यूं ही नहीं है भाजपा की पेशानियों पर बल

Shyam Kishore Choubey इधर मणिपुर जल रहा है, उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 6 दिनों तक अमेरिका और मिस्र में राजनय करते रहे. 25 जून को वे मिस्र पहुंचे तो काहिरा की हजार साल पुरानी अल-हाकिम मस्जिद जाना न भूले. उसके पहले अगस्त 2015 में वे यूएई की शेख जायद मस्जिद, फरवरी 2018 में ओमान की सुल्तान कबूस मस्जिद, मई 2018 में इंडोनेशिया की इस्तिकलाल मस्जिद और जून 2018 में सिंगापुर की चूलिया मस्जिद गये थे, जबकि किसी भारतीय मस्जिद में जाने का उनका कोई इतिहास नहीं है. बाहर से तीर चलाने में उनका कोई सानी नहीं. इस बीच 23 जून को 15 विपक्षी दलों का पटना में पहली बार महाजुटान हुआ. नीतीश-तेजस्वी राज्यों में घूम-घूमकर जब इस जुटान के लिए आमंत्रण दे रहे थे, तब कतई भरोसा नहीं था कि वे कोई करिश्मा कर सकते हैं. भाजपा संभवतः यही सोचती रही कि अधिक से अधिक केकड़ा न्याय होगा. लेकिन अपने-अपने राज्य में आपसी टकराव के बावजूद ये दल पहली बार एक मंच पर जुटे और हंसी-खुशी और उम्मीद के वातावरण में लिट्टी-चोखा, मालदह खाकर अगली जुटान के लिए विदा हुए. जो लोग जुटे, वे थे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल, पंजाब के सीएम भगवंत मान, सपा के अखिलेश यादव, सीपीआई के डी राजा, माले के दीपांकर भट्टाचार्य, सीपीएम के सीताराम येचुरी, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती, नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी, एनसीपी के शरद पवार और सुप्रिया सुले, शिवसेना (यूबीटी) के उद्धव ठाकरे और झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन. इनके साथ और भी लोग आए. मेजबान थे बिहार के सीएम नीतीश कुमार और जदयू अध्यक्ष ललन सिंह तथा राजद के तेजस्वी यादव और लालू यादव. ये सारे नाम उन नेताओें के हैं, जो अपने-अपने दल के प्रमुख हैं. किसी ने भी अपने स्थान पर प्रतिनिधि को नहीं भेजा. इस जुटान की पहली सबसे बड़ी यही सफलता थी. ये दल एक सामान्य मकसद से जुटे थे और वह था आगामी लोकसभा चुनाव में ऐसी व्यवस्था बनाना ताकि एनडीए प्रत्याशी के सामने इन दलों में से किसी एक का ही उम्मीदवार हो. यानी समान विचारधारा के वोटों का बंटवारा न हो. भाजपा खेमे से इस जुटान के लिए जो पहली प्रतिक्रिया आई, वह थी सभी भ्रष्टाचारी हैं. यह सच है कि इनमें से कई से या उनके करीबियों से आईटी, सीबीआई या ईडी ने या तो पूछताछ की है या रेड मारी है. ऐसी पूछताछ या रेड अब एक तरह से रोजमर्रा का विषय हो गई है. ये नेता ऐसे जुटे, जैसे लगा अब उनके मन से इन एजेंसियों का डर खत्म हो गया है. इस बैठक के बाद दिन-दो दिन तक भाजपा 1974 की इमर्जेंसी की याद दिलाती रही. यह सच है कि वह खौफनाक दौर था. उस समय जनसंघ सहित तमाम विपक्षी दलों ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी को हराया था. 23 जून की पटना बैठक भी कुछ उसी प्रकार की थी. अद्भुत साम्य है, इमर्जेंसी के विरुद्ध राजनीतिक डंका पटना में ही बजा था और इस बार बकौल विपक्षी दल अघोषित इमर्जेंसी के विरुद्ध भी पहला जुटान पटना में ही हुआ. आखिर कुछ तो बात है, जो इस बैठक में जुटे कतिपय नेता इमर्जेंसी का शिकार बनने के बावजूद कांग्रेस की संगति करने को तत्पर दिखे. कोई तो बात है, जो राजनीतिक शुद्धीकरण के मौजूदा दौर में कमल छाप गमछा धारण करनेवालों के यहां भूल से भी छापे नहीं पड़ते. अब इंदिरा गांधी नहीं हैं, नरेंद्र मोदी हैं. इस बैठक पर भाजपा प्रमुख जेपी नड्डा ने कहा, ताज्जुब है, जिन नेताओं को इमर्जेंसी में जेल में डाल दिया गया था, वे भी कांग्रेस के साथ बैठक कर रहे हैं. उसी दिन जम्मू में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस बैठक को फोटो ऑपरच्युनिटी की संज्ञा देते हुए सवाल किया, जिस यूपीए ने दस साल के शासन में 19 लाख करोड़ के घोटाले किये, उनके साथ जुट कर ये लोग क्या संदेश देना चाह रहे हैं? सवाल तो बनता है कि नौ साल के शासन में मोदी-शाह ने 19 लाख करोड़ के घोटालेबाजों में किसको सजा दिलायी? नहीं दिला पाये तो यह उनकी या तो नाकामी है या घोटाले हुए ही नहीं थे. कहने की बात नहीं कि 27 जून को भोपाल में अनेक राज्यों से जुटाये गये अपने कार्यकर्ताओं के समक्ष मोदी ने भी ‘यूपीए घोटालों’ को भी उछाला. भाजपा से पहले हिमाचल, फिर कर्नाटक छिन जाने के बाद प्रमुख विपक्षी दलों का एक मंच पर आना ऐसी घटना है, जिससे भाजपा की पेशानी पर बल दिख रहे हैं. मोदी-शाह ने 2014 में ऐसी ही व्यूह रचना की थी. इसलिए विपक्षियों के एकजुट होने का मतलब वे खूब समझते हैं. दिल्ली सरकार को अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिये जाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अध्यादेश की मार्फत केंद्र सरकार द्वारा पलट दिये जाने के मसले पर कांग्रेस से कोई जवाब नहीं मिलने से ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल की नाराजगी पटना बैठक का एकमात्र हल्का पक्ष है. ‘आप’ ने दस साल की ही राजनीति में दो राज्यों की न केवल सत्ता हासिल कर ली, अपितु राष्ट्रीय दल का तमगा भी पा लिया. लेकिन, राष्ट्रीय राजनीति को साधने का कौशल भी दिखाना होगा अन्यथा ‘आप’ अकेली पड़ जाएगी. उसे याद रखना चाहिए कि जिस दिल्ली ने राज्य की सत्ता के लिए उसको सिर-माथे पर बिठाते हुए उम्मीद से कहीं ज्यादा बहुमत दिया, उसी दिल्ली ने लोकसभा चुनाव में अपनी सात सीटों में से एक पर भी फटकने न दिया था. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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