Shyam Kishore Choubey
अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीति से पिंड छूटने के बाद झारखंड बिहार का उपनिवेश बना हुआ था. इससे उबरने की छटपटाहट ने प्रचंड आंदोलनों को जन्म दिया था. बड़े राजनीतिक दल इसमें अपने-अपने स्वार्थ का गुणा-भाग कर रहे थे. सो, ना-नुकुर के साथ ही सही, साढ़े बाइस साल पहले झारखंड को राज्य बना दिया गया. तब लगा था, जैसा कि लालू प्रसाद ने कहा था, सारा सोना यहां आ गया और धन-धान्य से लेकर रोजी-रोजगार तक की बरसात होगी. एक वह समय था और एक आज का समय है. सरकारी महकमों में 60 फीसदी से अधिक पद खाली हैं. सरकारें बदलती रहीं. 19 साल में 11 सरकारें बनीं. हर संभावित राजनीतिक गठबंधन को सत्ता हासिल हो गई. मौके ऐसे भी आए, जब रांची और दिल्ली में समान राजनीतिक गुण-धर्म की सरकारें रहीं. हर बार एक ही सियासी जुमला सुनने को मिला, हम झारखंड को नंबर एक राज्य बना देंगे. बना क्या?
देश की लगभग 40 प्रतिशत खनिज संपदा कोख में समेटे 30 फीसद वन क्षेत्र वाला यह राज्य न तो अपनी पहचान पा सका, न ही रोजी-रोजगार. 17 अप्रैल से झारखंड स्टेट स्टुडेंट्स यूनियन, आदिवासी छात्र संघ, आदिवासी जन परिषद आदि के 72 घंटे के आंदोलन की कहानी इसी पहचान और रोजी-रोजगार की तड़प की दास्तान तो नहीं? इसके पीछे भले ही कोई राजनीतिक शक्ति काम कर रही हो, लेकिन यह नुकसान तो पहुंचा ही रहा है.
झारखंड बनाने के लिए दशकों तक आंदोलन चला और जब बन गया, तब झारखंडियों के लिए आंदोलनों का दौर प्रारंभ हो गया. इस दौर से एक भी सरकार मुक्त न रही. अब जबकि हर संभावित राजनीतिक समूह की सरकारें निराश कर चुकी हैं, तो बड़ा ही मौजूदा सवाल है, यह पठारी राज्य किस विकल्प की तलाश करें? जवाब तो इतना ही है, राजनीतिक उपनिवेश में पिसते रहो. लूट कथाओं और राजनेताओं-नौकरशाहों-बिचौलियों की तिकड़ी की कारस्तानियों को थोड़ी देर के लिए भूल भी जायें तो सवाल बार-बार, सरकार-दर-सरकार उठता रहा है, स्थानीयता की पहचान दो. ऐसी पक्की नियोजन नीति बनाओ, ताकि सुचारू रूप से बहालियां हो सकें.
विधानसभा के एक-एक कार्यकाल में तीन-तीन, चार-चार सरकारों का दौर खत्म हुआ तो पक्की-मजबूत सरकार के कार्यकाल में दो-दो, तीन-तीन नियोजन नीति का दौर प्रारंभ हो गया. बड़ी हसरतों से बैठाई गई हेमंत सरकार तकरीबन साढ़े तीन साल के अबतक के अपने कार्यकाल में तीन नियोजन नीतियां ला चुकी है. युवा आंदोलन न करें तो क्या करें? स्थानीयता और नियोजन जैसे अहम मसलों पर हमारी सरकारों की नीतियां अदालतों में अक्सर नहीं टिकतीं. सवाल तो बनता है, महाधिवक्ता और उनका सेक्रेटेरियट और सरकार का विधि विभाग क्या करते हैं? वे विधि-सम्मत नीतियां नहीं बनवा सकते तो उनकी उपयोगिता सवालों के घेरे में आएगी ही. केवल राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए वे काम करेंगे तो अवाम की खुशी छिननी तय है.
औसतन 1,100-1,500 एमएम वर्षा वाले राज्य के बड़े इलाके में खेत सूखे पड़े रहते हैं, गर्मियों के पहले ही पीने के पानी का हाहाकार मचने लगता है, बिजली का आना-जाना लगा रहता है, बहुतेरे स्कूलों में एक ही शिक्षक होते हैं, स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर नित-नये निजी अस्पताल खुलते रहते हैं तो अवाम सरकार को खोजें कहां? जैसे झारखंड गठन के लिए प्रायः हर राजनीतिक दल ने आंदोलन किया, विधानमंडलों में एकमत रहे, वैसे ही झारखंड को पहचान दिलाने के लिए, विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए सभी दल एकमत क्यों नहीं होते? वोट-बैंक के लिए अलग-अलग राजनीतिक समूह अलग-अलग एजेंडों पर काम करते हैं. इसी कारण उनकी निष्ठा और पवित्रता पर संदेह होता है. हर चुनाव में तकरीबन 50 फीसद विधायकों को बदल देने की अवाम की रवायत पर वे सोचें तो सही.
राज्य-सत्ता के माध्यम से झारखंड को इसका देय नहीं मिलने के लिए हर राजनीतिक दल समान रूप से दोषी है, क्योंकि हर राजनीतिक दल सत्ता में या उसके सहयोग में रह चुका है. पर्वतों-जंगलों की शृंखलाओं वाले इस राज्य में अनेक खतरनाक जलेबिया घाटियां हैं, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों की जलेबिया घाटियों से वे कम ही खतरनाक हैं. ताजा घटनाक्रम के लिए तरोताजा उदाहरण ही देना सही रहेगा, अन्यथा पहले के भी कई उदाहरण हैं. सरकार ने दो फरवरी को कैबिनेट की मार्फत राज्य में 60 प्रतिशत आरक्षण वाली नियोजन नीति लागू की, जिससे 24 में से सात जिले ओबीसी आरक्षण विहीन हो गये. इस नीति को रद कर 1932 के खतियान के आधार पर नियोजन नीति बनाने की मांग लेकर मार्च से आंदोलन प्रारंभ हो गया. बजट सत्र के अंतिम दिन 23 मार्च को विधानसभा के निकट पुलिस को आंदोलनकारियों पर लाठियां भांजनी पड़ी.
संताल, कोल्हान आदि क्षेत्रों में आंदोलन के बाद 17 अप्रैल को मुख्यमंत्री आवास के निकट भी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसाईं. इतने लंबे अंतराल में हुक्मरान उन्हें समझा नहीं पाये, तसल्ली नहीं दे पाये. विधानसभा में तो यह कहकर निकल गये कि हमने नवंबर में 77 प्रतिशत आरक्षण का एक्ट दिल्ली को भेज दिया. कर्मियों की कमी के कारण कई कार्य बाधित होते हैं, इसलिए फौरी तौर पर नई नीति लानी पड़ी है. जनाब, कर्मियों की कमी कौन दूर करेगा? हमारी सरकारें ऐसी नीति बनाती ही क्यों हैं, जो कोर्ट में टूट जाएं और बहाली संबंधी विज्ञापन बार-बार रद करने पड़ें? ऐसे विज्ञापनों पर खर्च राजकोष की भरपायी करेगा कौन? ऐसे सवालों से कोई भी सरकार मुक्त नहीं रही है, चाहे वह जिस गठबंधन की सरकार रही हो. जनता क्या राजनेताओं और राजनीतिक दलों को वोट देकर सिंहासन पर बैठाने मात्र के लिए है?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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