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हकीकत से निपटने की बजाय भविष्य के सपनों में उलझा मोदी सरकार का दसवां बजट

Faisal Anurag बजट यानी सरकार का दृष्टि पत्र और लेखाजोखा. लेकिन बजट जब केवल सपनों की सौदागरी करने लगे तो उसे क्या कहा जाए. नरेंद्र मोदी सरकार लोगों को सपने दिखाने में महिर रही है. 2015 में कहा था कि 2022 में किसानों की आय दुगनी हो जाएगी. 2019 का चुनाव आया तो किसान सम्मान निधि के बतौर 6000 सलाना देने का एलान किया. लेकिन 2022 की हकीकत तो यह है कि न तो किसानों की आय दुगनी हुई और ना ही किसान सम्मान निधि बढ़ी. मुद्रा स्फिति 5000 हजार हो कर रह गयी है. बजट का साफ इशारा है कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट पूंजी को सौंपे जाने की प्रक्रिया कृषि कानूनों की वापसी के बावजूद भी जारी रहेगी. अर्थशास्त्री अरूण कुमार ने तो ठीक ही कहा है कि यह सपनों का बजट है जिसका वर्तमान से सरोकार कम ही है. मोदी सरकार जिस नए भारत की कल्पना करती है उसमें मध्यवर्ग और गरीब की परिभाषा भी तेजी से बदल रही है. लेकिन सरकार के ही दो दस्तावेजों को मिला कर देखा जाये तो 31 जनवरी को प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण और बजट प्रस्ताव के अंतरविरोध साफ समझ में आते हैं. यदि इन दस्तावेजों के साथ आक्सफेम की असमानता रिपोर्ट को भी मिला दिया जाये तो एक तस्वीर तो साफ उभरती है कि प्रधानमंत्री भले ही दावा करें कि यह बजट गरीबों के हितों के लिए है लेकिन इसमें तेज आर्थिक सुधारों के कारण बढ़ती गैर बराबरी से निपटने के उपाय नहीं सुझाये गए हैं. विपक्ष के एक नेता ने इसी का हवाला देते हुए 124 अमीरों का बजट करार दिया है. जिनकी संपत्ति की बढ़ोत्तरी की गति तमाम रिकॉर्ड तोड़ चुकी है. वित्तमंत्री ने अगले 25 वर्षो के लिए इस बजट को एक दिशापत्र की तरह बताया है. भारत आजादी के 75 वर्ष में है. अगले 25 वर्ष में वह आजादी की एक सदी का सफर तय करेगा. लेकिन सवाल है कि भारत जिस आत्मनिर्भर विकास की बात करता है उसे वर्तमान आर्थिक नजरिया पूरा करने में सक्षम है या नहीं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि किसी भी बजट प्रस्ताव को केवल एकांगी नजरिए से नहीं देखा जा सकता. उसे पॉलिटकल इकोनॉमी के व्यापक संदर्भ में ही समझा जा सकता है. पॉलिटकल इकोनॉमी का मतलब है `` राजनीतिक अर्थव्यवस्था, सामाजिक विज्ञान की वह शाखा जो व्यक्तियों और समाज के बीच, बाजारों और राज्य के बीच संबंधों का अध्ययन करती है. जिसमें अर्थशास्त्र, राजनीतिक विज्ञान और समाजशास्त्र से बड़े पैमाने पर तैयार किए गए उपकरणों और विधियों के विविध सेट का उपयोग किया जाता है. राजनीतिक अर्थव्यवस्था शब्द ग्रीक ``पोलिस`` से लिया गया है, जिसका अर्थ है "शहर" या "राज्य," और ओइकोनोमोस, जिसका अर्थ है "वह जो घर या संपत्ति का प्रबंधन करता है." इस प्रकार राजनीतिक अर्थव्यवस्था को इस अध्ययन के रूप में समझा जा सकता है कि कैसे एक देश-जनता का घर-राजनीतिक और आर्थिक दोनों कारकों को ध्यान में रखते हुए प्रबंधित या शासित होता है`` इसका अर्थ यह है कि भारत की राजनतिक दिशा और आर्थिक सुधारों के बीच गहरे अंतरविरोध हैं. यही कारण है कि बजट के पहले जो शेयर बाजार हिलोरे ले रहा था बजट के