Dr. Santosh Manav
कौन बनेगा प्रधानमंत्री? यह सवाल पूछने का उचित समय अभी नहीं है. लेकिन, यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि अपोजिशन का लीडर कौन है या कौन हो सकता है? इसलिए कि उनके नेता अपोजिशन का चेहरा बनने के लिए उतावले दिख रहे हैं, या कहें कि प्रयासरत हैं. इसलिए भी कि अगर अपोजिशन एक छतरी के नीचे नहीं आया, तो बीजेपी को परास्त करने का सपना, सपना ही रह जाएगा.
अगर बड़ा राजनीतिक तूफान न हो, तो देश के स्तर पर बिना कांग्रेस के अपोजिशन की बड़ी हैसियत नहीं बनती. बगैर कांग्रेस के बीजेपी को हराने की कल्पना भी बेमानी है. और अगर कांग्रेस के नेतृत्व में कोई गठबंधन बने, तो उसके स्वाभाविक लीडर राहुल गांधी ही होंगे. यही कारण है कि कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रमुख रणजीत सिंह सुरजेवाला कहते रहे हैं कि मोदी का विकल्प राहुल ही हैं. राहुल के वोट खींचने की ताकत पर सवाल खड़े हो सकते हैं, लेकिन यह तो साफ है कि राहुल की छवि देशव्यापी है. वे चिर परिचित राजनीतिक खानदान से हैं. पप्पू, राहुल बाबा या युवराज कहकर राहुल गांधी की हंसी उड़ाई जा सकती है. लेकिन, इससे कौन इनकार करेगा कि आज की तारीख में वे उस पार्टी के प्रमुख नेता हैं, जिसका आधार-संगठन कमोबेश देश के सभी राज्यों में है. यह हैसियत अपोजिशन के किस नेता या पार्टी में है?
यह सवाल भी है कि देश के स्तर पर आंदोलन खड़ा करने की हैसियत किस नेता के पास है या यह भी कि सत्ता से संघर्ष के हर मुद्दे पर राहुल गांधी ही आगे क्यों दिखते हैं? ताजा उदाहरण लखीमपुर खीरी का ही है.
सवाल कितने भी खड़े किए जाएं, लेकिन सत्य यही है कि आज या कल राहुल गांधी कांग्रेस प्रमुख की कुर्सी पर पुन: विराजमान होंगे, जिसे वे 2019 की हार के बाद छोड़ आए थे. और तब अपोजिशन के पास क्या विकल्प होगा ? मीडिया रिपोर्टस कहती है कि देश में ढाई सौ से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी का मुकाबला सिर्फ कांग्रेस से है. ऐसे में अगर छोटे दल कांग्रेस के साथ खड़े हो जाएं, तो बीजेपी को गंभीर चुनौती दी जा सकती है. आज भी दर्जन भर राज्यों में कांग्रेस का वोट शेयर 34-35 फीसदी से ज्यादा है. चाहें तो गिन लीजिए-मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, गुजरात…….दूसरे किस दल के पास यह हैसियत है?
इधर बंगाल विजय के बाद ममता बनर्जी पीएम बनने के लिए बेसब्र दिख रही हैं. बंगाल के बाहर त्रिपुरा, मेघालय, गोवा तक में अपनी पार्टी को आधार देने की कोशिश में हैं. गोवा के एक पूर्व मुख्यमंत्री को वे अपने साथ जोड़ चुकी हैं. पर सवाल यही है कि क्या ममता 2024 तक अपनी पार्टी का देशव्यापी विस्तार कर लेंगी? क्या वीपी सिंह की तरह वे किसी लहर पर सवार हो जाएंगी? यहां भी पेंच है. राजीव गांधी के जमाने में वीपी कांग्रेस से ताजा-ताजा निकले थे. उनके हाथ बोफोर्स का मुद्दा लग गया था. यह सुविधा ममता के पास नहीं है. एक नाम अरविंद केजरीवाल का भी है. लेकिन लगता है कि केजरीवाल अपनी पारी खेल चुके हैं. यह सही है कि उन पर आरोप नहीं है. दामन पाक-साफ है. मध्य वर्ग में अब भी अपील है. बिजली-पानी जैसे सवाल उछाल मारते हैं. लेकिन केजरीवाल दिल्ली, पंजाब, गोवा से आगे आम आदमी पार्टी को नहीं ले जा पाए. हाल के दिनों में उत्तराखंड, गुजरात पर फोकस किया है. लेकिन वहां चमत्कार की उम्मीद कम ही है. आप को आस पंजाब से ही करनी चाहिए, ऐसा मीडिया चैनलो के सर्वे भी कह रहे हैं.
सच यह भी है कि जैसे मोदी को चुनौती राहुल से है, वैसे ही राहुल को चुनौती ममता और केजरीवाल से ही है. तीसरा कोई नेता दूर -दूर तक नहीं है. एक शरद पवार हैं. लेकिन 80 पार के पवार से कैसी उम्मीद. दिक्कत ब्रांड को लेकर भी है. मोदी हिंदुत्व वाली राजनीति के ब्रांडेड नेता हैं. देश भर में मोदी ब्रांड खूब बिकता है. आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों की वर्षों की मेहनत और खुद के क्रियाकलाप ने मोदी को हिंदुत्व का ब्रांडेड लीडर बना दिया. इसके उलट ममता की छवि है. केजरीवाल जरूर बीच-बीच में हनुमान भक्त बनकर ‘ ब्रांड’ बनने से बचते हैं. उन्होंने ऑप्शन खुला रखा है. जिस ब्रांड की मांग होगी, वैसा ढल जाएंगे. दिल्ली चुनाव में उन्होंने बेहतरीन संतुलन साधा और परिणाम बेहतरीन लाकर चौंकाया भी. कोशिश ममता ने भी की. लेकिन, अब वे ब्रांडेड हो गईं हैं. ठप्पा लग चुका. कांग्रेस को मजबूती देने के लिए राहुल गांधी नए-नए प्रयोग भी कर रहे हैं. एक राज्य वाले दलों के साए से निकलने की कोशिश दिख रही है, तो चर्चित युवा नेताओं को समेटकर, आगे लाकर पार्टी में ताजगी लाने का प्रयास भी. कन्हैया और जिगनेश मेवानी को जोड़ना इसी रणनीति का हिस्सा है. बिहार में राजद से तनातनी को भी इसी से जोड़कर पढ़ सकते हैं. इसलिए मानकर चलिए कि भविष्य में अपोजिशन एक छतरी के नीचे आता है, तो बगैर कांग्रेस यह बेमानी होगी. और यह भी कि मोदी का विकल्प ढूंढने वालों को राहुल गांधी के पास ही जाना होगा.
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