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जेपी, संपूर्ण क्रांति और 5 जून : बहुत खास है यह तारीख

Sri Nivas

अन्य कारणों के अलावा- हम जैसों के लिए इसलिए खास है कि आज से 51 वर्ष पहले, 1974 को इसी दिन बिहार (अविभाजित) के विद्यार्थियों की चंद मांगों को लेकर 18 मार्च को शुरू हुए आक्रोश जनित आंदोलन ने एक व्यापक गंभीर, समाज परिवर्तन के आंदोलन का रूप लिया था. उसी दिन पटना के गांधी मैदान में आजादी के आंदोलन के एक वृद्ध हो चले नायक ने उसे ‘संपूर्ण क्रांति’ का आंदोलन करार दिया. तब वह महज विधानसभा भंग करने की मांग और सरकार बदलने  का नहीं, समाज और व्यवस्था बदलने का आंदोलन बन गया. उसी  दिन जयप्रकाश नारायण (जेपी) को ‘लोकनायक’ की उपाधि मिली थी, फिर उन्होंने एक जनवरी 1975 को छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी नामक संगठन बनाने की घोषणा की, जिसका लक्ष्य ‘संपूर्ण क्रांति’ को जमीन पर उतारना था. इस तरह यह छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी की स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष भी है. तो संघर्ष वाहिनी से जुड़े रहे हम जैसे लोगों के लिए यह और भी खास मौका है. इस मौके पर जेपी द्वारा स्थापित सोखोदेवरा आश्रम (नवादा, बिहार) में तीन दिनों का ‘मित्र मिलन’ भी हो रहा है, जिसमें विभिन्न प्रांतों के वाहिनी के साथी जुटे हुए हैं!  

 

पता नहीं कितनी बार इस मौके पर लेख-संस्मरण लिख चुका हूं. अब थोड़ा संकोच भी होने लगा है, मानो एक नॉस्टेल्जिया की तरह हम अतीत के किसी कालखंड को भूल नहीं पा रहे हैं. चूंकि हम उस आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर गर्व का अनुभव करते हैं, इसलिए एक कर्मकांड की तरह उसे याद कर लेते हैं. शायद यह सच भी है. मेरे लिए तो इसलिए भी खास है कि अपने जीवन में उस आंदोलन में थोड़ा योगदान देने के अलावा मैं खास कुछ कर ही नहीं सका, जिसे इस तरह याद कर सकूं. मेरा परिचय बहुतों के लिए पत्रकार के रूप में है. मगर यदि मेरी कुछ उपलब्धि है, समाज में कुछ योगदान है, तो वह उस आंदोलन में भागीदारी ही है. इसलिए मेरी इच्छा रहती है कि मुझे एक आंदोलनकारी और समाजकर्मी के रूप में ही जाना जाये. पत्रकारिता से दूर होने के बाद भी उस आंदोलन से मिली प्रेरणा के कारण यथासंभव सामजिक गतिविधियों में शामिल रहने का प्रयास करता रहा हूं. इस खास दिवस और आंदोलन पर पहले भी लिखता रहा हूं, तो बहुत कुछ नया नहीं होगा. जो लोग पहले का मेरा लिखा पढ़ चुके हों, उनको तो दुहराव ही दिखेगा. फिर भी लिखना तो बनता है.

 

पर सच यह भी है कि ‘पांच जून’ आजाद भारत के इतिहास की भी एक खास तारीख है. बेशक संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य अधूरा है, मगर उस आंदोलन ने भारत की राजनीति को अनेक तरह से प्रभावित किया है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

 

मगर आज ‘पांच जून’ को याद करते हुए मन एक अजीब से अवसाद से घिरा हुआ है. देश-समाज का मौजूदा हाल देखते हुए शिद्दत से महसूस हो रहा है कि हम उस दायित्व को पूरा करने में विफल रहे या शायद हम उतने सक्षम ही नहीं थे. मैं खुद बीच रास्ते में ही थक गया, किनारे हो गया, इसलिए किसी और की शिकायत करने का अधिकार भी नहीं है. हालांकि अनेक साथी अनवरत लगे हुए हैं. नाम लिये बिना उन सबको सलाम!

 

मुझ जैसे हजारों या लाखों युवा तो उस आंदोलन में यूं ही कूद पड़े थे. बिना यह जाने-समझे कि इससे हासिल क्या होगा. बस तत्कालीन सरकार (प्रारंभ में सिर्फ बिहार सरकार) के अहंकार और दमनकारी रवैये पर गुस्सा था. हालांकि आठ अप्रैल को ही जेपी के आंदोलन के समर्थन में आ जाने और पटना में एक मौन जुलूस का नेतृत्व करने से यह लगने लगा था कि कुछ अच्छा ही होगा.

 

पांच जून की उस रैली, जिसे उस समय तक की पटना की सबसे बड़ी रैली माना गया था, के सिर्फ एक प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा. राजभवन से रैली की वापसी के दौरान एक विधायक फ्लैट से रैली पर गोली चली. गोली चंपारण के (जहां से मैं था) ही विधायक फुलेना राय के फ्लैट से चली थी. इत्तेफाक से तब हमारी टोली वहीं थी. आंदोलनकारियों में भारी उत्तेजना फैल गयी. सभी उस जगह जमा होने लगे. तभी एक जीप पर लगी माइक से जेपी की अपील सुनायी गयी- सब लोग चुपचाप शांति बनाये रखते हुए गांधी मैदान चले आयें.. और लोग शांत होकर लौटने लगे. यह था जेपी का असर. यदि उस समय हिंसा भड़क गयी होती, तो पता नहीं आंदोलन का स्वरूप क्या हो जाता! क्या पता उस दिन गांधी मैदान में वह सभा हो पाती भी या नहीं! सरकार को उसके दमन का एक और बहाना मिल गया होता! बहरहाल, सभा हुई.

 

गांधी मैदान में जेपी एक शिक्षक की तरह बोलते रहे. आवाज में कोई उत्तेजना नहीं. मेरे पल्ले बहुत कुछ पड़ा भी नहीं या कहें, उतने धैर्य से सुन ही नहीं सका. हम तो जैसे उस जन-समुद्र में खो गये थे. बस इतना जान गया कि यह कोई तात्कालिक या कुछ दिनों का मामला नहीं है, कि इसमें लगना है तो लंबी तैयारी के साथ लगना होगा. शायद जीवन भर.

 

जल्द ही वह आंदोलन देशव्यापी होने लगा. उसकी ताप केंद्र सरकार तक पहुंचने लगी. लेकिन इसके साथ यह भी हुआ कि समाज परिवर्तन के लक्ष्य पर सरकार बदलने का तात्कालिक उद्देश्य हावी होने लगा. पांच जून को जेपी ने गांवों से जुड़ने, जनता को जागरूक करने, संगठित करने का दायित्व हमें सौंपा था, मगर हम उस काम में ईमानदारी और गंभीरता से नहीं लग सके.

 

जेपी का वह भाषण बहुप्रचारित है, जिसमें उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष करते हुए कहा था- ‘मित्रो, आंदोलन की चार मांगें हैं- भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोजगारी का निवारण हो और कुशिक्षा में परिवर्तन हो. लेकिन समाज में आमूल परिवर्तन हुए बिना क्या भ्रष्टाचार मिट जायेगा या कम हो जायेगा?  मंहगाई और बेरोजगारी मिट जायेगी या कम हो जायेगी? शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन हो जायेगा? नहीं. यह संभव नहीं है, जब तक कि सारे समाज में एक आमूल परिवर्तन न हो. इन चार मांगों के उत्तर में समाज की सारी समस्याओं का उत्तर है. यह संपूर्ण क्रांति है मित्रो.’  फिर उन्होंने संपूर्ण क्रांति के मुख्य आयाम भी बताये- सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक, शैक्षणिक और नैतिक क्रांति. साथ में यह भी कहा कि डॉ लोहिया ने जिस सप्त क्रांति की बात कही थी, यह सम्पूर्ण क्रांति भी लगभग वही है. अब इसमें लोहिया के नर-नारी समता को जोड़ दें तो बदलाव का आयाम और स्वरूप लगभग स्पष्ट हो जाता है. जेपी यह तो कहते ही थे कि क्रांति का कोई ब्ल्यू प्रिंट नहीं होता, हर क्रांति अपना स्वरूप और तरीका खुद तय करती है. हाँ, यह निर्विवाद था और है कि जेपी की और अब हमारी कल्पना की सम्पूर्ण क्रांति शांतिमय होगी. बिहार आंदोलन के इस नारे में भी यह स्पष्ट है- हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा.

 

आंदोलन आगे बढ़ता और फैलता गया. सरकार आंदोलन को  दबाने, कमजोर करने-तोड़ने के हर संभव प्रयास करती रही. इसी क्रम में चार नवंबर 1974 को पटना में जेपी पर लाठी तक चली. सत्ता सचमुच बौरा गयी थी.

