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'फीनिक्स' की तरह अपनी राख से उठ खड़ी हुई भारतीय हॉकी, कांस्य की चमक भी है 'सुनहरी'

Faisal Anurag अपनी भारतीय हॉकी टीम फीनिक्स की तरह उठ खड़ी हुई है और अब दुनिया की किसी भी टीम के लिए एक बड़ी चुनौती बन गयी है. यह टीम कई अर्थों में 1960 और 1980 के स्वर्ण पदक विजेता टीमों की तरह दिख रही है. भारतीय टीम ने कांस्य जरूर जीता है, लेकिन उसकी चमक किसी सुनहरे सपने से कम नहीं है. भारतीय टीम के पास अतीत का दर्प है, लेकिन अब भविष्य के इरादे भी हैं. टोक्यो में भारतीय टीम ने साबित किया है कि वह दुनिया की किसी भी टीम को पराजित कर सकती है और किसी भी टीम के साथ मजबूती से मुकाबला कर सकती है. यह उस देश की कामयाबी है, जिसकी झोली में 1980 के बाद से केवल निराशा, अपमान और उपेक्षा ही रही है. ऐसा नहीं है कि 1980 के बाद भारत की हॉकी टीम में प्रतिभाओं की कमी थी, लेकिन उन प्रतिभाओं को तराशने के प्रयास में कई बड़ी कमियां थीं. इसमें कुछ संस्थागत थी और कुछ देश के बदले मिजाज का परिणाम था. हॉकी केवल साठ साल की ज्यादा से उम्र वालों की आंखों की चमक में ही बची हुई थी, लेकिन भारत के लड़कों ने इस अवधारणा को बदलने के लिए एशिया कप, विश्वकप और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी हुनर, ताकत और और प्रतिभा को दिखाया. 1983 के क्रिकेट विश्वकप के बाद तो भारत का यह राष्ट्रीय खेल क्रिकेट की चमक और लोकप्रियता के मुकाबले संघर्ष करता नजर आया. लड़कों से साथ भारत की लड़कियों ने भी जो प्रदर्शन टोक्यो में किया है, उससे यह उम्मीद पैदा हुई है कि इस राष्ट्रीय खेल की महत्ता को समझते हुए इसमें भी क्रिकेट की तरह का निवेश हो सकेगा.
ओडिशा भारत के पुरुष और महिला टीम को स्पांसर कर रहा है. उसने 2018 के बाद से भुवनेश्वर को एक विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर दिया है. ओडिशा ने एक ऐसा ढांचा बनाया है, जिसमें गांव के नजदीक तक एस्ट्रोटर्फ लगाया गया है. दुनिया का सबसे बेहतरीन स्टेडियम भी ओडिशा ने तैयार कर लिया है और पिछले विश्वकप की मेजबानी भी उसने ही की. अगले विश्वकप का मेजबान भी है
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alt="आपकी जीत हमारी सरकारों के आंख व कान खोलने का काम करेगी" width="600" height="400" /> टोक्यो की जीत जितनी सिमरनजीत सिंह, हार्दिक सिंह, हरमनप्रीत सिंह,रूपिंद्रपाल सिंह के गोलों के लिए याद रखा जाएगा, उतना ही श्रीजेश के असंभव बचावों के लिए भी. यह टीम स्प्रीट की जीत है और उन तैयारियों की भी है, जिसे ओडिशा सरकार ने अपने निवेश के माध्यम से किया है. इस समय ओडिशा भारत के पुरुष और महिला टीम को स्पांसर कर रहा है. उसने 2018 के बाद से भुवनेश्वर को एक विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर दिया है. ओडिशा ने एक ऐसा ढांचा बनाया है, जिसमें गांव के नजदीक तक एस्ट्रोटर्फ लगाया गया है. दुनिया का सबसे बेहतरीन स्टेडियम भी ओडिशा ने तैयार कर लिया है और पिछले विश्वकप की मेजबानी भी उसने ही की. अगले विश्वकप का मेजबान भी है और इसकी तैयारियों के लिए