Lagatar Desk : झारखंड जनाधिकार महासभा ने झारखंड आंदोलन के महानायक दिशोम गुरु शिबू सोरेन को आदरांजलि दी है. महासभा द्वारा जारी प्रेस बयान में कहा गया है कि शिबू सोरेन अब नहीं रहे. वे इतिहास का हिस्सा बन गए. स्मृति, संकल्प और प्रेरणा के अमूर्त अहसास बनकर रह गये.
शिबू सोरेन आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और सम्मान के संघर्ष को नेतृत्व देने वाले जननायकों की परंपरा के एक प्रखर व्यक्तित्व रहे. वे झारखंड के औपनिवेशिक शोषण के विरोध के एक जीवंत प्रतीक बन गये थे. झारखंड को लूटने वाली, झारखंड पर अपने राजनीतिक और प्रशासनिक वर्चस्व को बनाये रखने की साजिश रचती रही ताकतें उन्हें बदनाम और बेअसर करने की हर कोशिश करती रहीं.
ऐसी जितनी कोशिशें चलीं, झारखंडी जनमानस में वे उतने असरदार होते गये. आज की झारखंड सरकार का व्यापक जनाधार उनके द्वारा विकसित झारखंडी मूल्यों और भावनाओं की ही देन है. उनके प्रति झारखंडी जनों के आत्मीय विश्वास और लगाव की बदौलत ही है.
झारखंड अलग राज्य की भावना को बचाए रखने में, आगे बढ़ाने में और सीमित या अधूरे रूप में ही सही उसे साकार हासिल करने में शिबू सोरेन की बड़ी भूमिका रही है. मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा के कांग्रेसी चक्रव्यूह में फंस जाने, एनई होरो के झारखंड पार्टी के सिमटते जाने के बाद झारखंड में एक शून्यता सी थी.
स्वतंत्र और सशक्त संगठित झारखंडी शक्ति का अभाव था. तरह-तरह के शोषण दमन से त्रस्त झारखंडी जनगण बेचैन था. ऐसे समय में अपने पिता की सूदखोरों महाजनों द्वारा की गयी हत्या से आहत शिबू का महाजन विरोधी आंदोलन शुरू हुआ.
सूदखोरों के यहां बंधक खेतों की फसलकटनी का अभियान लहर की तरह फैलता गया था. इस धनकटनी आंदोलन से सैकड़ों आदिवासी गांव सच्चे मायने में महाजनों की थोपी गुलामी और बदहाली से आजाद हुए और खेतिहर संघर्ष, कोलियरी मजदूर संघर्ष तथा पुनर्वास के कानूनी संघर्ष की नींव से उभरी नयी झारखंडी राजनीतिक शक्ति फैलती गयी.
शिबू सोरेन के व्यक्तित्व के अनेक प्रेरक पहलू रहे. वे गजब का साहस रखते थे. गुआ गोलीकांड की बरसी पर गुआ को पुलिस और सीआरपीएफ छावनी में बदल दिया गया था. किसी को गुआ में घुसने नहीं दिया जा रहा था. तब भी वे गुआ पहुंच कर रहे. शहीदों को श्रद्धांजलि देकर पुलिस बल को चेतावनी देते हुए लौटे.
जब भी झामुमो का बड़ा जमावड़ा होता था, वे अधिकांश के खाने के बाद लगभग अंतिम पांत में बैठकर खाते थे. बाद में स्थापित होने के बाद वे अपने शहीद मित्रों के परिजनों और अभावग्रस्त सहयोगियों को यथासंभव सहयोग पहुंचवाते थे. वैमनस्य और प्रतिशोध की मनोवृत्ति से मुक्त थे.
जब उनका आतंक था, तब भी अपने पिता के हत्यारे परिवार से बदला लेने की नहीं सोची. डोमिसाइल आंदोलन के समय जो वैमनस्य का वातावरण बना था, उसके प्रति उनका दुख जाहिर हुआ था. सिपाही बनने के लिए ज्ञान कौशल से ज्यादा जरूरी शारीरिक फुर्ती और कौशल है, ऐसा मौलिक और ग्रंथिमुक्त चिंतन बहुत कम लोग बोल पाते हैं. शारीरिक श्रम, सहज मेलजोल उनके स्वभाव का हिस्सा रहा.
