
बैजनाथ मिश्र
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार बन गयी है. मोटे तौर पर देखें तो मंत्रिपरिषद में कोई चमत्कारिक बदलाव दिखाई नहीं देता है. अलबत्ता भाजपा ने हिसाब-किताब बैठाने में मिथिलांचल के ब्राह्मणों को गोल कर दिया है. उन्होंने खांची - दौरा भर भरकर एनडीए को वोट दिया और अपना पाग पहनाया. लेकिन भाजपा ने उन्हें अपने कोटे से तरजीह नहीं दी.
सरकार में एक हैरतअंगेज बदलाव यह हुआ है कि सम्राट चौधरी बतौर डिप्टी सीएम गृह मंत्रालय संभालेंगे. अब तक यह विभाग मुख्यमंत्री स्वयं चलाते थे. लेकिन अब सम्राट यह विभाग हांकेंगे. नीतीश इसके लिए क्यों राजी हुए, यह तो भाजपा वाले ही बता सकेंगे. इस बदलाव से क्या फर्क पड़ेगा, इसका आकलन शुरु हो गया है. पहला यह कि यदि नीतीश बाबू का मन मुख्यमंत्री पद से उचट जाये या उन्हें कहीं और समायोजित करने की जरुरत आन पड़े तो सम्राट चौधरी विकल्प के रुप में मौजूद रहेंगे. यानी भाजपा ने घोषित रुप से उन्हें अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दिया है. इससे सम्राट की जिम्मेदारियां बढ़ गयी हैं. वह चौपाल लगाने वाले नेता हैं. उन्हें इसके माध्यम से हर क्षेत्र गांव-पंचायत के लुच्चे-लफंगों की जानकारी मिल सकती है. इसलिए कोई पुलिस अधिकारी उन्हें गुमराह करने की हिमाकत नहीं कर सकता. लेकिन खतरा यह है कि सम्राट बोलक्कड़ और तावबाज नेता हैं. संभव है अपनी इस आदत के कारण वह कहीं नीतीश से ही न भिड़ जायें. मतलब यह कि यदि सम्राट गृह मंत्री बनने के अहंकार में स्वयं को सरकार का वास्तविक सम्राट समझ बैठे तो नीतीश के तेवर तल्ख हो सकते हैं और तब यह सरकार हिचकोले खाने लगेगी. हालांकि नीतीश-सम्राट के बीच की केमिस्ट्री अच्छी है. यह चुनाव के बीच भी दिखी और चुनाव परिणाम के बाद भी. सम्राट भी अपनी सीट की परवाह किये बिना पूरे बिहार में सभाएं और जनसंपर्क करते रहे.
खैर, इस मंत्रिपरिषद के दो नायाब हीरे हैं- संतोष सुमन और दीपक प्रकाश. इन दोनों को मंत्री बनाने पर बिना संकोच के यह कहा जा सकता है कि बाकलम नीतीश, गवाह नरेंद्र मोदी - वंशवाद जिंदाबाद हो गया है. इन्हें बनाया जरूर नीतीश ने लेकिन मोदी जी की गवाही के बगैर यह पूरा नहीं हो सकता था. ये दोनों महानुभाव वंशवाद के विरोधी हैं, लेकिन दोनों ने ही हथियार डाल दिये.
संतोष सुमन विधायक ज्योति देवी के दामाद हैं, विधायक दीपा देवी के पति हैं और केंद्रीय मंत्री जीतन राम माझी के पुत्र हैं. सुमन जी खुद एमएलसी हैं. है न तगड़ा बायोडाटा. इसी प्रकार दीपक प्रकाश विधायक स्नेहलता और सांसद उपेंद्र कुशवाहा के पुत्र हैं. उपेंद्र कुशवाहा अपने पुत्र या बहू के लिए महुआ सीट मांग रहे थे, लेकिन यह चली गयी चिराग पासवान के कोटे में. तब उन्होंने भाजपा आलाकमान से एमएलसी की एक सीट एडवांस में मांग ली. अब वही एमएलसी की सीट दीपक बाबू को दी जाएगी, क्योंकि वह बिहार विधानमंडल के किसी सदन के सदस्य नहीं हैं.
