Faisal Anurag
जिनके नाम पर विश्वविद्यालय का नाम हैं, उनके ही विचारों को उसी विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है. जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय में अब जयप्रकाश नारायण यानी जेपी के विचारों को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया है. इन्हीं जयप्रकाश नारायण को बिहार के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री अपना मार्गदर्शक घोषित करते रहते हैं. जेपी आंदोलन पर सवार हो कर ही जनसंघ मुख्यधारा में पूरी तरह स्थापित हुआ, जो आजकल भारतीय जनता पार्टी है. यही नहीं समाजवादी विचारक डॉ राम मनोहर लोहिया को भी पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया है. डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद ने ही 7 राज्यों में समाजवादियों के साथ जनसंघ को 1967 में सत्ता का पहला स्वाद दिया था. जेपी और लोहिया गांधीधारा के ऐसे समाजवादी विचारक रहे हैं, जिन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार किया. लोहिया के भारतीय संस्कृति विषयक पुस्तकों की मौलिकता सर्वविदित है. हिंदू बनाम हिंदू और राम, कृष्ण और शिव की लोहिया व्याख्या ने हजारों युवाओं को वैचारिक रूप से परिपक्व बनाने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है. तो क्या लोहिया जेपी के विचार भी खतरनाक हो गए हैं. विश्वविद्यालय तो यही संकेत दे रहा है.
पाठ्यक्रमों से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय ने आदिवासी जीवन के सत्य को उजागर करने वाली महाश्वेता देवी की कहानी को पाठ्यक्रम से बाहर किया. महाश्वेता जी के साथ तीन और दो दलित लेखकों की किताबों को बाहर कर दिया गया. हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों में जिस तरह के पाठ्यक्रम बदलाव हो रहे हैं, उसके राजनीतिक सरोकारों और पक्षधरता को नकारा नहीं जा सकता है. महाश्वेता देवी का लघु उपन्यास द्रौपदी जिसमें एक आदिवासी युवती की प्रताड़ना और संघर्ष को रेखांकित किया है. भारतीय आदिवासी इलाकों की वह सच्चाई है, जिससे मुंह फेर लेने का अभिजात रवैया हावी है. विश्वविद्यालय विचार,बहस और ज्ञान की विविधता का केंद्र होता है. लेकिन भारत में एक प्रवृति यह देखी जा रही है. यह प्रवृति शैक्षणिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर रही है. दुनिया के स्तर की रैंकिंग में भारत के विश्वविद्यालय पहले से ही शीर्ष 500 में भी शामिल नहीं है.
एक समय तीसरी दुनिया और दक्षिण एशिया के छात्रों के लिए भारत शिक्षा हासिल करने के आकर्षण का केंद्र था. भारत का वैज्ञानिक नजरिया इन देशों के छात्रों को एक खास किस्म का नजरिया प्रदान करता था. लेकिन विश्वविद्यालयों पर जिस तरह के वैचारिक हमले हुए हैं, उससे भारत के शैक्षणिक माहौल में असंतोष बढ़ता जा रहा है. जेपी विश्वविद्यालय सारण ने न केवल जेपी और लोहिया के राजनीतिक विचारों के टेक्सट को हटाया है, बल्कि बाल गंगाधर तिलक, राजाराम मोहन राय और एम.उन राय जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के टेक्सट को भी बाहर किया है. तिलक की यह उक्ति स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, आजादी की लड़ाई का मूलमंत्र बन गया. भारत आजादी का हीरक जयंती वर्ष मना रहा है और इसी दौर में स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों को विश्वविद्यालय शिक्षा से बाहर करना बताता है कि शिक्षा जगत में किस तरह के बदलाव किए जा रहे हैं. बिहार की राजनीति में लोहिया और जेपी के महत्व सर्वविदित हैं. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने विश्वद्यिालय के कदम पर क्षोभ प्रकट करते हुए कहा है, 30 साल पहले जेपी की कमभूमि में उनके ही कार्यकाल में इस विश्वविद्यालय की नींव रखी गयी थी.
दिल्ली या जेपी विश्वविद्यालय अकेले नहीं है. रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती पिछले पांच सालों से राजनैतिक शक्ति प्रदर्शन का केंद्र बना दिया गया है. इस विश्वविद्यालय की गरिमा इस समय सबसे निचले स्तर पर हैं. इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की पहचान और प्रवृति को खत्म कर देने की प्रक्रिया बताती है कि महापुरूषों को चाहे जितना याद किया जाए, उनके विचारों को नष्ट कर देने की राजनीति कितनी हावी है.
भारत के इतिहास को बदलने के नाम पर महापुरूषों के विचारों से ही खिलवाड़ करने का खतरा साफ दिख रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय ने दलित लेखकों बामा और सुखरथरिनी की किताबों को पाठ्यक्रम से हटाना बताता है कि किसी तरह पुरातनपंथी ताकतों ने विश्वविद्यलयों से दलित विमश्र को बाधित करने का प्रयास किया है. इस मुछ्दे पर विवाद लगातार गहराता जा रहा है. सवाल पूछा जा रहा है कि विचारों की विविधता और परंपराओं पर सवाल उठाने वाले लेखकों के साथ भेदभाव क्यों किया जा रहा है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों का एक समूह कह रहा है कि यह बदलाव असंवैधानिक है, जहां एक ओर शिक्षक और छात्र हैं, तो दूसरी तरफ़ कुछ वो लोग हैं, जो फ़ैसला करेंगे कि शिक्षक क्या पढ़ाएं और छात्र क्या पढ़ें. ये ख़तरनाक है और ये एक तरह से सेंसरशिप की ओर ले जाता है. महाश्वेता देवी ने तो आदिवासी जीवन के ऐसे तथ्यों को उकेरा है, जो अभिजनों को नापसंद है. दिल्ली विश्वविद्यालय को छीन अनिता रामपाल ने मीडिया को दिए बयान में कहा है ऐसा ही विवाद पहले भी सामने आया था, जब जाने-माने लेखक एके रामानुजन के रामायण लेखन को इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल करने को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही थी. अब यहां दलित लेखन हटाया जा रहा है, तो क्या ये बताने की कोशिश है कि हिंदुत्व की राजनीति में किसे आवाज़ मिलेगी और किसे नहीं.
दरअसल पाठ्यक्रमों की राजनीति ने भारतीय शैक्षणिक माहौल में जहर घोल दिया है. यह जहर ऐसा है, जो देश में विज्ञानिक नजरिए से समाज के विश्लेषण की विविधताओं के दरवाजे बंद करता है. घुटन भरे महौल में सबसे ज्यादा नुकासन तो उन छात्रों का ही होना है, जो वैश्विक स्तर से प्रतिस्पर्धा करने का इरादा रखते हैं.