचारों के परिणामस्वरूप बांग्ला देश की इतनी हिम्मत बढ़ी कि वह भारत से टक्कर लेने की हिमाकत कर सके. अपनी विदेश नीति का बांग्ला देश तो केवल एक उदाहरण मात्र है. हमारे संबंध पिछले दिनों श्रीलंका से भी बुरी तरह खराब हुए और परंपरागत भारत से दोस्ती रखने वाले देश हमारे परम शत्रु देश चीन से हाथ मिलाकर उसके साथ आगे बढ़ गया. रही बात छोटे-छोटे हमारे पड़ोसियों की, तो बात जिससे हमारी बेटी-रोटी के संबंध थे उसने भी अपना रुख चीन की तरफ मोड़ लिया. नेपाल, मालदीव ऐसे दो देश हैं, जिन्हें भारत ने कभी अलग देश माना ही नहीं, लेकिन अब उनसे भी हमारे संबंध गुजरे जमाने की बात हो गई है. रही बात पाकिस्तान की, तो उसका तो जन्म ही भारत के विरोध में हुआ है, इसलिए उस पर अधिक टीका-टिप्पणी करना बेमानी होगी. ऐसा इसलिए किसी-न-किसी रूप में उसके घुसपैठियों तो भारत में आतंक मचाने आते ही रहते हैं और हमारी सीमा की रक्षा के लिए तैनात जवानों को शहीद करके अपने बिल में चूहों की तरह भाग जाते हैं. अब कुछ बड़े शक्तिशाली देशों की बात करें, तो कनाडा, जहां हमारे देश के लाखों छात्र अपनी पढ़ाई करने अथवा रोजगार पाने के उद्देश्य से जाया करते थे, लेकिन अब हमारी कमजोर विदेश नीति ने उसे अपने दोनों हाथों से मिटा दिया. कनाडा के कारण हमारे देश में डॉलरों की कमी नहीं रहती थी, लेकिन अब डॉलर आना बाधित हो गया है, जिसका हमारी आर्थिक स्थिति पर दूरगामी परिणाम दिखेगा. अब भारत का तथाकथित मित्र चीन, जो कहने के लिए भारत को अपना मित्र कहता है, लेकिन आज विश्व का सर्वश्रेष्ठ ताकतवर और व्यावसायिक देश बन गया है. चूंकि, सीमा भारत से मिलती है, इसलिए वह बार-बार चोरी-छिपे सीमा का उल्लंघन करता हुआ हमारी जमीन पर अपना गांव बसा चुका है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि हमारी सीमा में न कोई घुसा था, न घुसा है, और न ही घुसने की हिम्मत है. इसके इतर विशेषज्ञों का कहना है कि चीन हमारी सीमा के हजारों वर्ग किलोमीटर अंदर घुसकर अपना गांव और अपनी पुलिस चौकी बना चुका हैं. इस पर भयभीत विदेश मंत्री देश को डरते हुए कहते हैं कि चीन जैसी विशाल अर्थव्यवस्था से टकराना आसान नहीं है. कहीं इसका अर्थ यह तो नहीं कि चीन बड़ी अर्थव्यवस्था के कारण भारत को अपनी सीमा से पीछे हटाता जाएगा? हमारे देश को और विशेष रूप से प्रधानमंत्री को स्वयं इसकी रिपोर्ट लेनी चाहिए कि आखिर देश की भोली-भाली जनता को इस प्रकार कब तक अंधेरे में रखा जाएगा. साथ ही प्रधानमंत्री को इस पर भी संज्ञान लेना होगा कि बांग्ला देश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, कनाडा से हमारे संबंध सुधरें. हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री पिछली सरकारों पर अक्सर तंज कसते रहते हैं कि उन्हें लाल आंखें क्यों नहीं दिखाया जा सकता है. जो भी हो, इन सारी घटनाओं ने हमारे विदेश मंत्रालय की पोल खोल दी है कि सच में हमारे नेता गाल बजाने में माहिर हैं और `विश्वगुरु` की बात करना केवल देश की जनता को गुमराह करने का चुनावी जुमला है. डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं, ये इनके निजी विचार हैं. 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