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25 साल बाद भी झारखंड में नहीं बन पाया पेसा रूल

Pravin kumar Ranchi :  झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आज भी 1996 का वह शिलालेख मौजूद है, जिसमें हमारे गांव में हमारा राज का एलान किया गया है. पेसा एक्ट के पारित होते ही राज्य के हजारों गांवों में इस तरह के शिलालेख ग्रामीणों ने लगा कर स्वशासन के सपने को साकार होने का सपना देखना शुरू कर दिया था, जब संसद में पंचायत राज विस्तार अधिनियम (पेसा कानून) पारित किया गया था. केंद्र सरकार ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) (पेसा) अधिनियम, 1996 कानून बनाया. इस कानून के जरिए अनुसूची पांच के क्षेत्र में आने वाली ग्राम सभा को काफी सशक्त करना मकसद था. इसके तहत ग्राम सभा को आदिवासी समाज की परंपराएं, रीति-रिवाज और उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल के लिए सक्षम बनाया गया. इन्हें खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस- पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें देने का अधिकार भी दिया गया. और भी कई अधिकार दिये गये. इसके बाद मानो झारखंड के आदिवासी अंचलों में एक उल्लास का महौल बन गया था. बीडी शर्मा और बंदी उरांव के नेतृत्व में ग्राम सभा के अधिकारों को लेकर करीब 4000 से अधिक गांवों में ग्रामसभा के शिलालेख लगाये गये थे. लेकिन कानून पारित होने के 25 साल बाद भी झारखंड सहित चार राज्यों में पेसा कानून की नियमावली नहीं बनायी गयी, जिसकी टिस अदिवासी अंचलों में देखी जा सकती है.

झारखंड सरकार आज भी इस पर संजीदा नहीं

जब यह कानून संसद में पारित हुआ था, तब इसे आदिवासी इलाकों के पक्ष में बना सबसे मजबूत कानून माना गया था. इसको लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के जिम्मे थी. इन्होंने या तो इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई या बेमन से जिम्मेदारियों का निपटारा किया. कानून की नियमावली को लेकर दस में से चार राज्यों ने 25 साल में पेसा कानून के जरूरी नियम नहीं बनाये. इन राज्यों में छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा शामिल हैं. छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में पेसा रूल के ड्राफ्ट जारी किये हैं. लेकिन झारखंड सरकार आज भी इस पर संजीदा नहीं है.

क्या कहते हैं पेसा के जानकार

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आदिवासियों के साथ हो रहा विश्वासघात : सरदार

पश्चिम सिंहभूम पोटका प्रखंड के सिद्धेश्वर सरदार कहते हैं- राज्य में पेसा की नियमावली नहीं है. अलग झारखंड गठन को भी 20 साल पूरे हो गये, आदिवासियों के नाम पर सभी राजनीतिक दल राजनीति की रोटी सेंक सत्तासुख भोग रहे हैं. लेकिन पेसा कानून की नियमावली बना कर ग्रामसभाओं को अधिकार देने का काम नहीं किया. 25 सालों में सरकार और अधिकारियों ने आदिवासियों के साथ विश्वासघात किया है.

25 सालों से अधिकार का दमन : मार्डी

स्वशासन आंदोलन के नेता कुमार चन्द्र मार्डी कहते हैं- राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था के तहत सरकार के द्वारा ग्रामसभाओं के अधिकार का दमन 25 सालों से किया जा रहा है. आज आदिवासी अंचल देश के आंतरिक उपनिवेश की तरह बन कर रह गये हैं, जिन्हें कॉरपोरेट के हवाले करने की साजिश की जा रही है.

