
बैजनाथ मिश्र
बिहार ने फैसला सुना दिया है. उसने एनडीए की झोली भर दी है और महागंठबंधन को ऐसी चपत लगायी है कि इसकी टीस लंबे समय तक सालती रहेगी. एक्जिट पोल वालों की भी कलई उतर गयी है. एक-दो को छोड़ दें, तो बाकी कोई भी नामचीन एक्जिट पोल एनडीए को दो सौ से अधिक सीटें नहीं दे रहा था. पता नहीं क्यों जो एनडीए को जिता रहे थे, वे भी कंजूसी कर रहे थे. वे पुराने तौर-तरीकों से सोच रहे थे और जातीय समीकरणों पर फोकस कर रहे थे. लेकिन परिणाम बता रहे हैं कि मतदाताओं ने जाति छोड़कर या तोड़कर मतदान किया है. यही कारण है कि लगभग दर्जन भर जिलों में गंठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया है. इससे यह संकेत मिलता है कि बिहार अब राजनीति की नयी राह पर चल पड़ा है. अब जातियों की ठेकेदारी की राजनीति करने वाले दल और नेता निढ़ाल हो गये हैं. अब बिहार को विकास चाहिए. विकास को गति देनेवाला और जनकल्याणकारी नीतियों पर चलनेवाला नेता चाहिए. यही कारण है कि जैसे ही एनडीए ने जंगलराज को केंद्रीय मुद्दा बनाया, महागंठबंधन लुढ़कता चला गया. पुराने दिनों की याद से सिहरता मतदाता इस बार कोई भूल करने को तैयार नहीं था.
गंठबंधन की शर्मनाक पराजय को मुकम्मल किया महिलाओं ने. वे शराबबंदी से खुश हैं. जीविका दीदियों को मिली सहूलियतें, दस हजार की अग्रिम राशि, पेंशन में वृद्धि, सवा सौ यूनिट मुफ्त बिजली ने उन्हें इतना उत्साहित कर दिया कि उन्होंने पुरुषों के मुकाबले आठ-नौ फीसदी ज्यादा वोट डाल दिया. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में इस बार दो करोड़ इक्यावन लाख साठ हजार महिला मतदाताओं ने वोटिंग की है. यह पुरुषों के मुकाबले चालिस लाख ज्यादा है. हालांकि मतदाता सूची में कुल वोटरों की संख्या पर गौर करें तो महिला वोटर पुरुष वोटरों से करीब अड़तालिस हजार कम हैं.
इस विजय के दोनों नायक नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी महिला सशक्तीकरण पर जोर देते रहें और कार्यक्रम भी चलाते रहे हैं. कांग्रेस के रणनीतिकारों को आशंका थी कि तेजस्वी को बतौर मुख्यमंत्री पेश करने से लालू प्रसाद के जंगलराज का भभूका खड़ा होगा और एनडीए को परास्त करने के अरमानों पर चोट पहुंचेगी. लेकिन तेजस्वी अड़ गये. बिना अपना नाम घोषित कराये वह चुनाव प्रचार में उतरने को तैयार नहीं थे. लगे हाथ मुकेश सहनी ने भी खुद को डिप्टी सीएम प्रोजेक्ट करा लिया. उसका दलितों, अल्पसंख्यकों और गैर यादव पिछड़ों में गलत संदेश गया. परिणाम सामने है. खास वजह यह भी थी कि गंठबंधन में बिखराव था. सीटों के बंटवारे से लेकर टिकट बंटवारे तक हंगामा और विरोध का मंजर था. आलम यह था कि करीब दर्जन भर सीटों पर गंठबंधन के प्रत्याशी आपस में लड़ रहे थे. इससे आपस में पैदा कंफ्यूजन अंत तक बना रहा.
दूसरी ओर एनडीए ने समय रहते आपस में सीटें भी बांटी और प्रत्याशी भी मिल जुलकर तय किये, पूरी तरह सामंजस्य बैठा कर. सभी सहयोगी दलों के नेता कार्यकर्ता जमीन पर एकजुट होकर काम कर रहे थे. स्टार प्रचारकों के दौरे जरुरत के हिसाब से तय किये गये. भाजपा ने तो अपनी पूरी पेस बैट्री ही झोंक दी थी, केवल अपने प्रत्याशियों के लिए नहीं, सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के लिए भी. यानी गंठबंधन का चुनाव प्रचार जहां बिखरा हुआ था, वहीं एनडीए का चुनाव प्रचार सुव्यवस्थित और सघन था.
