Nishikant Thakur
बच्चा जब अपनी मां की कोख से जन्म लेता है, तो वह मांस का केवल एक जीता-जागता लोथड़ा होता है, लेकिन धीरे-धीरे भाव-शक्ल में बड़ा होने लगता है. ज्ञान के बढ़ने पर मनुष्य कहलाने लगता है. बाल्यकाल में वह न हिंदू होता है, न मुस्लिम, न सिख और न ही ईसाई. उस पर सबसे पहले पारिवारिक, फिर सामाजिक परिवेश का असर पड़ने लगता है. शिशु का सबसे बड़ा स्कूल उसका घर, उसका समाज तथा शैक्षिक स्थान होता है. कालचक्र के आधार पर फिर वह हिन्दू-मुस्लिम बनने लगता है. उसपर धर्म तभी से हावी होने लगता है, फिर अमीर-गरीब होने के भाव को समझने लगता है.
यह आज तक के इतिहास में, यही अब तक के अनुसंधान में कहा गया गया है. धर्म, जाति, समाज, अमीर-गरीब, हिन्दू-मुस्लिम सब भेद समझ में आने लगता है. वह शिशु, जो कल तक मिट्टी की मूरत था, आज वह समाज का उच्च वर्ग होता है, गरीब होता है, शिक्षित वर्ग होता है अशिक्षित वर्ग, खूंखार आतंकी और नक्सली बन जाता है. ऐसा इसलिए कि यदि भूमि समतल नहीं होगी तो फिर पूरे खेत में पानी कैसे फैलेगा और खेत की उपज बराबर कैसे होगी?
जन्मकाल से जिसने जो रंगरूप देखा, वह उसी रूप में ढलने लगता है. इस विषय पर रोज चर्चा होती रहती है कि देश ही नहीं, आतंकवाद विश्व की सबसे बड़ी समस्या बन गया है. उसी क्रम देखा जाए तो भारत में नक्सल, तो पाकिस्तान का ताजा उदाहरण है बलूच उग्रवादी संगठन. जहां बलूचिस्तानियों ने एक रेल का अपहरण करके दर्जनों सैनिकों सहित निरपराध यात्रियों को मौत की नींद सुला दिया और खून से जमीन को रंग दिया. यह कैसी सोच है.
भारत में पहले आतंकी संगठनों द्वारा आम निरपराध लोगों को मौत की नींद सुला दिया जाता था और यहां तक कि एक प्रधानमंत्री को तो उनकी सुरक्षा में तैनात गार्डों ने ही गोलियों से छलनी कर मौत की नींद सुला दिया था. जबकि, नक्सली अब भी सैकड़ों निरीह लोगों तथा पुलिस/सुरक्षा बलों के जवानों को मौत की नींद सुला रहे हैं. ऐसी शिक्षा कहां और किसके द्वारा दी जाती है?
यह पता तो लगाना ही पड़ेगा और उसका शीघ्र से शीघ्र निदान भी करना पड़ेगा. वे कब तक और आघात करके खून की नदियां बहाते रहेंगे. वैसे, आतंकवाद पर सरकार ने लगभग काबू पा लिया है, लेकिन नक्सली समूह अभी भी सक्रिय हैं और दिनोंदिन राष्ट्र की कानून-व्यवस्था को आघात पहुंचा रहा है. भारतीय अखंडता को खंड-खंड करने का प्रयास कर रहा है? गृहमंत्री ने देश की जनता को विश्वास दिलाया है कि नक्सली समूह को खत्म करके रहेंगे, और उसी क्रम में सरकार ने अपना काम शुरू भी कर दिया है.
नक्सलियों के जन्म के कई दशक हो गए. सरकार द्वारा इसे सुलझाने के प्रयास किए जाते रहे, लेकिन पता नहीं, इस प्रकार के लोग किस मिट्टी के बने होते हैं कि उनकी समझ में ही यह बात नहीं आती कि उन्हें जो इस तरह हिंसक बनाने के लिए उनकी पीठ को ठोक रहा है, वे उनकी सहज उपलब्धता का बेजा फायदा उठा रहे हैं. ऐसे लोग इस तरह ‘तोता’ बना दिए जाते हैं कि उन्हें सरकार द्वारा कितनी ही मदद क्यों न दी जाए, वह यह समझ ही नहीं पाते और सदैव विपरीत दिशा में सोचते रहते हैं.