जिलों को ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक काउंसिल होनी चाहिए : कुजूर

आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के प्रभाकर कुजूर कहते हैं- पेसा कानून के तहत जिलों को ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक काउंसिल होनी चाहिए. ग्राम सभाओं को दी गई शक्तियों के तहत प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन किया जाना चाहिए. राज्य में रूल ना बनाकर पांचवीं अनुसूची वाले इलाके व आदिवासियों - मूलवासियों के साथ राज्य सरकार ऐतिहासिक अन्याय कर रही है. अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन और नियंत्रण अनुच्छेद 244 खंड (1) के अधीन है. इसलिए अनुच्छेद 53 के तहत अनुसूचित क्षेत्रों पर कार्यपालिका शक्ति भारत के राष्ट्रपति में निहित नहीं है. उसी प्रकार अनुच्छेद 154 के तहत राज्यों के राज्यपालों को भी अनुसूचित क्षेत्रों में कार्यपालिका शक्तियां निहित नहीं है. पांचवीं अनुसूची पैरा 2 अनुच्छेद 244 (1) के तहत अनुसूचित क्षेत्र की अनुसूचित जनजातियों पर ही अनुसूचित क्षेत्रों की कार्यपालिका शक्ति निहित है.

ग्राम सभाओं को संविधान प्रदत्त अधिकार बहाल करें : घनश्याम

आदिवासी स्वाशासन पर काम करने वाले घनश्याम कहते हैं-  यह दुर्भाग्य की बात है कि पांचवीं अनुसूची में प्रदत्त अधिकार को अनुसूचित क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी- मूलवासियों को नहीं मिला है. वहीं पेसा कानून की नियमावली को लेकर भी राज्य सरकार संजीदा नहीं रही है. राज्य के कई आदिवासी इलाके आज भी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वयं के संसाधनों पर ही निर्भर है. जहां सरकार की विकास योजना भी नहीं पहुंच सकी है. लेकिन वर्तमान दौर में अब उसे भी छीनने के प्रयास किये जा रहे हैं. राज्य सरकार को पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में पेसा की नियमावली बनाकर ग्राम सभाओं को संविधान प्रदत्त अधिकार बहाल करनी चाहिए.

पेसा को कमजोर करने का काम किया : मुर्मू

आदिवासी मामलों के जानकार प्रेमचंद्र मुर्मू कहते हैं - पेसा कानून के सेक्शन 5 में ही नियमावली को अनिवार्य किया गया है. झारखंड सरकार ने 2001 में झारखंड पंचायत राज एक्ट बनाकर पेसा को कमजोर करने का काम किया. पंचायत राज एक्ट अनुसूचित क्षेत्र में लागू नहीं होता. राज्य में पेसा कानून के विपरीत जाकर 2011 में पंचायत चुनाव कराया. सरकार ने संविधान का उल्लंघन करते हुए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में भी पंचायत चुनाव कराया था. अनुसूचित क्षेत्र में सामान्य कानून लागू नहीं होता. इसके बाद भी अनुसूची क्षेत्र में सामान्य क्षेत्र के कानून को थोपा जा रहा है. अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत और नगरपालिका भी लागू नहीं होता. रांची नगर निगम भी पूरी तरह अवैध है. सरकार जानबूझकर रूल नहीं बना रही है. आदिवासी वोटों से चुनाव जीतने वाले राजनेता भी आदिवासियों को ठगने का काम 20 साल से कर रहे हैं.

फर्जी ग्रामसभा कर योजनाओं को स्वीकृत करने का प्रचलन : सोय

कोल्हान के डेमका सोय कहते हैं-  राज्य में पेसा कानून लागू है. पेसा कानून परित किये जाने के बाद योजनाओं के चयन में ग्रामसभाओं की भूमिका अनिवार्य किया गया था. लेकिन अधिकारियों और सरकारी कर्मियों के द्वारा फर्जी ग्रामसभा कर योजनाओं को स्वीकृत करने का प्रचलन अब हर इलाके में देखा जाने लगा है. लेकिन आज भी राज्य के कई इलाके ऐसे हैं, जहां परंपरागत ग्रामसभाओं की बैठक नियमित होती है. जहां आदिवासी स्वाशासन व्यवस्था का मजबूत पक्ष दिखाई देता है. इसे भी पढ़ें –  सांसद">https://lagatar.in/mps-sanjay-seth-and-bd-ram-raised-the-issue-of-hec-and-mecon-with-the-central-government/">सांसद

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