सरकार ने खजाना खोल दिया है. इसलिए इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि ओडिशा के संकल्प का एक नतीजा टोक्यो में दिख रहा है. खेलों में जीत देश को जश्न का अवसर देती है, लेकिन कुछ ऐसे कड़वे तथ्य हैं, जिन्हें भी इस अवसर पर भविष्य की बेहतरी के लिए याद रखना चाहिए. ये कड़वे तथ्य खुशी को कम नहीं करते, बल्कि देश को सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि खेल की संस्कृति के निर्माण की राह की बाधाओं को कैसे दूर किया जाए. यह बाधा केवल आर्थिक ही नहीं है बल्कि सामाजिक अंतर्विरोधों से भी जुड़े हैं. देश के गौरव के क्षणों में गुरुवार के टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर उन समस्याओं को उजागर करती है, जिसका सामना किए बगैर एक वैश्विक खेल शक्ति बनना संभव नहीं है. इस खबर के अनुसार जिस समय भारत की लड़कियां बहादुराना मुकाबले में अर्जेंटीना से हार गयीं, उसी समय उत्तर प्रदेश में महिला हॉकी स्टार वंदना कटारिया के घर पर गांव के लड़कों ने जातिगत गाली-गलौज की. यह वही वंदना हैं, जिसने अपनी हॉकी से यह दिखाया है कि वह भारत की अहम खिलाड़ी हैं और दुनिया के किसी भी महिला खिलाड़ी की तरह बेहद कौशल वाली प्रतिभा है. वंदना की टीम अभी कांस्य के मुकाबले में है, लेकिन उसके पहले ही जाति वर्चस्व की ताकतों ने उसके घर पर जो ओछापन दिखाया है, उसकी जड़ें देश की जातिगत दुर्भावना में हैं. यही नहीं, जिस समय पीवी सिंधु ने लगातार दूसरे ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीता उस समय उनकी जाति जानने के लिए गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च किए गए. यही तथ्य लवलीना के मामले में है. इससे जाहिर होता है कि भारत के लोगों को अपना सोच बदलना होगा. रानी रामपाल जो भारतीय महिला टीम की कप्तान है, उन्हें तो इस मुकाम तक पहुंचने के लिए एक तरफ दूध में पानी मिलाकर पीना पड़ा, तो दूसरी ओर स्कर्ट पहनने के विरोध के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ा. टेनिस स्टार सानिया मिर्जा जब ग्रैंड स्लैम जीत रही थीं, तब भी उन्हें केवल पहनावे के लिए ही परेशान किया गया. यहां तक कि सामाजिक बहिष्कार के फैसले तक का सामना करना पड़ा. जिन लड़कों ने टोक्यो में 41 साल का सूना खत्म किया, उनमें से 80 प्रतिशत उन गांवों से आए हैं, जहां के किसान दिल्ली में 9 महीने से धरने पर हैं. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारत जाति और खेल को लेकर एक किताब ही लिखी है. उनका अध्ययन क्रिकेट को लेकर है, लेकिन अन्य खेलों के संदर्भ में उन सामाजिक बीमारियों से मुक्त होने की राह बनाए जाने की सख्त जरूरत है. विजेताओं को पुरस्कार देने की जितनी जरूरत है, उतनी ही उनके परिजनों की समस्याओं को भी दूर करने की भी. चीन से यह तो सीखा ही जा सकता है कि उसने किस तरह चार दशकों में ऐसे ढांचे का निर्माण कर लिया है, जिससे वह ओलंपिक पदक तालिका में भी अमेरिका जैसे देशों के मुकाबले खड़ा है. जश्न मनाते देश को भविष्य की ताकत बनने के लिए हकीकतों से टकराना जरूरी है.

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