जीतनराम माझी और उपेंद्र कुशवाहा अपनी-अपनी पार्टियां चलाते हैं. एक महादलितों के स्वघोषित नेता हैं तो दूसरे कोइरी वोटरों के सीएनएफधारी हैं. ये दोनों अपनी जातियों के लिए कोई भी बलिदान देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, केवल मलाईदार पद छोड़कर. ये दोनों खांटी समाजवादी हैं लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव की तरह. इनका समाजवाद नीतीश के समाजवाद से ज्यादा चटक है, क्योंकि नीतीश अपने पुत्र निशांत की चिंता ही नहीं करते. ठीक उसी तरह से जैसे कर्पूरी ठाकुर ने जीते जी कभी पुत्र रामनाथ ठाकुर की सियासी परवरिश नहीं की. लेकिन उन्हें जनता से मिली जननायक की उपाधि को चादर समझ कर वंशवादी राजनीति की धरोहर तेजस्वी यादव पूरे चुनाव में ओढ़ते-बिछाते रहे. जनता ने उन्हें उनका भूत उतार दिया है. वही हश्र माझी, कुशवाहा का भी होता, क्योंकि इनकी वंशवादी लतायें पूरी तरह परजीवी हैं.
खैर, सवाल यह है कि नीतीश झुके क्यों और मोदी माने क्यों? सही है कि संतोष सुमन पिछली सरकार में भी महादलितों के उत्थान की गरज से मंत्री बने थे. लेकिन तब हालात अलग थे. तब सरकार के बहुमत का संतुलन बहुत बारीक धागे के सहारे साधा जा रहा था. लेकिन इस बार तो जनता ने छप्परफाड़ बहुमत दिया है. इसलिए माझी, कुशवाहा की मुराद पूरी नहीं होती तब भी वे न कुछ कर पाते, ना ही गंठबंधन से बाहर जाने की हिम्मत जुटा पाते. यह मौका था वंशवाद पर चोट करने का. लेकिन नीतीश चूक गये और मोदी मौन साध गये. तभी तो कहा जाता है कि लम्हों की खता सदियों के लिए सजा बन जाती है.
आश्चर्यजनक यह भी है कि महादलितों और कुशवाहा समाज के बीच से भी इन घृणित स्वार्थी नेताओं के खिलाफ कोई आक्रोश नहीं उभरा. तो क्या यह मान लिया जाय कि वंशवाद जातिवादी राजनीति का बायप्रोडक्ट है. यही नेता अपने गंठबंधन के बड़े दलों को ब्लैकमेल करते हैं और अपने कुल खानदान को इच्छित भागीदारी नहीं मिलने पर ये समाजवाद की डफली बजाने लगते हैं. तब दलितों-पिछड़ों की हकमारी पर इनकी छाती फटने लगती है. इनका समाजवाद इनकी देहरी से शुरु होकर इनके चौखट पर ही दम तोड़ देता है.
डॉ राम मनोहर लोहिया एक प्रखर समाजवादी थे. एक बार उनसे एक पत्रकार ने पूछा आपका परिवार कहां है, उसमें कौन-कौन हैं? उन्होंने जवाब दिया- मेरी पार्टी ही मेरा परिवार है. आजकल के समाजवादियों के लिए अमूमन परिवार ही पार्टी है. सच तो यह है कि आजादी के बाद से जितना समाजवादी टूटे, बिके, गिरे वह रिकॉर्ड है. ये हर जगह इफरात में पाये जाते हैं. ये जुगाड़ बैठाने और काम निकालने-बनाने में माहिर हैं. ये सिद्धांतों की घुट्टियां दूसरों को पिलाते हैं, लेकिन पद की लालसा में अपना ईमान धरम गिरवी रखने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं. इन्हें पद दे दीजिए तो ये चमचागीरी का नया कीर्तिमान बना देते हैं. बौद्धिक संपदा तो इनकी धमनियों में प्रवाहित होता रहती है, लेकिन राजनीति के लंपटीकरण की इबारतें भी इन्होंने खूब लिखी है. बहरहाल देखना है तीन चौथाई बहुमतवाली नीतीश सरकार जनता के अरमानों पर कितना खरा उतरती है, अपने वादे कैसे और कितना पूरा करती है और बिहार को विकास की किस ऊंचाई तक ले जाती है. लेकिन आगाज तो अच्छा नहीं है, अंजाम खुदा जानें. सही है कि मंत्रिपरिषद का गठन मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है, लेकिन इस विशेषाधिकार के उपयोग की समीक्षा तो होनी ही चाहिए, होगी ही और हो भी रही है.

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