Faisal Anurag
अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कारों के लिए इस बार एक ऐसे अर्थशास्त्री को भी चुना गया है, जिन्होंने न्यूनतम मजदूरी के बढ़ने से कर्मचारियों की कमी की प्रचलित धारणा को तोड़ा है. इस अर्थशास्त्री की यह भी मान्यता है कि प्रवासी मजदूरों को मिलने वाली नौकरी से मूल निवासी श्रमिकों के वेतन प्रभावित नहीं होते. दरअसल दुनिया भर में यह धारणा स्थापित की गयी है कि न्यूनतम मजदूरी के बढ़ने का असर आम श्रमिकों के वेतन पर पड़ता है और प्रवासी मजदूर मूल निवासियों के वेतन और नौकरी के लिए खतरा हैं.
दुनिया भर के अनेक शासकों ने अपनी नस्ली राष्ट्रवादी राजनीति के लिए इसे जोरशोर से प्रचारित कर धारणा को स्थापित कर दिया है. डोनाल्ड ट्रंप के शासन के समय प्रवासियों को लेकर जिस तरह के विवाद खड़े किए गए यह सर्वविदित है. इस अर्थशास्त्री का नाम है डेविड कार्ड कानाडामूल के हैं और इस समय अमेरिका के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं. इनके साथ ही दो अन्य अमेरिकी को भी पुरस्कार में साझा किया गया है. मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के जोशुआ डी. एंग्रिस्ट और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के गुइडो इम्बेन्स. नोबल की पुरस्कार समिति ने इस संदर्भ में कहा है इन तीनों ने ही आर्थिक विज्ञान में अनुभवजन्य कार्य को पूरी तरह से नया रूप दिया है.
कनाडा में जन्मे कार्ड ने अपने शोध में बताया कि न्यूनतम मजदूरी, आव्रजन और शिक्षा श्रम बाजार को कैसे प्रभावित करते हैं जबकि उनके साथ नोबेल पुरस्कार पाने वाले एंग्रिस्ट और इम्बेन्स ने परंपरागत वैज्ञानिक पद्धतियों पर शोध किया. पुरस्कार की आधी राशि कार्ड को मिलेगी जब कि आधी अन्य दोनों को. यह पुरस्कार 10 मिलियन स्वीडीश यानी 8 करोड़ 60 लाख रूपए का है. नोबेल आर्थिक विज्ञान समिति के अध्यक्ष पीटर फ्रेड्रिक्सन ने कहा, ‘समाज के लिए अहम सवालों के संबंध में कार्ड के अध्ययन और एंग्रिस्ट और इम्बेन्स के पद्धतिगत योगदान से पता चला है कि प्राकृतिक प्रयोग ज्ञान का एक समृद्ध स्रोत हैं.’ उन्होंने यह भी कहा ‘उनके शोध ने महत्वपूर्ण सवालों के जवाब देने की हमारी क्षमता में काफी सुधार किया है जो समाज के लिए बहुत फायदेमंद है.’
कार्ड ने देखा कि क्या हुआ जब न्यूजर्सी ने न्यूनतम वेतन 4.25 डॉलर से बढ़ाकर 5.05 डॉलर कर दिया. शोध में तुलना समूह के रूप में उन्होंने पूर्वी पेंसिल्वेनिया की सीमा पर स्थित रेस्टोरेंट का उपयोग किया. पिछले अध्ययनों के विपरीत उन्होंने और उनके दिवंगत शोध साथी एलन क्रुएगर ने पाया कि न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी का कर्मचारियों की संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. कार्ड ने बाद में इस मुद्दे पर काम
जारी रखा. नोबेल समिति ने कहा कि कुल मिलाकर शोध का निष्कर्ष यह है कि न्यूनतम वेतन में वृद्धि के नकारात्मक प्रभाव 30 साल पहले की तुलना में काफी कम हैं. कार्ड ने यह भी पाया कि किसी देश के मूल निवासियों की आय नए प्रवासियों से लाभान्वित हो सकती है.
दरअसल जब से ग्लोबलाइजेशन की नीतियों को अपनाया गया, उसकी सबसे ज्यादा मार न्यूनतम मजदूरी पर पड़ी है और प्रवासियों के स्वागत के लिए विकसित हों या विकासमान देश तैयार नहीं हैं. पिछले 30 सालों में दुनिया भर की राजनीति का दक्षिणपंथी झुकाव बढ़ा है. फासीवाद,निरंकुशता और एकाधिर हासिल कर लेना शासकों का शगल हो गया है और इसका लाभ चंद चुने गए कारपारेट डॉन उठा रहे हैं. इसकी गाज कमजोर श्रमिकों,प्रवासियों और शोधार्थियों पर पड़ी है.
एंग्रिस्ट और इम्बेन्स ने पद्धति संबंधी मुद्दों पर काम करने के लिए अपना आधा पुरस्कार जीता, जो अर्थशास्त्रियों को कारण और प्रभाव के बारे में ठोस निष्कर्ष निकालने में सक्षम बनाता है, भले ही वे सख्त वैज्ञानिक तरीकों के अनुसार अध्ययन नहीं कर सकते. एक तरह से देखा जाए तो डा. प्रो. अमर्त्य सेन के बाद कार्ड का महत्व यह है कि उन्होंने भी गरीब और वंचितों के आर्थिक न्याय का पक्ष लिया है और दुनिया के अंधराष्ट्रवादी राजनीति की मान्यताओं को बड़ी चुनौती दी है. दरअसल इस तकनीक संचालित दुनिया में श्रमिकों का महत्व लगातार कम हो रहा है और श्रम अधिकारों पर दुनिया भर में हमले हो रहे हैं. भारत में भी श्रमिकों के लिए नया कानून बना कर उनके काम के घंटे, नौकरी की सुरक्षा और मानवीय सुविधाओं पर अंकुश लगा दिया है. काड्र की मान्यता को एक ऐसे समय में मान्यता मिली है जब कोविड के बाद सारी दुनिया में आर्थिक विकास की गति नकारात्मक दिख रही है और दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यस्थाएं संकट से बाहर निकलने का समाधान नहीं ढूंढ पा रही हैं.
भारतीय के दो वैश्विक नागरिक प्रो. सेन और प्रो. अभिजित बनर्जी को इस पुरस्कार से नवाजा गया है. 1998 में प्रो. सेन को उनके वेलफेयर इकोनिमिक्स में योगदान के लिए और प्रो. बनर्जी को 2019 में वैश्विक गरीबी को कम करने के लिए उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के लिए इस पुरस्कार से नवाजा गया था.