 

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आरोप लगाया कि आंदोलन अलोकतांत्रिक है, कि जेपी एक निर्वाचित विधानसभा और सरकार को भंग करने की लोकतंत्र विरोधी मांग का समर्थन कर रहे हैं. जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया, कहा- ठीक है, हम चुनाव में ही दिखायेंगे कि जनता किसके साथ है.  

 

जाहिर है, उसके वाद आंदोलन पर राजनीतिक रंग कुछ ज्यादा ही हावी हो गया. उसके बाद 12 जून ’75 को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द करने के फैसले के बाद तो देश का वातावरण ही बदल गया. निश्चय ही आंदोलन के दबाव और देश में फैलते उसके प्रभाव के कारण ही इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का ऐसा दबाव पड़ा कि उन्होंने 25 जून की रात देश में इमरजेंसी लगा दी. जेपी सहित विपक्ष के लगभग तमाम नेता गिरफ्तार हो गये. हम जैसों की गिनती ही नहीं थी. उसके बाद जो हुआ, सब इतिहास में दर्ज है. लेकिन इमरजेंसी के दौरान जेल संघर्ष वाहिनी के प्रशिक्षण केंद्र बन गये! हमारी वैचारिक समझ साफ हुई और संकल्प मजबूत हुआ.

 

बाद में हमें शिद्दत से महसूस हुआ कि यदि जेपी की इच्छा और उनके निर्देशों के अनुरूप हम गांवों से जुड़ सके होते, तो इमरजेंसी में भी वैसी दहशत और खामोशी नहीं दिखती, जो दिखी.

 

1977 में केंद्र, फिर अनेक राज्यों में सत्ता तो बदली, फिर भी बहुत कुछ नहीं बदला. कम से कम जेपी की कल्पना के अनुरूप तो नहीं ही बदला. तब से अब तक देश-दुनिया में बहुत बदलाव हो चुका है, लेकिन इसे सकारात्मक नहीं कह सकते, बल्कि आज तो देश बेहद निराशाजनक दौर से गुजर रहा है. बिना घोषणा के तानाशाही के लक्षण दिखने लगे हैं.

 

आज बहुतों को लग सकता है कि वह आंदोलन अंततः निष्प्रभावी और विफल साबित हुआ. लेकिन उस आंदोलन से निकली विभिन्न धाराओं ने भारतीय राजनीति की दशा दिशा को गहरे प्रभावित किया, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. आंदोलन से युवाओं की शक्ति स्थापित हुई. लोकतंत्र मजबूत हुआ. दोबारा इमरजेंसी लगने की आशंका लगभग निरस्त हुई. मानवाधिकार को मान्यता मिली. उस आंदोलन से निकले समूहों ने देश भर में जनता के सवालों को उठाने, उन्हें संगठित करने का काम जारी रखा. जल- जंगल-जमीन के  सवाल को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बनाया.  

 

इसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज जो राजनीतिक समूह देश की सत्ता और राजनीति पर प्रभावी है, वह भी खुद को जेपी और उस आंदोलन का वारिस होने का दावा करता है. मगर वह उस आंदोलन के मूल्यों के उलट एक संकीर्ण हिंदुत्व के विचार से लैस है और येन केन प्रकारेण उसे देश पर थोपना चाहता है. लोकतंत्र के नाम पर वह असहमति और सवाल पूछने के अधिकार को नकारता है. 1974 की तुलना में आज चुनौती कहीं कठिन है. जो तब साथ थे, उन्होंने अपने आचरण से निरंकुशता के मामले में कांग्रेस और इंदिरा गांधी को बौनी साबित कर दिया है! क्या हम देश और समाज को धर्मांधता की इस आंधी में बह जाने से रोक सकेंगे? पता नहीं, चुनौती सचमुच कठिन है. पर इसका मुकाबला करने के अलावा हमारे पास विकल्प क्या है? यदि वे अपनी मंशा पूरी करने में सफल हो गये, तो यह उस आंदोलन की बहुत बड़ी पराजय होगी. इससे उसका नकारात्मक होना भी सिद्ध होगा, जैसा कुछ लोग कहते भी हैं. ऐसा न हो, यह दायित्व उन लोगों पर है, जो खुद को ‘संपूर्ण क्रांति’ धारा का असली वारिस मानते हैं. खुशफहमी ही सही, इस कथन पर यकीन क्यों छोड़ दें कि रात कितनी भी अंधेरी हो, सुबह जरूर होती है. आमीन!