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लखनऊ किसान महापंचायत भाजपा के लिए खतरे की घंटी तो नहीं ?

Faisal Anurag किसान हैं कि मानने को तैयार नहीं हैं. प्रधानमंत्री को लिखे पत्र और लखनऊ जुटान से स्पष्ट कर दिया है कि राजनीतिक बदलाव की बयार तेज हैं. किसान नेता राकेश टिकैत ने साफ शब्दों में कहा है कि किसान के साथ अन्य लोग भी राजनीतिक बदलाव चाहते हैं. दरअसल कृषि कानूनों को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं के दावे के बाद किसानों को लगने लगा है कृषि कानूनों की वापसी केवल राजनैतिक एजेंडा भर है. कृषि संकट और किसानों की तबाही पर केंद्र का रूख न केवल उलझाव का शिकार है बल्कि प्रधानमंत्री ने भी तो कहा ही है कि कृषि कानूनों को एक बड़े मकसद के साथ अमली जामा पहनाया गया था लेकिन वे कुछ किसानों को यह समझाने में सफल नहीं हो पाए. लखनऊ महापंचायत की जुटान ने उत्तर प्रदेश में भाजपा खेमे की परेशानी बढ़ा दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाने वाले राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने साफ कहा है कि कृषि कानूनों की वापसी होगी. भाजपा नेता साक्षी महराज सहित अनेक नेताओं ने भी इसी आशय का बयान दिया है.कृषि कानूनों की वापसी का मामला ``चुनावजीवी`` राजनीति में फंस गया है. हालांकि संसद के शीतकालीन सत्र में इसकी वापसी करने की बात कही गयी है. प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में संयुक्त किसान संघर्ष मोर्चा ने छह सूत्री उन मांगों को भी तुरंत पूरा करने की मांग की है जो आंदोलन के केंद्रीय पहलू हैं : एमएसपी को लेकर क़ानूनी गारंटी दी जाए, बिजली संशोधन विधेयक को वापस लिया जाए,पराली जलाने पर जुर्माने के प्रावधानों को ख़त्म किया जाए, आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज हुए मुक़दमों को वापस लिया जाए, लखीमपुर खीरी जनसंहार के आरोपी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया जाए और आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों को मुआवजा दिया जाए और सिंघु बॉर्डर पर उनकी याद में स्मारक बनाने के लिए ज़मीन दी जाए. लखनऊ जुटान में इसका एलान भी किया गया. किसान नेताओं ने साफ कहा है कि जब तक इन मांगों को पूरा नहीं किया जाएगा किसानों का आंदोलन और तेज होगा. किसानों की राजनैतिक समझ से सरकार में बैठे लोग हैरान हैं. भारत की राजनीति का यह एक मील का पत्थर आंदोलन है जिसने समझौता के बजाय सत्याग्रह से मकसद हासिल करने की दृढ़ता दिखायी है. जनवरी तक हुए 15 दौर की बातचीत में भी इन मुद्दों पर चर्चा हुयी थी. केंद्रीय मंत्रियों ने भी बिजली बिल की वापसी का आश्वासन दिया था, लेकिन 10 महीने बीत जाने के बावजूद केंद्र सरकार ने इस दिशा में कदम उठाने के बजाया पिछले संसद के सत्र में बिल को पेश करने का प्रयास किया था. किसानों का राजनैतिक भरोसा प्रधानमंत्री या उनकी सरकार से नहीं बन पा रहा है तो ये सब बड़े कारण हैं. लखिमपुरखीरी में हुए जीप हत्यंकांड में मंत्री टेनी का बेटा गिरफ्तार है. जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपने असंतोष का इजहार कर चुका है. प्रधानमंत्री के यूपी के जनसभाओं में अजय टेनी प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करते हैं. ऐसे में न्याय की उम्मीद का कमजोर होना लाजिमी हैं. जिस तरह किसानों को सबक सिखाने के लिए जीप से कुचल कर किसानों को मारा गया, उस पर अफसोस जताने के बजाय टेनी का मंत्री मंडल में बने रहना ही किसानों की नाराजगी को बढ़ाने वाला बड़ा कारक है. फिर किसान कैसे भरोसा करें कि उनकी मांगों के प्रति सरकार संवेदनशीलता के साथ विचार करेगी. किसान आंदोलन को नजरअंदाज करने की भाजपा की प्रवृति का ही असर है कि किसान अब सत्ता बदलाव की बात करने लगे हैं. इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि एमएसपी को लेकर सरकार गोलमटोल बात करती रही है. एमएसपी के साथ ही जिस तरह जीरो बजट खेती की बात की जा रही है. उसके राजनैतिक नुकसान का आकलन करने में भाजपा विफल रही है.कृषि वैज्ञानिक डा. देवेंद्र शमा्र ने इस बीच एक बड़ा सवाल उठाया है : कानून को वापस लेने का मतलब पहले जहां थे वहीं वापस लौटना है. यानी, खेती का संकट बरकरार है. अब सवाल है कि किसानों को संकट में कैसे निकाला जाए? इसका समाधान गारंटीड इनकम और मिनिमम सपोर्ट प्राइस (MSP) है. अगर MSP के लिए कानून बना दिया जाए और सभी 23 फसलों पर अनिवार्य हो जाए कि MSP से नीचे खरीद नहीं होगी तो किसान खेती के संकट से बाहर निकल आएंगे. 2022 तक किसानों की आय दुगाना करने की बात करने वाली मोदी सरकार अभी तक एमएसपी को लेकर स्पष्टता नहीं दिखा पायी है. कृषि पर कारपारेट हितों का सवाल ही है जिसके कारण सुधारों की तीव्रता की वकालत करने वाली केंद्र सरकार कानून बनाने को लेकर प्रतिबद्धता नहीं जाता पा रही है. डा. शर्मा ने यह भी कहा है कि मोदी सरकार जिन कृषि क्षेत्र में मार्केट रिफॉर्म्स को लाने की कोशिश कर रही थी वह पूरी दुनिया में फेल हो चुके हैं. अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा सभी जगह किसानों की दुर्दशा है. अमेरिका में किसानों के ऊपर 425 अरब डॉलर का कर्ज है. वहां शहरों की तुलना में गांवों में सुसाइड रेट 45 प्रतिशत ज्यादा है. वहां किसानों के पास जमीन की कोई कमी नहीं है, लेकिन फिर भी खेती संकट से गुजर रही है. किसान आंदोलन ने संसद मार्च का भी एलान किया है. भाजपा के लिए 2022 के विधानसभा चुनाव की राह किसानों ने पेंचीदा बना दिया है. [wpse_comments_template]    

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