नक्सली न तो अपने विकास के लिए सड़क, बिजली, पानी चाहते हैं, न ही शिक्षा के लिए स्कूल-कॉलेज ही बनने देना चाहते हैं. उनका विकास कैसे होगा! बिना यातायात, बिना बिजली-पानी, सुरक्षा और शिक्षण संस्थान वह समाज की मुख्य धारा से कैसे जुड़ पाएंगे! फिर प्रश्न यही खड़ा होता है कि सरकारी तंत्र यदि उनके विकास की बात करता है, तो भी विकास कैसे होगा. नक्सली संगठनों द्वारा जिस प्रकार सरेआम सुरक्षा बल के जवानों को बमों से उड़ा दिया जाता है, वह मन को विचलित करने वाला होता है. ऐसी स्थिति में कैसे होगा विकास, कैसे संभव होगी देश के साथ कदम से कदम मिलकर चलने की बात.
अब रही सरकार की बात. सरकार तो बार-बार उन्हें समझाने का प्रयास कर रही है. जो उनके नायक बनकर बाहर शहरों में हमारे आपके पास गुप्त रूप से घूमते रहते हैं, उस स्लिपर सेल को कैसे काबू किया जाए. समाज के बीच ही रहने वाले जब उनके मुखबिर हो जाएंगे, तो सचमुच उनकी समझ में कैसे कुछ आएगा. इसलिए हमारे बीच जो उनका स्लिपर सेल है, उसपर कड़ी नजर रखना पड़ेगा, तभी इन सीधे-सादे लोगों तक सरकार का सही संदेश पहुंच पाएगा और जब उनकी अपनी बात ही सरकार द्वारा कही जा रही है, यह समझ में आ जाएगी, तभी समस्या के समाधान में हम एक कदम आगे बढ़ पाएंगे.
सच मानिए तो उनसे किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है, वे भी तो हमारे भारत के नागरिक हैं, उन्हें भी तो संविधान ने वह समस्त अधिकार दिए हैं, जो सामान्य नागरिकों के लिए संविधान निर्माताओं ने दिया है. सच जानिए तो इस समाज के लिए अपने नियम और कानून और भी उदार हैं तथा उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त है, लेकिन प्रश्न यह है कि उन्हें इस तरह की पट्टी पढ़ाकर, दिग्भ्रमित करके उनके आकाओं ने नफरत की दीवार को इतना बड़ा कर दिया है कि उनकी भलाई की बात जो करते हैं, उन्हें ही वह अपना दुश्मन मानने लग जाते हैं.
यही तो हुआ था सन 1972 में, जब सभी प्रकार के प्रयास में सरकार विफल रही, तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण और बाबा विनोबा भावे कमान संभालते हुए चंबल की घाटी में दस्यु समस्या के समाधान के लिए आगे आए थे. एक से एक दुर्दांत दस्युओं ने जगह-जगह महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने अपने हथियार सौंपते हुए एक नई जिंदगी की शुरुआत करने का वचन दिया.
उधर, सरकार की ओर से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों ने उन्हें आश्वस्त किया कि उनमें से किसी को फांसी की सजा नहीं दी जाएगी. क्या इस तरह का कोई जन नायक अब देश में नहीं है, जो इन नक्सलियों को ऐसा करने के लिए आश्वस्त कर सके. वैसे, सरकार ने धीरे-धीरे उनके हित के लिए काम करना शुरू कर दिया है, जिस क्रम में पहला कार्य सरकार द्वारा उनको जोड़ने के लिए मोबाइल टावर लगाने का प्रयास किया और वह कार्य सफल भी रहा है. इसी तरह के और विकास के कार्य को यदि बढ़ाया जाता है, तो ऐसा कोई हो ही नहीं सकता, जो अपने हित के लिए किए जा रहे कार्यों के खिलाफ आतंक का वातावरण बनाता रहे.
समाज का हर व्यक्ति यहां तक कि पशु-पक्षी भी अपने लिए आसरा खोजता है. सबसे पहले इस बिगड़ैलों को मुख्य धारा में लाना चाहिए और बारम्बार उस प्रयास को जारी रखना चाहिए. वह कोई और नहीं, हमारे भारत के ही लोग हैं जिन्हें हर सामान्य व्यक्ति की तरह मतदान करने का अधिकार है, लेकिन यहां प्रश्न यह है कि इस कठिन पाठ को उन्हें कौन समझाए जो राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़कर बिना सोचे-समझे अलग होते जा रहे हैं और अविकसित जीवन जीने के लिए मजबूर हो गए हैं.
अब एक बार फिर देश को लोकनायक जयप्रकाश नारायण और बाबा विनोबा भावे जैसे महापुरुषों की जरूरत है. क्या देश आज इस प्रकार जननेताओं से विहीन हो गया है? यदि ऐसा नहीं, तो फिर उन्हें सामने आना चाहिए, ताकि ऐसे बिगड़े हुए व्यक्तियों को भारत की मुख्य धारा से जोड़ सके? ऐसा इसलिए कि मार-काट की जिंदगी आखिर कबतक जीते रहेंगे?
डिस्क्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं.