Faisal Anurag
श्मशान,कब्रिस्तान, अब्बाजान के साथ अब उत्तर प्रदेश में चुनावी फसल के लिए मोहम्मद अली जिन्ना भी मैदान में उतार दिए गए हैं. समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी अलग-अलग तरीके से जिन्ना के नाम का इस्तेमाल जोरशोर से कर रही है. भारतीय राजनीति में जिन्ना की प्रेतछाया लालकृष्ण आडवाणी का ताज और जसवंत सिंह की राजनीति के अवसान का कारण बन चुका है.
हरदोई में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिन्ना का उल्लेख आजादी के संघर्ष के संदर्भ में किया. उन्होंने यह भी कहा था कि सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना ने एक ही संस्था से बैरिस्टरी किया. वे बैरिस्टर हुए और आजादी की लड़ाई में शामिल हुए. अखिलेश यादव के इतना कहते ही आदित्यनाथ ने इसे तालिबानी बयान बता दिया. यहां तक आदित्यनाथ और भाजपा के अन्य नेता अब जिन्नी की चर्चा अपने भाषणों में करने लगे हैं. बसपा ने भी अखिलेश यादव पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगा दिया है. क्या अखिलेश ने जिन्ना की चर्चा कर के चुनावों में आत्मघाती गोल कर लिया है या संकटग्रस्त भाजपा को प्रचार और ध्रुवीकरण का हथियार थमा दिया है. उत्तर प्रदेश में भाजपा विपक्ष के किसी नेता की गलती या ऐसी ही बातों का इंतजार ही कर रही थी. यहां तक ओवैसी ने भी अखिलेश यादव की तीखी आलोचना किया है. तालिबानी मानिसकता का आदित्यनाथ उल्लेख कर रहे हैं. इसके साथ ही अस्मिता का हवाला भी दे रहे हैं. उन्होंने मजहबी जुनून का हवाला ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज की है.
एक राज्य के चुनाव में पाकिस्तान के कायदे आजम की चर्चा बताती है कि राजनीतिक दलों के पास कोई सकारात्मक एजेंडा नहीं है. भाजपा पांच सालों के अपने शासन से नाराज लोगों को इसी बहाने फिर से गोलबंद करने का हथियार जिन्ना को मान रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ की यात्रा के साथ ही उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के बहुसंख्यक वोटरों को संदेश दिया है. यही नहीं गोवा और मणिपुर के क्रिश्चियन मतदाताओं को रिझाने का संदेश रोम में पोप से गले मिल कर दिया है.
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड वे राज्य हैं, जिनकी जमीनी खबरों से भाजपा को अपनी जीत प्रभावित होती दिखने लगी है. इस संदर्भ में भाजपा बैठक में अमित शाह के भाषण को भी समझा जा सकता है. जिसमें उन्होंने कहा कि 2024 में नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए जरूरी है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव जीता जाए. भाजपा जानती है कि पंजाब में उसे ज्यादा कुछ हासिल नहीं होने जा रहा है. उसकी उम्मीद कैप्टन अमरेंद्र सिंह की कामयाबी और अपील पर आकर टिक गयी है. कांग्रेस से अलग होने के बाद अमरेंद्र सिंह की उम्मीद भी प्रधानमंत्री मोदी ही हैं. कैप्टन चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार तीनों कृषि कानूनों के संदर्भ में ऐसा फैसला चुनावों के पहले ले ताकि किसानों से की नाराजगी दूर किया जा सके.
उपचुनावों में किसान आंदोलन के इलाके राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भाजपा न केवल हारी नहीं बल्कि तीन सीटों पर जमानत भी नहीं बचा सकी. किसान आंदोलन का असर तो बंगाल चुनाव के समय भी देखा गया था. लेकिन उसकी चर्चा नहीं हुई थी. हिमाचल प्रदेश के सेब उत्पादन करने वाले किसान बेहद परेशान है. उत्तर प्रदेश में भी जिस तरह किसान आंदोलन की ताकत बढ़ रही है, उससे भी भाजपा बेहद परेशान है. हरियाणा में किसान आंदोलन को जाट आंदोलन बताकर उसके खिलाफ अन्य जातियों को गोलबंद करने का प्रयोग हो रहा है.
लेकिन किसानों के आंदोलन में केवल जाट ही शामिल नहीं हैं. किसान आंदोलन के दौरान जिन 600 किसानों की मौत हुई है, वे सभी 3 एकड़ से कम के जातदार हैं. इससे भी जाहिर होता है कि किसान आंदोलन न तो एक जाति तक सीमित है और न ही बड़े किसानों का ही आंदोलन है. भाजपा की बेचेनी का यही बड़ा कारण है. जिन्ना का प्रसंग इस संकट से भाजपा को कितना उबार सकेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उपचुनावों में ध्रुवीकरण ने काम नहीं किया है. ध्रुवीकरण का बैताल चुनावी डाल पर बैठने से बाज नहीं आता.