Syed Shahroz Quamar
Ranchi: लगभग सभी धर्म-समाज में दान-पुण्य का महत्व बताया गया है. मुस्लिम समुदाय का सबसे पाक महीना रमजान चल रहा है. इसमें वंचितों की मदद करना बेहद जरूरी माना जाता है. पाठकों ने पिछले दिनों फित्र या फितरा के बारे में पढ़ा होगा. इस खबर में जानिये कि एक बड़ा दान ज़कात क्या है, इसे रमज़ान में ही अदा करने की परंपरा क्यों है.
इस्लाम में जमाखोरी हराम
दरअसल, जमाखोरी इस्लाम में हराम है. रसूलल्लाह हज़रत मोहम्मद ने हदीस में फरमाया, जमाखोरी करने वाला मुजरिम है (मुस्लिम 1605). मुस्लिम की ही हदीस (1785) है कि अगर मालदार के न देने की वजह से भूखे और नंगे लोग तकलीफ़ में पड़ जाएं तो अल्लाह उनसे हिसाब लेगा और सजा देगा.
जमा जायदाद का ढाई फीसद वंचितों में बांटें
इस्लाम के मुताबिक सभी जरूरत के बाद अगर साल में आपके पास किसी भी शक्ल में पैसा, जायदाद करीब 87 ग्राम सोना (20 दीनार सोने के सिक्के) के मूल्य का या इससे अधिक जमा हैं, तो उसका ढाई फीसदी गरीबों में बांट देना है. इसे ही जकात कहते हैं. साल में एक बार इसे देना है. अब रमजान में इसे देने की परंपरा इसलिए है कि आर्थिक रूप से कमजोर लोग भी रमजान और ईद मना सकें.
क्या कहती है हदीस
रसूलल्लाह की हदीस है कि जिसने जकात अदा न की तो क़यामत के दिन उसके दोनों जबड़े को पकड़ सांप बोलेगा, मैं ही तेरा माल हूं. मैं ही तेरा खजाना हूं.
क्या कहती है कुरआन
कुरआन की सूर: तौबा में दर्ज है, “गर लोग सोना-चांदी जमा करते हैं लेकिन अल्लाह की राह में (ज़कात) नहीं निकालते तो उनकी ख़ैर नहीं. जहन्नुम की आग में जब ये तपेंगे. उनकी ललाटों, उनके पहलुओं और उनकी पीठों को दागा जाएगा और कहा जाएगा, ये वही हैं जिसे तुमने अपने लिए जमा किया अब इसका मज़ा चखो.” सूरे माऊन में लिखा है, “जो नमाज तो पढ़ते हैं लेकिन मुहताज (असहाय) को खाना नहीं खिलाते और यतीम (अनाथ) को धक्के देकर भगा देते हैं, तो उनकी नमाज़ का कोई अर्थ नहीं. वो महज़ दिखावा है.”
उल्मा ने की जरूरतमंदों में जकात देने की अपील
अहले हदीस जामा मस्जिद रांची के ख़तीब-इमाम मो. शफीक अलियावी, इमारत शरीया रांची के क़ाज़ी शरीयत दारूल क़ज़ा मुफ़्ती मोहम्मद अनवर क़ासमी, एदार-ए-शरीया झारखंड के नाज़िम आला मौलाना क़ुतुबुद्दीन रिज़वी और मस्जिद-ए-जाफ़रिया के ख़तीब-इमाम मौलाना तहजीबुल हसन ने हर साहब-ए-निसाब से ईमानदारी से ज़कात निकालने और उसके वाजिब हकदार तक पहुंचाने की अपील की है. इस्लामी स्कॉलर सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ ने कहा कि गर अपने मुल्क में लोग ज़कात देने लगें तो कुल रक़म 25 हज़ार करोड़ हर साल हो जाये. इस रक़म से कितना आर्थिक और सामाजिक बदलाव आ जाए. यही तो इस्लाम चाहता है, कि धीरे-धीरे ग़ैर-बराबरी मिट जाए.