alt="" width="600" height="400" /> एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के सभी पद वर्षों से रिक्त पड़े हैं. विभागाध्यक्ष तारकेश्वर सिंह मुंडा ने बताया कि राज्य गठन के बाद से अब तक विभाग में कोई स्थायी बहाली नहीं हुई है.इस लचर व्यवस्था का सीधा असर छात्रों के भविष्य पर पड़ रहा है. हर साल कई छात्र नेट और जेआरएफ जैसी अहम परीक्षाएं पास करते हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण उनकी उच्च शिक्षा बाधित हो रही है. विभागीय उपेक्षा के चलते पंचपरगनिया भाषा दम तोड़ती नजर आ रही है, जिससे झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता पर गहरा संकट मंडरा रहा है. क्या यही है भाषाई संरक्षण की असली तस्वीर : सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की उदासीनता के चलते यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या क्षेत्रीय भाषाओं को केवल घोषणाओं और योजनाओं में ही जीवित रखा जाएगा? या फिर जमीनी स्तर पर ठोस कदम उठाकर इन्हें पुनर्जीवित किया जाएगा?
दम तोड़ रहा पंचपरगनिया भाषा विभाग: न शिक्षक, न बहाली

Basant Munda Ranchi : झारखंड की पहचान उसकी आदिवासी-मूलवासी संस्कृति, भाषा, रहन-सहन और खानपान से होती है. इसी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने और उसे वैश्विक मंच पर पहचान दिलाने के उद्देश्य से राज्य में जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण के लिए रांची विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी. विश्वविद्यालय में पांच जनजातीय और चार क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई की व्यवस्था है, लेकिन विडंबना यह है कि पंचपरगनिया जैसी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय भाषा का विभाग बदहाल स्थिति में है. शैक्षणिक सत्र 2024–26 के लिए पंचपरगनिया भाषा में 60 सीटें निर्धारित की गई हैं, लेकिन नामांकन केवल 16 छात्रों का ही हुआ है. विभाग की शिक्षा व्यवस्था इस समय एक मात्र अनुबंधित शिक्षक और पांच शोधार्थियों के भरोसे चल रही है.
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alt="" width="600" height="400" /> एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के सभी पद वर्षों से रिक्त पड़े हैं. विभागाध्यक्ष तारकेश्वर सिंह मुंडा ने बताया कि राज्य गठन के बाद से अब तक विभाग में कोई स्थायी बहाली नहीं हुई है.इस लचर व्यवस्था का सीधा असर छात्रों के भविष्य पर पड़ रहा है. हर साल कई छात्र नेट और जेआरएफ जैसी अहम परीक्षाएं पास करते हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण उनकी उच्च शिक्षा बाधित हो रही है. विभागीय उपेक्षा के चलते पंचपरगनिया भाषा दम तोड़ती नजर आ रही है, जिससे झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता पर गहरा संकट मंडरा रहा है. क्या यही है भाषाई संरक्षण की असली तस्वीर : सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की उदासीनता के चलते यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या क्षेत्रीय भाषाओं को केवल घोषणाओं और योजनाओं में ही जीवित रखा जाएगा? या फिर जमीनी स्तर पर ठोस कदम उठाकर इन्हें पुनर्जीवित किया जाएगा?
alt="" width="600" height="400" /> एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के सभी पद वर्षों से रिक्त पड़े हैं. विभागाध्यक्ष तारकेश्वर सिंह मुंडा ने बताया कि राज्य गठन के बाद से अब तक विभाग में कोई स्थायी बहाली नहीं हुई है.इस लचर व्यवस्था का सीधा असर छात्रों के भविष्य पर पड़ रहा है. हर साल कई छात्र नेट और जेआरएफ जैसी अहम परीक्षाएं पास करते हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण उनकी उच्च शिक्षा बाधित हो रही है. विभागीय उपेक्षा के चलते पंचपरगनिया भाषा दम तोड़ती नजर आ रही है, जिससे झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता पर गहरा संकट मंडरा रहा है. क्या यही है भाषाई संरक्षण की असली तस्वीर : सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की उदासीनता के चलते यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या क्षेत्रीय भाषाओं को केवल घोषणाओं और योजनाओं में ही जीवित रखा जाएगा? या फिर जमीनी स्तर पर ठोस कदम उठाकर इन्हें पुनर्जीवित किया जाएगा?
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