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क्या प्रधानमंत्री 2024 को लेकर इतने चिंतित हैं ?

Shravan Garg गुरु नानक देव साहब के ‘प्रकाश पर्व’ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश का सार यही है कि उन्होंने कहीं से यह स्वीकार नहीं किया कि कृषि कानूनों में किसी प्रकार की त्रुटि अथवा किसानों का अहित निहित है/था. उनके कहे को इस प्रकार से समझा जा सकता है:’ देश के कोने-कोने में कोटि-कोटि किसानों ने, अनेक किसान संगठनों ने इसका स्वागत किया. भले ही किसानों का एक वर्ग इसका विरोध कर रहा था, लेकिन ये फिर भी हमारे लिए महत्वपूर्ण था. शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी जिसके कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य खुद किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए.’ इसे प्रधानमंत्री की विशेषज्ञता समझा जाना चाहिए कि वे सरकार की पराजय में भी अपने लिए जीत की गुंजाइश तलाश लेते हैं. चूंकि प्रधानमंत्री टीवी चैनलों के मार्फ़त देश की जनता से बात कर रहे थे, किसी पत्रकार वार्ता के ज़रिए नहीं, इसलिए उनसे पूछा नहीं जा सकता था कि जब कृषि क़ानूनों का सत्य ‘दीये के प्रकाश’ जैसा है और देशभर के किसानों ने उसका स्वागत भी किया है तो फिर किस भय अथवा बाध्यता के चलते इतनी हड़बड़ी में उन्हें वापस लेना पड़ रहा है? प्रधानमंत्री की पिछले साढ़े सात साल के कार्यकाल की इसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है कि उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अपने प्रति समर्पित नागरिकों की कमजोर नसों पर से अपना हाथ कभी हटने नहीं दिया. वे चाहे तो राष्ट्र को त्रासदायी नोटबंदी के लिए सम्बोधित करें, कोरोना के हाहाकार के बीच प्राणलेवा लॉकडाउन लगा दें या कोई सात सौ किसानों की जान लेने वाले कृषि क़ानूनों की वापसी की घोषणा करें, एक मंजे हुए चरित्र अभिनेता की तरह वे टीवी स्क्रीन पर अत्यंत भावपूर्ण दृश्य उपस्थित कर देते हैं. उनके कहे का असर भी होता है. उनका कहा एक-एक शब्द अभी तक तो वोटों में तब्दील भी होता रहा है. निश्चित ही इस समय उनकी चिंता आगे के वोटों को लेकर है. गौर किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने कृषि क़ानूनों को वापस लेने का दिन और समय भी सोच-समझ कर चुना. नोटबंदी और लॉकडाउन की घोषणाएं शाम के बाद की गईं और विवादास्पद क़ानूनों को वापस लेने का ऐलान सुबह के वक्त. आंदोलनकारी किसानों को जैसे नींद से चौंकाकर खड़ा कर दिया गया हो. किसान अभी एकमत से तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनका आगे का कदम क्या होना चाहिए! राहुल गांधी उनकी मदद के लिए आगे आए हैं-यह समझाने के लिए कि उन्हें अपना आंदोलन क्यों जारी रखना चाहिए. किसान जब लड़ रहे थे तो उनकी फसलें बर्बाद हो रहीं थीं. अब वे अगर अपनी लड़ाई बंद कर देते हैं तो विपक्षी दलों की फसलें तबाह हो जाएँगी जिन्हें वे फ़रवरी-मार्च में चुनावों के दौरान काटना चाहते हैं. सवाल यह है कि प्रधानमंत्री के कहे पर किसान कितना यक़ीन करना चाहेंगे? तीनों क़ानूनों को विपक्ष और संसदीय लोकतंत्र का निरादर करते हुए जिस ताबड़तोड़ तरीक़े से पारित करवाया गया और भरे कोरोना काल में जनता और किसानों ने जिस व्यथा और अराजकता का सामना किया क्या वह सब ‘घरों को वापस लौटने ‘ की एक भावुक अपील से तिरोहित हो जाएगा? किसान समझते हैं कि सरकार इस समय उनकी माँगों से ज़्यादा स्वयं के भविष्य को लेकर डरी हुई है. पहले पश्चिम बंगाल और फिर हाल के उपचुनावों