Dipak Ambasth
झारखंड विधानसभा का बजट सत्र समाप्त हो गया है, लेकिन सत्र के अंतिम दिन सदन में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का बयान राज्य की राजनीति में उबल रही स्थानीयता और नियोजन नीति को और आंच दे गया है. झारखंड में स्थानीयता और नियोजन नीति राज्य के स्थापना काल से ही विवाद के विषय रहे हैं. पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने- अपने तौर पर इस विवाद का सर्वमान्य हल निकालने की कोशिश की है. लेकिन कोई सफल नहीं हो सका. झारखंड मुक्ति मोर्चा अपने चुनाव घोषणापत्र में 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता की बात कहता रहा है और उसी अनुरूप नियोजन नीति की भी, लेकिन क्या यह इतना आसान है, जितना चुनावी वायदे करना? अब जब झारखंड की जनता जिसमें आदिवासी मूलवासी ही मुख्य हैं, इसे लागू करने की मांग पर हंगामा कर रही है, तो मुख्यमंत्री कहते हैं कि अगर इस तरह से कोई नीति सरकार बनाती है, तो वह कोर्ट से खारिज कर दी जाएगी. सवाल है कि क्या चुनाव में वायदा करने के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा या मुख्यमंत्री को यह आत्मज्ञान हुआ कि जो वादा किया गया है, उसे उसी रूप में निभाना संभव नहीं है.
विधानसभा सत्र के अंतिम दिन मुख्यमंत्री का यह कहना कि झारखंडियों की भावना के अनुरूप नियोजन नीति बनेगी. पर सवाल है कि आप झारखंडी मानते किसे हैं. जब तक यह तय नहीं होता, तब तक सर्वमान्य नियोजन नीति बनेगी कैसे ? स्थानीयता और नियोजन नीति की मांग कर रहे संगठन विधायक और आदिवासी मूलवासी 1932 के खतियान से कम पर समझौता के एकदम खिलाफ हैं. राज्य में सदन से लेकर सड़क तक इसका विरोध हो रहा है, तो फिर सरकार किस झारखंडी भावना की बात कह रही है, यह समझ से परे है.
सरकार की सहयोगी पार्टी कांग्रेस के मंत्री आलमगीर आलम कहते हैं कि पार्टी का स्टैंड पुराना है. स्थानीयता तय करने के लिए वे 1932 के खतियान को तो आधार बनाएंगे ही, साथ ही सरकार 1964 और 1974 के अन्य सर्वे का भी अध्ययन करेगी. आलमगीर कहते हैं कि स्थानीयता के निर्णय के लिए त्रिस्तरीय मंत्रिमंडलीय उपसमिति के गठन का मामला भी सरकार के विचाराधीन है.
कांग्रेस या झामुमो जो कहे, मुख्यमंत्री के बयान और स्टैंड का तो उनकी पार्टी के भीतर ही विरोध है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ विधायक लोबिन हेंब्रम ने सदन के बजट सत्र के अंतिम दिन कहा कि 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता से कम कुछ भी मंजूर नहीं है. ऐसा नहीं कि यह बोरियो विधायक लोबिन हेंब्रम की अकेली आवाज है, पार्टी के अंदर अन्य विधायक भी दबी जुबान ऐसा ही कह रहे हैं. विधायकों का कहना है कि चुनाव में उन्होंने मुख्य रूप से इस बात को उठाया है और फिर उन्हें अपने लोगों के बीच में जब जाना है, तो इस मांग से इतर कोई अन्य काम वह कैसे मंजूर कर सकते हैं? मुख्यमंत्री इन सब से कैसे निपटेंगे, यह तो समय ही बताएगा, उधर लोबिन हेंब्रम ने ऐलान कर दिया है कि 5 अप्रैल से वह जन आंदोलन की शुरुआत करेंगे और स्थानीयता घोषित कराए बिना घर नहीं लौटेंगे.
स्थानीयता, खतियान और नियोजन ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सरकार भीतर बाहर से घिरी है, राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी इस स्थिति को खूब समझ रही है. इसलिए वह बार-बार कहती है कि जब झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता देने की बात घोषणा पत्र में कहीं है, उसी अनुरूप नियोजन की भी बात की है तो फिर ऐसा करती क्यों नहीं है ? भाजपा को पता है कि यह राह टेढ़ी है. इसे देखते हुए वह सरकार पर हमलावर है तो इसके मजे भी ले रही है.
ध्यान देना होगा कि जब मुख्यमंत्री कहते हैं कि अगर 1932 को आधार बनाकर सरकार आगे बढ़ी, तो कोर्ट इसे खारिज कर देगा, तो इसके पीछे बड़े जायज कारण हैं और मुख्यमंत्री ऐसा क्यों कहते हैं, इसे जानना भी जरूरी है.
वर्ष 2002, जब झारखंड में भाजपा की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे बाबूलाल मरांडी. उन्होंने स्थानीय नीति बनाई थी, जिसके सार्वजनिक होते ही राजधानी रांची समेत अन्य जिलों में हिंसा की लहर फूट पड़ी थी. इस नीति को चुनौती दी गई और तब हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीके गुप्ता की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने इस नीति को एक सिरे से खारिज कर दिया था. अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि यह असंवैधानिक है और इसे निरस्त किया जाता है. अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि राज्य के विभिन्न जिलों में कोई निश्चित कट ऑफ वर्ष नहीं है, जिसे राज्य के किसी स्थानीय व्यक्तियों या वासियों के निर्धारण के उद्देश्य के लिए आधार वर्ष के रूप में लिया जा सकता है.
कोर्ट का कहना था कि जो व्यक्ति या जिनके पूर्वज 70 वर्षों से अधिक समय से राज्य में बसे हुए हैं, इस स्थानीय नीति में उनमें भी भेदभाव किया गया है. इसका कारण यह है कि सर्वेक्षण अभिलेखों को तैयार करने और प्रकाशित करने में एक या दूसरे जिले में भारी अंतर है. ऐसे जिले या कस्बे हैं, जहां कोई सर्वेक्षण रिकॉर्ड भी तैयार नहीं किया गया था. अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि स्थानीय नीति के तहत राज्य में तृतीय या चतुर्थ वर्ग के पदों पर बाहरी व्यक्तियों की नियुक्ति से नहीं रोक सकते हैं. सरकार चाहे तो नियुक्ति में स्थानीय लोगों को भाषा और रीति रिवाज के आधार पर प्राथमिकता दे सकती है.
अदालत ने स्पष्ट किया था कि सरकार चाहे तो दूसरी स्थानीय नीति बना सकती है. स्थानीय को परिभाषित कर सकती है लेकिन उसे राज्य में पूर्व से रहने वाले लोगों को जो यहां की भाषा, रीति रिवाज, रहन-सहन में बस गए हैं, भले ही वह भारी हो, उन्हें शामिल कर सकती है. अदालत ने अपने आदेश में 1932 के खतियान का जिक्र ही नहीं किया था.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जानते हैं कि स्थानीयता और नियोजन का पेंच कहां फंस रहा है. लेकिन राजनीति है, यहां कुछ वायदे दिल से तो कुछ वायदे मजबूरी में करने पड़ते हैं, क्योंकि अंतिम उद्देश्य सत्ता शीर्ष पर पहुंचना होता है.