Faisal Anurag
जॉर्ज फर्नांडीस का राजनीतिक सफर एक विद्रोही मजूदर नेता से शुरू हुआ और अंतिम दिनों में उपेक्षा और त्रासदी में बदल गया. इस बीच ताबूत घोटाले ने जॉर्ज फर्नांडिस की तमाम राजनीतिक कमाई को बदनामी में बदल दिया. इमरजेंसी के दौर के डाइनामाइट कांड ने जॉर्ज को एक बड़ी पहचान दी. 1977 में मुजफ्फरपुर से जेल में रहते हुए वे साढ़े तीन लाख के अंतर से लोकसभा के लिए चुने गए. 3 जून 1930 को कर्नाटक के मंगलूर में पैदा हुए जॉर्ज ने क्रिश्चियन पादरी होने की पढ़ाई की. 10 भाषाओं में पारंगत हुए, लेकिन उनका मन धर्म के मायाजाल में नहीं रमा. वे तब बंबई पहुंच गए और समाजवादी पार्टी तथा मजदूर आंदोलन के लिए जीवन समर्पित करने का एलान कर दिया.
बंबई के टैक्सी चालकों की हड़ताल के नेतृत्व ने जॉर्ज को राष्ट्रीय पहचान दी. 1974 में रेलवे के 14 लाख मजदूरों की सबसे बड़ी हडताल का नेतृत्व जॉर्ज ने ही किया था. इस हड़ताल के बाद जॉर्ज का नाम दुनिया भर के मजदूर नेताओं में गिना जाने लगा. इस हड़ताल के दौरान चीनी नेता माओत्से तुंग के नाम उनके लिखे पत्र ने बाद में उन्हें विवाद में भी डाल दिया. महाराष्ट्र के सोशलिस्ट आंदोलन में वह दौर मधु लिमय, एस.एम.जोशी, नानाजी गोरे, मृणाल गोरे और मधु दंडवते के राष्ट्रीय फलक पर उभरने का था. इस सूची में जॉर्ज भी शामिल हो गए. सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति की त्रासदी, उनका बिखराव और फिर एक होने की लंबी दास्तान है. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के रूप में विभाजित सोशलिस्टों के अनेक बिखराव हुए. मधु लिमय और जॉर्ज फर्नांडिस ने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की राह पकड़ी. 1967 से 2009 के बीच वे लोकसभा के लिए नौ बार चुने गए. 1977 में मोरारजी देसाई सरकार में जॉर्ज को पहली बार केंद्रीय मंत्री बनाया गया.
लेकिन जॉर्ज के जीवनवृत्त को केवल उनकी संसदीय उपलब्धियों से नहीं समझा जा सकता है. डायनामाइट कांड, जिसमें बड़ौदा से डायनामाइट का प्रबंध किया गया था, को जॉर्ज ने इमरजेंसी के खिलाफ हिंसक विध्वंस की रणनीतिक के बतौर इस्तेमाल करने का निर्णय किया था. लेकिन वे जल्द ही गिरफ्तार हो गए और उन पर संगीन धाराओं में मुकदमा चलाया गया. इमरजेंसी के इतिहास की मुकम्मल समझ के लिए उस प्रवृत्ति को जानना जरूरी है, जो जयप्रकाश नारायण के शांतिपूर्ण प्रतिरोध के बरखिलाफ एक समांतर प्रक्रिया की ओर इशारा करती है.
जॉर्ज की राजनीतिक दास्तान उनके कांग्रेस के अंध विरोध की राजनीति के बगैर नहीं समझा जा सकता है. मधु लिमय जैसे समाजवादी नेता जिस दौर में आरएसएस और भाजपा के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के आसन्न खतरों को लेकर देश का सावधान कर रहे थे. जॉर्ज उन नेताओं में रहे जिन्होंने इससे अलग राह चुनी. डॉ. लोहिया के बाद समाजवादी पार्टी में मधु लिमय और किशन पटनायक ही ऐसे नेता थे, जिन्होंने बुनियादी तौर पर साम्राज्यवाद, उभरते कॉरपोरेटवाद और सांप्रदायिकता के खतरों को लेकर लगातार सचेत लेखन किया.