आजादी के बाद भी आदिवासी बहुल क्षेत्र को एक अलग राज्य बनाने के बदले में उसे संसाधनों के लूट के लिए बिहार, बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के बीच टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया गया था. बाहर से आए बनिया और महाजन आदिवासियों की जमीन लूटते थे, उनका बंधुआ सा शोषण करते थे और महिलाओं पर शारीरिक लैंगिक शोषण करते थे. आदिवासी एक तरीके का गुलामी का जीवन बिताते थे.
आदिवासियों को शोषण से मुक्त करने के लिए शिबू सोरेन ने धानकटनी आंदोलन शुरू किया था. शिक्षा के लिए स्कूल खोला था. धनबाद, जामताड़ा और अन्य क्षेत्रों के लोगों ने शिबू की अगुआई में अपने जमीन पर महाजन द्वारा रोपे गए धान काट लिया और जमीन को मुक्त घोषित किया. यह आंदोलन दूसरे क्षेत्रों में भी फैलने लगा और एक बड़ा जन आंदोलन का रूप ले लिया. सैकड़ों गांवों में लोगों की जमीन मुक्त हुई. जन आंदोलन के सामने थानों में लदे मुकदमे भी कुछ भी नहीं कर पाए.
इस आंदोलन के द्वारा आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार दुनिया के सामने लाने में शिबू सफल हुए. अलग झारखंड की मांग को न्यायोचित मानने का समर्थन बढ़ता गया. आदिवासियों का बराबरी का अधिकार, निर्णय लेने का अधिकार, इज्जत से जीने का अधिकार, बुनियादी जरूरतों को पाने का अधिकार का पहलू ज्यादा मजबूती से प्रकट हुआ. यह शिबू सोरेन के आंदोलन की सबसे बड़ा उपलब्धि रही.
शिबू सोरेन एक धैर्यशील नेता थे. शिबू सोरेन एक साधारण व्यक्ति थे. लेकिन उनके साहस, दृढ़संकल्प एवं अन्याय के प्रति आक्रोश ने उन्हें दूसरों से अलग बनाया. वे हर इंसान को सम्मान देते थे. वे अन्याय से लड़ते थे. लेकिन किसी व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या या दुश्मनी नहीं रखते थे. शांत स्वभाव के थे. किसी को अपमानित नहीं करते थे. लेकिन अपने और अपने लोगों के हक के बारे में स्पष्ट थे और दृढ़ता के साथ बात रखते थे. वे सरल भोजन करते थे और नशा पानी से दूर रहते थे.
शिबू सोरेन समझते थे कि अपने लोगों के विकास के लिए चुनावी राजनीति में भाग लेना जरूरी है. लेकिन राजनीति में भाग लेने के बाद उन्हें लोगों के सपनों और सरकार के नीति के बीच की खाई समझ में आयी. इस पर शिबू सोरेन को दुख होता था. सरकार की नीति और जनता की स्थिति को देखकर वे विवश हो जाते थे. अपने लोगों के सपने पूरा नहीं कर पाने का अफसोस वे जाहिर भी करते थे.
लेकिन शिबू सोरेन यह समझते थे और गर्व करते थे कि अलग झारखंड के लिए लड़कर वे आदिवासी समाज की एक अलग पहचान बना पाए. इसे कभी भी वनांचल या अन्य राजनीतिक पहचान में नहीं बदला जा सकता है.
साथ ही आदिवासियों के जल जंगल जमीन पर अधिकार, इज्जत से जीने का अधिकार, अपने भविष्य बनाने के लिए स्वयं निर्णय लेने का अधिकार, ग्राम सभा का अधिकार आदि बुनियादी अधिकारों के रूप में पहचान बना पाये.
पूर्ण स्वराज के लिए, जल जंगल जमीन और संसाधन पर निर्णायक अधिकार के लिए संघर्ष जारी रखना है. यह काम वीर शिबू सोरेन, दिशोम गुरु हमारे लिए, वर्तमान पीढ़ी को सौंप गये हैं. समर अभी काफी बाकी है.
झारखंड जनाधिकार महासभा शिबू सोरेन के संघर्ष को स्मरण करता है और प्रेरणा लेता है और उनके दुख से सबक भी लेता है. हम सब दिशोम गुरु शिबू सोरेन को नमन करते हैं. हम सब सच्चे जनतंत्र के लिए लड़ते रहेंगे. वैसा झारखंडी जनतंत्र, जिसमें जनांदोलन और जनशक्ति इतनी सशक्त हो कि सरकार को जनता के हित में काम करना ही पड़े.
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