Deepak Ambastha
अफगानिस्तान में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. अगस्त माह के अंत तक अमेरिका अपने साथी देशों की सेना के साथ अफगानिस्तान छोड़ देगा. अमेरिकी वापसी की तारीख जैसे पास आ रही है अफगानिस्तान में चीन और पाकिस्तान का खेल खुलकर सामने आ रहा है. चीन की अफगानिस्तान नीति आरंभ से होशियारी भरी रही है. उसने तालिबान और अफगानिस्तान सरकार दोनों से संबंध रखे. पाकिस्तान हमेशा से तालिबान के पक्ष में झुका रहा. इन दोनों से अलग राह अफगानिस्तान में भारत की रही है. भारत वहां की सरकार के साथ खड़ा रहा है और तालिबान से दूरी बनाये रखी है, ठीक अमेरिका की तरह. लेकिन अफगानिस्तान में जैसे-जैसे तालिबान मजबूत हो रहा है, भारत की चिंता बढ़ रही है.
भारत ने बहुत देर से तालिबानियों से संपर्क साधा है, पर इसकी सफलता अभी दूर की बात है, क्योंकि इस राह में चीन और पाकिस्तान का रोड़ा है, जो हर हाल में भारत को अफगानिस्तान से दूर रखने की रणनीति पर मिलकर काम कर रहे हैं. फिर तालिबान भी भारत की तुलना में चीन पाकिस्तान को अधिक तवज्जो दे रहा है.
भारत जिस रास्ते पर अफगानिस्तान को देखना चाहता है, वह न तो तालिबान और न ही चीन पाकिस्तान को रास आती है. भारत की सोच को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के उस बयान से बल मिलता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 1990 की तुलना में तालिबान अधिक दमनकारी और क्रूर हो गया है. हाल में निहत्थे कमांडो जवानों की निर्मम हत्या हो, भारतीय फोटोग्राफर की हत्या हो या महिलाओं और बच्चों के खिलाफ उसका फरमान हो, सब के सब तालिबानी क्रूरता के उदाहरण हैं. अशरफ गनी का यह कहना कि तालिबान शांति नहीं, सत्ता चाहता है. जबकि अफगानिस्तान की सरकार शांति और देश का विकास चाहती है. गनी का यह कहना महत्वपूर्ण है कि तालिबान आदिम और क्रूर शासन चाहता है. भारत एक लोकतांत्रिक और शांतिप्रिय देश है. उसकी आस्था लोकतांत्रिक मूल्यों में है, तो स्वाभाविक है कि वह तालिबान का समर्थन नहीं कर सकता है, भारत की मजबूरी चीन-पाकिस्तान की अफगानिस्तान में ताकत बन रही है.
भारत के पड़ोस में अगर आतंक और नृशंसता का प्रतीक शासन हो, तो उसकी आंच से भारत अछूता रह नहीं सकता. अफगानिस्तान भारत की दुखती रग बन चुका है और स्पष्ट है कि चीन और पाकिस्तान इस रास्ते से भारत को परेशान करने का कोई अवसर चूकने वाले नहीं हैं. अमेरिका और उसके साथी देश लाख आश्वासन दें, पर इससे भारत की चिंता कम नहीं होती है. न ही देश के भीतर बाहर के खतरे कम होते हैं.
यूरोपीय संघ का ताजा बयान कि अगर अफगानिस्तान में तालिबान का शासन लौट आता है, तो वह कभी उसे मान्यता नहीं देगा. यह भारत को फौरी राहत तो दे सकता है, लेकिन उसके खतरों को कम नहीं कर सकता. चीन के छद्म बयान भारत की चिंता बढ़ा रहे हैं. चीन का यह कहना कि उसकी सीमा पर तालिबान का खतरा बढ़ रहा है और उसने अपनी सेना को संघर्ष के लिए तैयार रहने को कहा है. भारत को सीमा पर कमजोर करने के लिए तालिबान चीन-पाकिस्तान का स्वाभाविक हथियार है. चिंता इस बात की है कि भारत बैकफुट पर है, आशंका तो यह भी है कि क्या वह हारी हुई लड़ाई तो नहीं लड़ रहा है?
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