लेकिन किसी जमाने में प्रतिपक्ष पत्रिका के हिंदी और अंग्रेजी संस्करण के माध्यम से जॉर्ज की राह जुदा होती गयी. इसकी पहली झलक समता पार्टी के गठन के साथ दिखी. हालांकि समता पार्टी ने अपने पहले चुनाव में भाकपा माले से तालमेल किया. लेकिन कुछ ही समय बाद वे भाजपा के साथ हो लिए. कांग्रेस विरोध और लालू प्रसाद के खिलाफ जॉर्ज ने यह कदम उठाया.
जॉर्ज की राजनीतिक जिंदगी में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के गठन की बड़ी भूमिका थी. वे लंबे समय तक एनडीए के अध्यक्ष रहे. अटल बिहारी वाजपेयी का यह राजनीतिक हुनर ही था कि उन्होंने 22 परस्पर विरोधी दलों को एनडीए का घटक बनाया. इतने बड़े पैमाने पर विपक्ष के इतने दलों का एक मोर्चा वाजपेयी के राजनीतिक हुनर और करिश्मा को ही बताता है. जब तब वाजपेयी रहे, एनडीए एकजुट रहा. अपवाद के तौर पर जयललिता परिघटना है. लेकिन नरेंद्र मोदी के उभार के साथ ही इतने विपक्षी दल साथ नहीं रह पाए. दरअसल एनडीए के वे बुनियादी सूत्र थे : राम मंदिर, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड को दरकिनार रखना. यह वह दौर था, जब भाजपा रामरथ पर सवार हो कर संसदीय कामयाबी की ओर बढ़ रही थी. लेकिन एनडीए के लिए वाजपेयी ने उसी राम मंदिर के सवाल को उसने हाशिए पर रखा. इस नीति को अमली जामा पहनाने में जिन नेताओं की भूमिका थी, उसमें जॉर्ज भी एक थे.
इस संदर्भ में आज के एनडीए तुलना की जा सकती है. एनडीए भाजपा की छाया भर है. नरेंद्र मोदी का सहकारी संघवाद मौखिक जुमला भर रह गया है, जबकि वाजपेयी ने इसी संघवाद के सूत्र से न केवल एनडीए के घटकों बल्कि विपक्ष के अन्य दलों के बीच एक संवाद का पुल बनाया. यह सवाल कई बार उठता है कि जॉर्ज यदि होते तो क्या वे मोदी की नीतियों के साथ खड़े होते. 2002 के गुजरात संहार में उनकी मोदी के प्रति नरम रुख से ही इसका आकलन किया जा सकता है. कारगिल युद्ध के समय का ताबूत घोटाला उनकी राजनीति के ताबूत की भी आखिरी कील साबित हुआ. जॉर्ज की विद्रोही शुरूआत पर एक बदनुमा दाग की तरह है. जिन नेता ने पहली बार 14 लाख रेलवे मजदूरों को संगठित कर हड़ताल के लिए तैयार किया हो, वह एक ताबूत के घोटाले के दाग से बदनाम हुआ.
जिस नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में जॉर्ज की बड़ी भूमिका रही, उसी नीतीश ने समता पार्टी का विभाजन किया. बाद में जदयू बनाया. वह दौर भी आया जब उन्हें लोकसभा टिकट के लिए तरसाया गया. अंतिम दिनों में डिमेंसिया से उन्होंने ग्रस्त होकर याददाश्त खो दी. उन्हें देखने तो उनके समाजवादी साथी भी कम ही जाते थे. जया जेटली ने उनकी देखभाल करती रहीं और बेहतरीन दोस्त का उदाहरण पेश किया. 29 जनवरी 2019 के जॉर्ज का अवसान एक त्रासदी है. जिसमें समाजवादी क्रांति करने निकला एक नौजवान न केवल सत्ता के संघर्ष के तमाम जोड़तोड़ करने वाला बन गया, बल्कि अपने समाजवादी उसूलों से भी समझौता किया. वे मधु लिमय से अलग एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जाने जाते रहे, जिसके पास बुनियादी बदलाव का सपना शेष नहीं बचा.
बढ़िया सटीक विश्लेषण. आजाद भारत की समाजवादी राजनीति के लगभग अवसान.का ‘आदर्श’ उदाहरण है जॉर्ज का पतन. फैसल जी का पुराना तेवर अच्छा लगा.
1974/75 या ’77 तक के जॉर्ज को सलाम.
-श्रीनिवास
फैसल दा बहुत ही उम्दा विश्लेषण है।