तीसरी बात यह है कि नरेंद्र मोदी की मां को गाली से लेकर छठ पूजा पर उनके विरूद्ध जिस शैली में और जिन शब्दों में टिप्पणी की गयी, वह बैक फायर कर गया. मोदी ने बहुत करीने से इसे भावनात्मक मुद्दा बनाकर जनता में परोस दिया. विपक्ष पता नहीं यह क्यों नहीं समझ पाया कि मोदी और नीतीश पिछड़ों के चहेता हैं और उन पर की गयी ओछी टिप्पणियां प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. गौरतलब यह भी है कि असदुद्दीन ओवैसी गंठबंधन से मात्र छह सीटें मांग रहे थे, लेकिन उन्हें भाजपा की बी टीम घोषित कर दिया गया. इतनी ही नहीं, उन्हें गरियाने के लिए कांग्रेस और सपा ने अपने मुस्लिम नेताओं की फौज उतार दी. इसकी प्रतिक्रिया हुई. ओवैसी खुद तो पांच सीटें जीते ही, करीब दर्जन भर सीटों पर गंठबंधन का खेल बिगाड़ दिया.
डिप्टी सीएम का मुकुट पहने तेजस्वी के साथ घूम रहे मुकेश सहनी शून्य पर आउट हो गये और घोषित सीएम तेजस्वी किसी तरह अपनी सीट बचा पाये, लेकिन पार्टी लहूलुहान हो गयी. कांग्रेस चहक बहुत रही थी, लेकिन उसे सीटें मिलीं मात्र छह. वह इकसठ सीटों पर लड़ रही थी. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता दोनों चुनाव हार गये. उधर छह सीटों पर लड़ रही जीतनराम माझी की पार्टी को पांच और उपेंद्र कुशवाहा को चार सीटें मिल गयी. यह परिणाम भी आया- चाचा नेहरू के जन्म दिन पर. उसी दिन उनके राजनीतिक वारिस की अगुवाईवाली कांग्रेस बिहार में रसातल में चली गयी. उसकी जो गति बनी है, उसी का नाम दुर्दशा है. अब कांग्रेसी वोट चोर-गद्दी छोड़ का नारा नहीं लगा रहे हैं. बिहार में कांग्रेस जहां आ गयी है, वहां से उसे उठाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है.
उधर तेजस्वी अहंकार में डूबे थे. वह अठारह नवंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की घोषणा कर रहे थे. वह अपना प्रण तो पहले ही जारी कर चुके थे और अब देखें कि केवल इससे काम नहीं चलेगा तो पूरक प्रण भी जोड़ दिया. एक अन्य खिलाड़ी थे प्रशांत किशोर. उन्हें भी पता नहीं क्यों इतना गुमान था कि वह नया इतिहास रच देंगे. पिछले ढ़ाई-तीन साल से वह बिहार को मथ रहे थे, अपना विजन प्रस्तुत कर रहे थे और जिस-तिस पर आरोपों की बौछार कर रहे थे. उनके दिमाग में यह कीड़ा घर कर गया था कि मोदी को 2014 में पीएम उन्होंने ही बनाया था, नीतीश कुमार 2015 में उनकी बदौलत ही जीत पाये थे और ममता बनर्जी उनकी रणनीति के चलते ही पिछली बार जीत पायी थी. लेकिन वह भूल गये कि सचिन तेंदुलकर के कोच रमाकांत अचरेकर खुद तेंदुलकर नहीं बन सकते. दूसरे को टिप्स देने और खुद उसके आधार पर विजय गाथा लिखने में बहुत फर्क होता है. दरअसल उनकी महत्वकांक्षा का विमान समय से पहले ही टेक ऑफ कर गया और आसमान में ही उसका ईंधन खत्म हो गया और वह धड़ाम से नीचे गिर गया. उन्हें पांच फीसदी भी वोट नहीं मिले हैं. वह अपनी जन्मस्थली वाली सीट करगहर में रितेश पाण्डेय जैसे प्रत्याशी के बावजूद औंधे मुंह गिरे हैं.
बहरहाल इस जनादेश का मतलब यह है कि बिहार में नीतीश की कोई सानी नहीं है. बहार वहीं आएगी जहां नीतीश कुमार होंगे. उन्होंने बीस साल सत्ता में रहने के बावजूद यह साबित किया है कि जीतेगी वही टीम जिसके कप्तान वह होंगे. अभी तक उनके दामन पर कोई दाग नहीं लगा है. दूसरा यह कि नरेंद्र मोदी का भी खुमार अभी उतरा नहीं है. तीसरा यह कि तेजस्वी को अब खुद को और पार्टी को संभालने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी, क्योंकि दलीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का भरोसा टूटा है. उसे वापस पाना श्रमसाध्य है. मतदाताओं ने एनडीए को जिस उम्मीद से छप्पर फाड़ समर्थन दिया है, उससे नीतीश सरकार पर बिहार में विकास की नयी लकीर खींचने का दबाव बढ़ेगा. यह दबाव केंद्र सरकार पर भी होगा. तभी शायद नरेंद्र मोदी ने देश के उद्यमियों को आह्वान किया है कि वे बिहार आये और कल-कारखाने लगायें. बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है. नीतीश सरकार को इस समस्या के समाधान की दिशा में असरदार पहल करनी होगी अन्यथा अरमान चटकते हैं तो प्राणांतक पीड़ा देते हैं. जितना बड़ा जनादेश मिला है, उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी भी सरकार पर रहेगी.

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