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पत्रकारिता की सीमाएं: रिपोर्टर बने रहें, पक्षकार न बनें

Sheetal P Singh


ऐसे पत्रकार जो सत्ता के सामने सवाल उठाते हैं और राजनीतिक मामलों की रिपोर्टिंग/विश्लेषण करते हैं, उन्हें अक्सर दर्शक/पाठक उद्धारक (मसीहा) मान बैठते हैं. वे उम्मीद करते हैं कि पत्रकार उन राजनीतिज्ञों की जगह ले लें जिनसे वे असंतुष्ट हैं और उनकी समस्याओं का समाधान करें. यह एक खतरनाक भ्रम है, क्योंकि पत्रकार का काम वस्तुस्थिति का आईना दिखाना है न कि राजनीतिक हल निकालना.

 

पत्रकारिता का एक पक्ष है और वह यह है कि वर्तमान के शक्तिपुंज के सामने अवाम की ओर से सवाल प्रस्तुत करे. यह काम विपक्ष का भी है. लेकिन इसको करने के तौर तरीके में दोनों में बुनियादी फर्क है. दोनों की अलग-अलग सीमाएं हैं.

 

दुनिया के वरिष्ठ पत्रकारों ने इस बाबत बार-बार चेतावनी दी है कि पत्रकारिता और एक्टिविज्म/राजनीति के बीच की रेखा स्पष्ट रखनी चाहिए. यदि राजनीति में जाना है, तो पत्रकारिता का चोला उतार देना चाहिए. दोनों नावों पर सवार रहना नैतिक रूप से गलत है.
इस मामले में गूगल के कुंए से मैंने कुछ विश्व प्रसिद्ध पत्रकारों के विचार और उदाहरण संदर्भ के लिए निकाला है.


- वाल्टर क्रोनकाइट (Walter Cronkite, अमेरिका के “मोस्ट ट्रस्टेड मैन” कहलाते रहे हैं. CBS Evening News के एंकर) कहते हैं- “Objective journalism and an opinion column are about as similar as the Bible and Playboy magazine.”
“If they’re preordained dogmatists for a cause, then they can’t be very good journalists, that is, if they carry it into their journalism.” (1973 के एक इंटरव्यू से)


मतलब यह कि क्रोनकाइट का मानना था कि पत्रकार यदि किसी विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रही हो जाता है और उसे अपनी रिपोर्टिंग में घुसेड़ता है, तो वह अच्छा पत्रकार नहीं रह जाता. वे खुद वियतनाम युद्ध पर व्यक्तिगत राय देने के बाद भी सख्त ऑब्जेक्टिविटी के पक्षधर रहे.

 

एडवर्ड आर मरो (Edward R. Murrow, WWII और मैकार्थी कवरेज के लिए प्रसिद्ध) कहते हैं- “To be persuasive we must be believable; to be believable we must be credible, to be credible we must be truthful.” मरो ने 1958 के अपने प्रसिद्ध स्पीच “Wires and Lights in a Box” में चेतावनी दी कि टीवी सिर्फ मनोरंजन का साधन न बने, बल्कि सच्चाई दिखाने का रहे (हालांकि ऐसा हो न सका). वे जोसेफ मैकार्थी के खिलाफ बोलकर एक्टिविज्म की सीमा पर पहुंचे, लेकिन हमेशा तथ्यों पर आधारित रहे. उनका मानना था कि पत्रकार का काम सच्चाई दिखाना है, न कि किसी पक्ष का झंडाबरदार बनना.

 

हमारे समय की मशहूर पत्रकार क्रिस्टियाने अमानपुर (Christiane Amanpour, CNN की चीफ इंटरनेशनल एंकर, बोस्निया युद्ध कवरेज) को बोस्निया में नरसंहार कवर करते हुए उन्हें “एक्टिविस्ट” कहा गया, लेकिन उन्होंने कहा: “Sometimes there is no moral equivalence… We have to be truthful, not neutral.” अमानपुर स्पष्ट करती हैं कि ऑब्जेक्टिविटी का मतलब न्यूट्रैलिटी नहीं. जब एक पक्ष स्पष्ट रूप से गलत हो (जैसे नरसंहार), तो पत्रकार को सच्चाई की तरफ खड़ा होना चाहिए, लेकिन पक्षकार बनकर नहीं. वे एक्टिविज्म और पत्रकारिता की रेखा बनाए रखने की वकालत करती हैं. लेकिन दुर्भाग्यवश हमने पश्चिमी देशों के अनेक पत्रकारों में गाजा नरसंहार पर ये रवैया नहीं देखा!

