Brijendra Dubey
1949 को संविधान सभा की आखिरी बैठक चल रही थी. संविधान बनाने वाली प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर संविधान सभा की बैठक में कई आशंकाओं और सवालों के जवाब देने के लिए उठ खड़े हुए. उन्होंने कहा-अगर हमने देश से गैर बराबरी खत्म नहीं की, तो पीड़ित लोग उस ढांचे को खत्म कर देंगे, जिसे संविधान सभा ने बड़ी मेहनत के बाद बनाया है. उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छे संविधान की कामयाबी उन लोगों पर निर्भर करेगी, जो देश को चलाएंगे. इसके अगले ही दिन संविधान सभा ने देश के लिए संविधान मंजूर कर लिया और भारतीय गणराज्य के लोगों के हाथों में संविधान सौंप दिया गया. अंबेडकर ने तब आरक्षण की अस्थाई व्यवस्था करते हुए कहा था कि अगर आरक्षण से किसी वर्ग का विकास हो जाता है, तो अगली पीढ़ी को आरक्षण का फायदा नहीं दिया जाना चाहिए. आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं, जिसके सहारे पूरा जीवन काट दिया जाए. उन्होंने 10 साल में आरक्षण दिए जाने की समीक्षा की बात कही थी.
26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के करीब 74 साल बाद भी राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के मुद्दे पर हंगामा कर रही हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में आरक्षण एक बड़ा मुद्दा बन चुका है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी चुनावी रैलियों में यह आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा अगर सत्ता में आई, तो आरक्षण खत्म कर देगी. 400 पार का नारा इसीलिए दिया जा रहा है, ताकि संविधान में मनचाहा संशोधन किया जा सके. वहीं, पीएम नरेंद्र मोदी ने पलटवार करते हुए कहा-कांग्रेस देश में धर्म आधारित आरक्षण लागू करना चाहती है. इसका उदाहरण कर्नाटक है जहां कांग्रेस धर्म आधारित आरक्षण को लागू करना चाहती है. हालांकि मोदी जी इस मुद्दे पर झूठ बोल रहे हैं क्योंकि पिछड़े मुस्लिमों को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पुरी ठाकुर ने आरक्षण बहुत पहले दे दिया था, जो बिहार में आज भी लागू है. दिलचस्प बात यह है कि पिछड़ों का वोटबैंक साधने के लिए ही पीएम मोदी ने चुनाव के मौसम में कर्पुरी ठाकुर को भारत रत्न सम्मान से नवाज दिया.
संविधान के अनुसार, आरक्षण लागू करने के पीछे दो मकसद थे. पहला यह कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों या सामाजिक और पिछड़े वर्ग या आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आगे बढ़ाना. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15(4), 15(5), 15(6) में प्रावधान किए गए वहीं, दूसरा मकसद यह था कि सभी सरकारी नौकरियों या अवसरों में पिछड़े वर्ग या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना. इसके लिए 16(4) और 16(6) का प्रावधान है.संविधान लागू होने के साथ ही एससी-एसटी को आरक्षण दिया गया था. मगर, तब यह भी कहा गया था कि इसे 10 साल के लिए दिया जा रहा है. इसके बाद इसकी समीक्षा की जाएगी कि आरक्षण से किसको कितना फायदा हुआ. जिस वर्ग को फायदा पहुंचेगा, उसे फिर आरक्षण नहीं दिया जाएगा. मगर, ऐसा हो नहीं सका.
1991 की बात है, जब वीपी सिंह सरकार ने अरसे से अटकी पड़ी मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया. इसके तहत ओबीसी को सरकारी नौकरियों और हायर एजुकेशन में 27 फीसदी कोटा दिया गया. इसी कोटे में क्रीमी लेयर की अवधारणा भी लागू की गई. यानी आरक्षण का फायदा ओबीसी कैटेगरी में उन्हीं को मिलेगा, जो नॉन क्रीमी लेयर से आते हैं. क्रीमी लेयर में इनकम और सोशल स्टेटस जैसे पैरामीटर्स को ध्यान में रखा जाता है. जो लोग पहले से ही सुविधा प्राप्त हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा. इसके बाद 2019 से आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस को भी 10 फीसदी कोटा दिया जाने लगा. सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट और संवैधानिक मामलों के जानकार कपिल सिब्बल बताते हैं कि आईआईटी, आईआईएम जैसे सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में अनुच्छेद 15(4), 15(5) और 15(6) के आधार पर आरक्षण दिया जाता है. वहीं, आईएएस, आईपीएस जैसी सरकारी नौकरियों में अनुच्छेद 16(4) और 16(6) के तहत आरक्षण दिया जाता है. जबकि लोकसभा और विधानसभाओं में अनुच्छेद 334 के तहत आरक्षण दिया जाता है. संविधान में आरक्षण देने आधार सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन के आधार पर दिया जाता है.
कपिल सिब्बल के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ, 1992 के मामले में यह व्यवस्था दी कि आरक्षण के प्रावधान को इतनी सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता है कि समानता की अवधारणा ही नष्ट हो जाए. ऐसे में अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत दिया जाने वाला आरक्षण किसी भी हाल में 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए. हालांकि, विशेष प्रावधानों के तहत तमिलनाडु, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण दिया जा रहा है. केंद्र के स्तर पर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए. यही स्थिति आरक्षण को हटाने को लेकर भी है. अगर कोई सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है, तो उसे लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल करना होगा. कपिल सिब्बल के अनुसार, आरक्षण को लेकर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट सवाल करता रहा है. नवंबर, 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण के मामले की सुनवाई के दौरान कहा-शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की नीति अनिश्चितकाल तक जारी नहीं रह सकती है.
कोर्ट ने यह भी कहा कि आरक्षण नीति की एक समय सीमा होनी चाहिए. वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे कहते हैं कि किसी भी पार्टी में सियासी इच्छाशक्ति का अभाव है. कोई भी आरक्षण खत्म नहीं कर सकता है, क्योंकि वोट सबको चाहिए. अभय दुबे बताते हैं कि 1973 में यूपी सरकार ने पद्दोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी, जिसके बाद 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को रद्द कर दिया था. 17 जून 1995 को केंद्र सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए 82वां संविधान संशोधन कर दिया. इस संशोधन के बाद राज्य सरकारों को प्रमोशन में आरक्षण देने का कानूनी हक मिला. 2002 में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण के लिए संविधान में 85वां संशोधन किया और एससी-एसटी आरक्षण के लिए कोटे के साथ वरिष्ठता भी लागू कर दी. एससी-एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण देने के एम नागराज के फैसले में 2006 में पांच जजों की पीठ ने संशोधित संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 16(4)(ए), 16(4)(बी) और 335 को तो सही ठहराया था, लेकिन कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण देने से पहले सरकार को उनके पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने होंगे.
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