बाबूलाल की संकल्प यात्रा के मायने

Shyam Kishore Choubey चौदह वर्षों तक अलगाव के बाद साढ़े तीन साल पहले भाजपा में वापसी और डेढ़ महीने पहले सूबे की मिली सदारत के बाद अब बाबूलाल मरांडी झारखंड के सभी 81 विधानसभा क्षेत्रों की यात्रा पर हैं. उनकी यह यात्रा 40 दिनों की है. छह-सात महीने बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं. उसके छह महीने बाद विधानसभा के चुनाव होंगे. ऐसी स्थिति में यह भी कहा जा सकता है कि बाबूलाल फिलहाल राज्य के सभी 14 लोकसभा क्षेत्रों के भ्रमण पर हैं. नाम दिया गया है संकल्प यात्रा. 2019 में हुए चुनावों पर गौर करें तो 14 लोकसभा क्षेत्रों में से राजमहल और सिंहभूम दो सीटों पर भाजपा को पराजय मिली थी. इन 14 लोकसभा सीटों में पांच जनजातियों के लिए आरक्षित हैं. पांच में से उक्त दो भाजपा के खाते में नहीं आ पाई थीं. ऐसे ही राज्य की 81 विधानसभा सीटों में 28 जनजातियों के लिए आरक्षित हैं. इनमें से भाजपा को महज दो ही हासिल हो पायी थीं. भले ही राजनीतिक क्षेत्र में झारखंड को जनजातियों का राज्य कहा जाता है और भाजपा खुद को उनका हितैषी बताती है, लेकिन वह जनजातियों की सुरक्षित पांच लोकसभा सीटों में दो पर तो हार ही गई, अन्य दो लोहरदगा और खूंटी में हारते-हारते बची थी. विधानसभा चुनाव में वह कुल जमा दो पर ही सिमट गई थी. इस हाल में पार्टी को एक जुझारू जनजातीय चेहरे की तलाश थी और 14 साल तक अपनी पार्टी चलाकर उसका वर्तमान और भविष्य देखते हुए बाबूलाल को भाजपा जैसे मंच की तलाश थी. इसलिए जेवीएम के एकमात्र विधायक की हैसियत से भाजपा में आकर वे उसके सभी 25 विधायकों का नेता बनाये जाने से खुश ही हुए. वक्त का इंतजार डेढ़ महीने पहले पूरा हुआ, जब उनको पार्टी संगठन का प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया गया. अब उन पर राज्य की सभी सीटें, कम से कम सभी जनजातीय सीटें हासिल करने/कराने की जवाबदेही है. सो, वे सीट-दर-सीट घूम रहे हैं. बाबूलाल की संकल्प यात्रा को कुछ देर के लिए विराम देकर संगठन की ओर ताक-झांक करने पर साफ-साफ पता चलता है कि डेढ़ महीने से अधिक समय बीत जाने पर भी उसको रूप-स्वरूप नहीं दिया जा सका है. फिलहाल बाबूलाल खुद में संगठन हैं क्योंकि बाकी पदधारियों और सदस्यों का चयन नहीं हो सका है. इसलिए मीडिया में तरह-तरह की अटकलें लगना स्वाभाविक है. कार्यसमिति का गठन उनको अकेले करना होता तो इसको पूरा कर ही ‘वोट संकल्प’ की ओर जाते. भाजपा खुद को अनुशासित पार्टी का तमगा देती-ओढ़ाती है लेकिन जुलाई के आखिरी दिनों में विधायक दल के नेता के चुनाव/चयन पर जिस प्रकार विवाद हुआ, उस पर कुछ बोलने के बजाय ‘अपना हारा, मेहरी का मारा’ नीति अपना ली. ऐसी सूरत में संगठन के गठन में किस-किस तरह के हालात पेश आ रहे होंगे, यह बाबूलाल ही जानते-समझते होंगे. वहां भी चेहरे का सवाल है और बड़े नेताओं के पसंदीदा चेहरों का भी सवाल है. इस सवाल का जवाब दिल्ली दरबार ही है.ऐसे सवाल हर संवदेनशील मौके पर उमड़ते-घुमड़ते रहे हैं, भले ही वह कैबिनेट गठन ही क्यों न हो! 2014 में गठबंधन के साथ भाजपा पहली बार बहुमत में आई थी लेकिन कैबिनेट का गठन लंबा गैप देकर दो दौर में पूरा किया जा सका था, वह भी महज 12 में से एक पद रिक्त रखते हुए. बाबूलाल का एक इतिहास है. उन्होंने झारखंड गठन के कुछ ही महीनों बाद रामगढ़ जैसी जनरल विधानसभा सीट पर उपचुनाव जीता था. ऐसे ही पहले प्रयास में भले वे संताल बहुल दुमका लोकसभा सीट नहीं निकाल सके थे, लेकिन कोडरमा जैसी जनरल सीट 2004 से वे लगातार तीन बार जीतने में कामयाब रहे थे. इस बार भी उन्होंने धनवार जनरल विधानसभा सीट जीतकर दिखाया. जनरल सीटों से जनजातीय उम्मीदवार जीतने का उनके बाद का बस दो ही इतिहास है. भाजपा के अर्जुन मुंडा ने 2009 में जमशेदपुर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की थी, जबकि झामुमो के सालखन सोरेन ने 2009 में ही गांडेय पर विजय पाई थी. कुछ ही महीनों पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से श्रीनगर तक साढ़े तीन हजार किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा की थी. उस पदयात्रा ने राहुल को बदल दिया. उन्होंने खुद भी कहा था कि मैं पुरानेवाले राहुल को पीछे छोड़ आया हूं. इस पदयात्रा से उनकी छवि, सोच और स्वीकार्यता सभी में निखार आया. वे राजनेता के रूप में उभरे. इसका असर कांग्रेस पर भी पड़ा. पगडंडियों ने उनको राजमार्ग तक पहुंचा दिया. यह करिश्मा ही था. क्या बाबूलाल के साथ भी बरास्ता संकल्प यात्रा ऐसा कुछ होगा? दरअसल, वे जिस पृष्ठभूमि से राजनीति में आये, उसमें जगह-जगह घूमना, जनसम्पर्क करना और लोगों को साधना मुख्य कर्म था. जेवीएम अध्यक्ष रहते हुए भी वे 14 वर्षों तक यही करते रहे थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता वोट में तब्दील नहीं हो सकी थी. यहां तक कि वे खुद दुमका, कोडरमा, गिरिडीह और धनवार भी हार गये. अब परिस्थितियां बदल गई हैं. उनके पास बड़ा मंच है. यह मंच उनको किस हद तक स्थापित-पुनरस्थापित कर पाएगा, इसका कुछ-कुछ जवाब उनकी आनेवाली कार्यसमिति दे पाएगी, क्योंकि राजनीति सामूहिक कार्य है. राजनीति में जो तानाशाह होते हैं, उनके भी पीछे कुशल टीम होती है और होते हैं जी हजूरिए भी. बाबूलाल तो सर्वसुलभ नेता हैं. उन्होंने बहुत कुछ गंवाया है, लेकिन राजनीति में पाने की शर्तें कतई आसान नहीं होतीं. देखने में यह जितनी लुभावनी होती है, अंदर से उतनी ही कठिन और क्रूर भी होती है. डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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