 

इस बारे में सोसाइटी ऑफ प्रोफेशनल जर्नलिस्ट्स (SPJ) कोड ऑफ एथिक्स (अमेरिका और पश्चिमी मीडिया में प्रचलित सबसे प्रभावशाली पत्रकारिता आचार संहिता) कहती है. “Act Independently : The highest and primary obligation of ethical journalism is to serve the public… Journalists should be free of obligation to any interest other than the public’s right to know.”


“Avoid conflicts of interest, real or perceived. Refuse gifts, favors… shun political involvement, public office.”
SPJ स्पष्ट कहता है कि पत्रकार को स्वतंत्र रहना चाहिए- राजनीतिक involvement या public office से दूर. यदि ऐसा करते हैं, तो journalistic integrity खतरे में पड़ जाती है.

जो पत्रकार राजनीति में गए, उन्होंने पत्रकारिता छोड़ी.

दुनिया में कई उदाहरण हैं, जहां पत्रकारों ने राजनीति में कदम रखा, लेकिन पहले पत्रकारिता का पेशा त्याग दिया.
- बोरिस जॉनसन (पूर्व ब्रिटिश PM): टेलीग्राफ और स्पेक्टेटर के संपादक थे, लेकिन राजनीति में आने से पहले पत्रकारिता छोड़ दी.
- भारतीय उदाहरणों पर तो आजकल सबसे ज्यादा बहस होती है कि ओपिनियन/रिपोर्टिंग / विश्लेषण में रेखाएं धुंधली हो चुकी हैं. जिससे विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है. दो पक्ष आमने-सामने हैं और दोनों के मानदंड धूल धूसरित हैं!

 

अमेरिका में निकोलस क्रिस्टोफ (NYT) या भारत में कुछ पत्रकारों ने राजनीति में जाने पर इस्तीफा दिया, क्योंकि दोनों साथ नहीं चल सकते. पत्रकारों को बार-बार स्पष्ट करना चाहिए क्योंकि हमारे अनेक दर्शक/पाठक हमसे अतिरिक्त उम्मीदें पाल बैठते हैं. “मेरा काम आपको ऐसी सूचनाएं/विचार पहुंचाने का प्रयास करना है जिन्हें आप तक पहुंचने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है. समाधान देना नहीं. समाधान के लिए आप वोट दें, आंदोलन करें, राजनीति में आएं – लेकिन मुझे रिपोर्टर रहने दें.”

 

जैसे क्रोनकाइट कहते थे: हम तथ्यों के गवाह हैं, न कि जज या जल्लाद. यह सीमा बनाए रखने से ही पत्रकारिता लोकतंत्र की चौथी स्तंभ बनी रहेगी. यदि पत्रकार मसीहा बनने की कोशिश करेंगे तो वे पत्रकार नहीं रहेंगे और मसीहा बनना तो खैर…

 

मैं पहले भी ऐसी पोस्ट डाल चुका हूं और फिर इसलिए भी डाल रहा हूं कि तमाम मित्र हमें लगातार हमारी सीमा रेखा को पार करने की सलाह देते रहते हैं और आजकल हम जैसे तनावग्रस्त हैं, उसमें यह मांग और बढ़ गई है. हमारे समाज में इधर उथल पुथल बहुत बढ़ गई है और हर चुनाव एक नई चुनौती बन कर लोगों के बीच पैदा कर दिये गये बंटवारे को और स्थायी कर रहा है. सामाजिक ताना बाना संदेह और नफरत में डूब रहा है और भविष्य अस्पष्ट है.

डिस्क्लेमरः लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.

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