के नतीजों ने उसकी नींद उड़ा रखी है. सत्तारूढ़ पार्टी को भय है कि किसान आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में भारी नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है. विधानसभाओं का नुक़सान 2024 में उसकी संसद की सीटों पर भी डाका डाल सकता है. सरकार ने संसद में विपक्ष की कमजोर उपस्थिति को किसानों और जनता की भी कमजोरी मान लिया था. उसे अब पहली बार लग रहा है कि इस समय असली विपक्ष राजनीतिक दल नहीं बल्कि जनता है जैसी कि स्थिति 1975 में आपातकाल के दौरान बनी थी. सरकारें जब सत्ता की बंधक हो जाती हैं तो जनता को भी बंधुआ मज़दूर मानने लगती है. इंदिरा गांधी ने यही किया था. वे सत्ता के खो जाने की संभावना से डर गईं थीं. हरेक तानाशाह के साथ ऐसा ही होता है. डोनाल्ड ट्रम्प साल भर बाद भी हार के सदमे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. तो क्या प्रधानमंत्री को इस समय 2024 का डर सता रहा है? प्रधानमंत्री की आकस्मिक घोषणा का एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने भाजपा के लिए अति महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों के ठीक पहले अभी तक सत्ता प्रतिष्ठान के बंद कमरों में ही क़ैद भय को एक खुले घाव की तरह सार्वजनिक कर दिया है. केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहित उनके तमाम सिपहसालार जिस तरह की कठोर मुद्राएं अपनाए हुए क़ानूनों का बहादुरी से बचाव कर रहे थे वे सब प्रधानमंत्री के अप्रत्याशित संदेश के बाद निराशा में डूब गए होंगे. पूरी पार्टी ही अगर हतोत्साहित महसूस कर रही हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं. पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि नोटबंदी, लॉकडाउन, महामारी के दौरान इंजेक्शनों, ऑक्सीजन तथा बिस्तरों की कमी और अकाल मौतों में भी अडिग रहने वाले प्रधानमंत्री अचानक से इतने कमजोर कैसे पड़ गए! कल्पना की जा सकती है कि पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के शुभारम्भ के अवसर पर प्रधानमंत्री की कार की बग़ल में ही पैदल चलने वाले योगी आदित्यनाथ अब मोदी को सत्ता में वापस लाने के लिए चुनावी-संघर्ष कितने साहस के साथ कर पाएंगे! उस संघर्ष का जिसके लिए अमित शाह ने घोषणा की है कि मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए योगी को सत्ता में लाना ज़रूरी है. प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में जिस नई शुरुआत की बात कही है (‘’आइए,एक नई शुरुआत करते हैं.नए सिरे से आगे बढ़ते हैं’’) उसे परखने के लिए सिर्फ़ दो बातों पर नज़र रखना ज़रूरी होगा. पहली तो यह कि ‘आंदोलनजीवी’ किसान अगर विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने तक अपने घरों को लौटने से इनकार कर देते हैं (जैसा कि एम एस पी को लेकर की जा रही मांग से लगता है) तो उस स्थिति से निपटने का सरकार का तरीक़ा कितना प्रजातांत्रिक होगा! दूसरी यह कि उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में सत्तारूढ़ दल के लिए विपरीत चुनाव परिणाम प्राप्त होने की स्थिति में सरकार लोकतंत्र के हित में किस तरह के फ़ैसले लेगी! अतः यह मान लेने में अभी जल्दबाज़ी नहीं करना चाहिए कि किसानों की मांगों के प्रति सरकार के मन में सम्मान अंतरात्मा से जागृत हुआ है. प्रधानमंत्री के लिए तालियां बजाने के लिए अभी किसी उचित क्षण का इंतज़ार करना चाहिए. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. 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