सरकारों के झूठ के खिलाफ खड़ा होना आसान नहीं है मी लार्ड !

Faisal anurag झूठ के खिलाफ सच बोलने और उजागर करने के लिए राजनैतिक माहौल कितना मुश्किल है,यह तो भारतीय जेलों में बंद सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं के हालात ही बयान कर देते हैं. राजधानी दिल्ली का तिहाड़ जेल इसका एक बड़ा उदाहरण है. दिल्ली दंगों के नाम पर जिन सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बंद किया गया है उनमें से तीन को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्प्णी को याद किया जाना चाहिए. जमानत देते हुए अदालत ने सच बोलने की कीमत चुकाने के हालात पर गंभीर टिप्पणी की थी. कोर्ट ने कहा था `` हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा लगता है कि असंतोष को दबाने की चिंता में और इस डर से कि मामला हाथ से निकल सकता है, सरकार ने संवैधानिक रूप से मिले ‘विरोध का अधिकार’ और ‘आतंकवादी गतिविधि’ के बीच अंतर की रेखा को धुंधला कर दिया. ऐसा करने दिया जाता है तो इससे लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.`` उत्तर प्रदेश में सरकार के झूठ का पर्दाफाश करने वालों की क्या स्थिति है यह कोई रहस्य सुलझाने जैसा कठिन नहीं है.. पत्रकार कप्पन सिद्दीकी जो हाथरस की दलित लड़की की हत्या का सच जानने—उजागर करने के इरादे से गए थे लंबे समय से जेल में बंद हैं. भीमा कोरेगांव के बंदियों के सच को लेकर पेगासस के उजागर होने के बाद काफी चर्चा की जा चुकी है. ये वे चंद उदाहरण हैं जो भारत में लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों को लेकर गंभीर सवाल उठाते हैं. सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने नागरिकों से सरकार के झूठ के खिलाफ सच का साथ देने का आह्वान जरूर किया हे. लेकिन इसके साथ तो यह सवाल भी उठता है कि उनके कानूनी अधिकारों ओर सुरक्षा की गारंटी कैसे होगी. मुख्य न्यायधीश बनने के बाद उसे ही जस्टिस रमन्ना लगातार इस तरह के सवाल उठाते रहे हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ के तीखे सवालों और टिप्पणियों ने तो नागरिक अधिकार और लोकतंत्र को लेकर आश्वस्त करने के कई बार प्रयास किए. विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया सब मिल कर ही अच्छे लोकतंत्र और समावेशी समाज की गारंटी कर सकते हैं. भारत में यह चुनौती कितनी पेचीदा है इसे तो डेमोक्रेसी के वैश्विक सूचकांक(2020) के आईने में ही परखा जा सकता है. इस सूचनांक के अनुसार भारत ``Flawed Democracy`` यानी `दोषपूर्ण लोकतंत्र` की श्रेणी में पहुंच गया है. भारत विश्व के `श्रेष्ठ लोकतंत्र` की श्रेणी में कभी नहीं था. लेकिन इतनी बुरी स्थिति पहले नहीं रही. ``Flawed Democracy`` की श्रेणी में भारत कब तक रहेगा या और नीचे जाएगा यह तो समय ही साबित करेगा. अदालतों का भरोसा किसी भी नागरिक समाज के लोकतांत्रिक व्यवहार की गारंटी करता है. ``लाइव लॉ`` के अनुसार जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अधिनायकवादी (तानाशाही) सरकारें अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए लगातार झूठ पर निर्भर रहती हैं. शनिवार को छठे एमसी छागला स्मृति व्याख्यान में लॉ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रों एवं संकाय सदस्यों और न्यायाधीशों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि सत्य तय करने की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ``यहां तक कि वैज्ञानिकों, सांख्यिकीविदों, अनुसंधानकर्ताओं और अर्थशास्त्रियों जैसे विशेषज्ञों की राय हमेशा सच नहीं हो सकती, क्योंकि हो सकता है कि उनकी कोई राजनीतिक संबद्धता नहीं हो, लेकिन उनके दावे, वैचारिक लगाव, वित्तीय सहायता की प्राप्ति या व्यक्तिगत द्वेष के कारण प्रभावित हो सकते हैं.`` न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि लोकतंत्र में कोई राष्ट्र राजनीतिक कारणों से झूठ में लिप्त नहीं होगा. वियतनाम युद्ध में अमेरिका की भूमिका ‘पेंटागन पेपर्स’ के प्रकाशित होने तक सामने नहीं आई थी. कोरोना वायरस के संदर्भ में भी हमने देखा है कि दुनिया भर में देशों द्वारा संक्रमण दर और मौतों के आंकड़ों में हेरफेर करने की कोशिश की प्रवृत्ति सामने आई है. सत्ता के लिए सच बोलना हर नागरिक का अधिकार माना जा सकता है लेकिन लोकतंत्र में यह हर नागरिक का कर्तव्य है. कोरानो के आकड़ों को लेकर भारत भी संदेह के घेरे में हैं. दरअसल अदलतों और न्यायधीशों को यह समझना चाहिए कि भारत के राजनैतिक हालात सरकार की नीतियों के विरोध में खड़े किसी भी समूह और व्यक्ति के लिए कितना मुश्किल हो गया है. करनाल में किसानों पर जिस बर्बरता और बेरहमी का प्रदर्शन किया गया उसकी ताकत कहां से मिलती है इसे भी समझने की जरूरत है. बर्बर लाठी चार्ज ठीक उसी समय हुआ जिस समय प्रधानमंत्री जलियानवाला बाग के शहीदों के स्मारक समाकर के नवीनीकरण का उद्घाटन कर रहे थे. ये वहीं किसान हैं जिनके पूर्वजों ने जालियानवाला बाग में शहादत दी थी. भारत की मीडिया इस बर्बरता पर खामोशी का चादर ओढ़ कर किसका साथ देती है यह भी तो सर्वविदित हैं. इस तथ्य को भी याद रखा जाना चाहिए कि ``पोस्ट ट्रुथ`` के इस दौर में झूठ को किस तरह सत्योत्तर सत्य बना कर पेश किया जा रहा है. पोस्ट ट्रुथ फेनोमिना उन्हीं शासकों ने खड़ा किया है जिनके लिए झूठ लोकतंत्र के विस्तार को रोकने का साधन बन गया है. [wpse_comments_template]
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