बाद उस गति को कायम नहीं रख सका. तो क्या भारत उसी अर्थसंरचना के वैश्विक जाल में फंसता नजर नहीं आ रहा है जिसके चीली, ब्राजील, सिंगापुर और इंडो​नेशिया जैसे देश पहले शिकार हो चुके हैं. दरअसल, भारत एक ऐसे देश में तब्दील हो रहा है जो न तो तीव्र गति से आर्थिक सुधारों के सहारे आगे जा पा रहा है और ना ही  धीरे-धीरे कल्याणकारी छवि से भी पीछा छुड़ा रहा है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में केवल दो बार गरीब शब्द का इस्तेमाल किया जब कि भारत की एक तिहाई आबादी गरीब है. यही नहीं किसानों को केवल 2 मिनट 45 सेकेंड में ही निपटा दिया गया. यह भी बता दिया गया कि भले ही मोदी सरकार कृषि कानूनों को वापस ले चुकी है कि लेकिन वह कृषि सुधारों यानी उस में निजी घरानों की भूमिका बढ़ाने के लिए बेचैन है. बजट का यह पहलू बताता है कि किस तरह जिस बजट को अगले 25 सालों का दृष्टि पत्र बताया गया. उसकी एक वास्तविकता तो यह है कि किसानों की आय 8000 ₹ प्रति महीने से बढ़कर महंगाई दर को जोड़ते हुए अभी तक 21 हजार प्रति महीने हो जानी चाहिए थी. लेकिन अब भी किसानों की आय 10 हजार प्रति महीने के आस-पास अटकी हुई है. सरकार पिछले 2 सालों से एग्रीकल्चर इन्वेस्टमेंट फंड के तौर पर एक लाख करोड़ रुपए खर्च करने की बात कह रही थी. लेकिन खर्च हुआ है सिर्फ ढाई हजार करोड रुपये. यही नहीं मनरेगा जिसने कोविड के समय भारत की ग्रामीण संरचना को मजबूती दिया और अब इसका आवंटन ही कम कर दिया गया है. मनरेगा के लिए वित्त मंत्री ने सिर्फ 73000 करोड़ रुपये दिए हैं,  जो 98000 करोड़ के पिछले आवंटन से कम हैं. खाद्य सब्सिडी को 2.86 लाख करोड़ से घटाकर 2.06 लाख करोड़ किया गया है. उर्वरक सहायता की राशि को 1.40 लाख करोड़ से घटाकर 2022-23 के लिए 1.05 लाख करोड़ कर दिया गया है. तो प्रधानमंत्री ने जिसे गरीबों और ग्रामीणों का बजट बताया कर मीडिया की सुर्खियां बटोरी उसकी हकीकत यही है. प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने यह एलान कर दिया था की सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. इस बजट में कॉरपारेट टैक्स को 18 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक सीमित कर यह तो साफ कर दिया है कि उनकी प्रथमिकता क्या है. अर्थशास्त्री तो पूछ रहे हैं कि अमीरों की आय के मुख्य श्रोत दीर्घावधि पूंजीगति लाभ पर टैक्स में 16% की कमी का लाभ आखिर किसे हाने जा रहा है. इंफ्रास्ट्रक्चर और डिजीटलाइजेशन के इतने सारे प्रोजेक्ट और किसे मिलेंगे ? मुनाफा किसका होगा ? दरअसल, डिजिटल सपनों का यह बजट जिस तरह की शिक्षा और स्वास्थ्य की परिकल्पना प्रस्तुत करता है वह भारत की वर्तमान सच्चाइयों को संबोधित नहीं कर पा रहा है. बेरोजगारी दूर करने के लिए कभी मोदी सरकार हर साल दो करोड़ रोजगार देने की बात करती थी. अब वित्त मंत्री 60 लाख रोजगार की बात कर रही हैं लेकिन वह भी कब देगी इसका एलान नहीं है. क्या इसके लिए भी 25 साल का समय लगाया जाएगा. भारतीय दर्शन के एक प्रमुख धारा की तरह यह बजट भी वर्तमान के बजाय भविष्य पर टिका है. यानी वर्तमान को माया बता कर भविष्य के स्वर्ग की परिकल्पना प्रस्तुत कर रहा है. यानी अमृत काल का बजट. 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