पाकिस्तान का अस्थिर लोकतंत्र दक्षिण एशिया की शांति के लिए खतरा
Faisal Anurag पाकिस्तान जिस राजनैतिक उठापटक का शिकार है उससे दक्षिण एशिया की शांति प्रभावित हो सकती है. इमरान खान के खिलाफ नेशनल एसेंबली में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव के बाद के हालात ने दक्षिण एशिया के देशों की चिंता बढ़ा दी है.इतना तो अब स्पष्ट होता जा रहा है कि इमरान खान सत्ता शायद ही बचा सकें. अस्थिर पाकिस्तान आतंकवादियों का एक बार फिर बड़ा पनाहगाह बन सकता है, क्योंकि उसकी जड़े वहां गहरे रूप में मौजूद हैं.भारत के पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद जिस तरह मानवाधिकार का हनन हो रहा है और अफगान नागरिक मुसीबतों के शिकार बन रहे हैं. पाकिस्तान में भी तालिबान की मौजूदगी है और वह राजनैतिक उठापटक का लाभ उठा सकता है. इमरान खान के विरोध में खड़े मोर्चे में ऐसे तत्व मौजूद हैं. जिनके तालिबान से गहरे रिश्ते हैं. इमरान खान के चार सालों के कार्यकाल में भारत पाकिस्तान के संबंधों में सुधार नहीं देखा गया. भारत कहता रहा है कि आतंकवाद का समर्थन और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते. हालांकि इमरान खान कहते रहे हैं कि वह भारत सहित तमाम पड़ोसियों से बेहतर संबंध बनाना चाहते हैं, लेकिन इमरान खान भी सत्ता को नियंत्रित करने वाले सिस्टम, जिस के केन्द्र में सेना है, को तोड़ नहीं पाए.दरअसल सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र अब भी सेना के रहमोकरम पर है. स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता और दक्षता पाकिस्तानी नेतृत्व की सबसे बड़ी कमी रही है. अविश्वास प्रस्ताव के बाद परस्पर विरोधी विपक्ष का गठबंधन कितना टिकेगा इसे लेकर भी कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. मुस्मिल लीग नवाज और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बीच सहज संबंध नहीं रहा है. फजलुर रहमान की पार्टी जमान उलमा ए इस्लाम एक कट्टर पार्टी है. फजलुर रहमान को भी कट्टरता का समर्थक माना जाता है. इस समय रहमान ही विपक्ष के तीन दलों के गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं.पाकिस्तान की त्रासदी यह है कि उसे एक इंडोनेशिया या तुर्की की तरह आधुनिक राष्ट्र बनाने वाले नेता का जबरदस्त अभाव है. क्रिकेट के सफल कप्तान और लंबे समय से पश्चिम में रहने के बावजूद इमरान भी देश की अंदरूनी राजनीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला सके जबकि वे सत्ता में आए ही थे तब्दीली के नारे के साथ. लेकिन न तो वे पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर रिश्ता बना सके और न ही अंदरूनी राजनीति का नया चेहरा बन सके. इसका बड़ा कारण तो सेना पर उनकी निर्भरता ही रही और दूसरा बड़ा कारण यह है कि पाकिस्तान की सामाजिक हकीकत यह है कि बड़ी आबादी `इस्लामी अमीरीयत` को लेकर सकारात्मक नजरिया रखती है. पाकिस्तान की पूरी राजनीति जिन जमींदारों और बडेरो के कब्जे में है वे किसी तरह यथस्थिति में सुधार के पक्ष में नहीं है.पाकिस्तानी मीडिया की खबरें और विश्लेषण इमरान खान के मोहभंग की कहानी सुना रहे हैं. पाकिस्तान की राजनीति में भी परिवारों की विरासत का गहरा असर है और पश्चिमी देशों में पाकिस्तानी राजनेताओं ने बेशुमार दौलत जमा कर रखा है. भुट्टो जरदारी और शरीफ खानदानों के वर्चस्व को इमरान तोड़ नहीं पाए. इमरान खान ने इस पर प्रहार तो जरूर किया, लेकिन नौकरशाही,अदालत और सेना का साथ उन्हें नहीं मिला. पाकिस्तानी सेना से रिटायर अनेक अफसरों की दौलत पाकिस्तानी अर्थनीति में एक बड़ी भूमिका है और सेना नहीं चाहती कि राजनीति में उसकी दखलअंदाजी को खत्म कर दिया जाए. इमरान खान सहित पाकिस्तान के किसी भी नेता में वह हिम्मत नहीं दिखी है कि सेना के राजनैतिक दखल और रसूख को नजरअंदाज कर सके. यही कारण है कि जनरल मुशर्रफ के बाद का लोकतंत्र दरअसल पाकिस्तानी सेना की पटकथा से जुदा नहीं हो सका है. इसी कारण पाकिस्तान में चुन कर आया कोई भी नेता पांच साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर सका है. इस समय भी अविश्वास प्रस्ताव को लेकर सेना की अंदरूनी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. दक्षिण एशिया की आर्थिक उन्नति सभी देशों में लोकतंत्र के कामयाब हुए बिना नहीं हो सकती. बांग्लादेश ने कम समय में ही जिस तरह आर्थिक प्रगति की है. उसके पीछे कामयाब लोकतंत्र की बड़ी भूमिका है. पाकिस्तान की बदहाली का एक बड़ा कारण अस्थिर लोकतंत्र भी है. [wpse_comments_template]

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