Manish Singh
तस्वीर नेपाली युवक की है, वर्दी रूसी फौज की. 30 हजार से अधिक नेपाली, रूस की तरफ से यूक्रेन में लड़ रहे हैं. 5000 डॉलर महीना, रहना खाना, मारे गए-विकलांग हुए तो बोनस, मुआवजा. कुछ हजार नेपाली, यूक्रेन की तरफ से रशिया से लड़ रहे हैं.
भाड़े पर लड़ना नेपाल के लोगों के लिए मान्य व्यवसाय रहा है. भारत और ब्रिटेन की सेना में तो उन्हें बाकायदा रिक्रूट किया जाता है. गोरखा रेजिमेंट बनी है. जगह सीमित, कमाई कम है. भाड़े का कांट्रेक्ट फौजी बनने. पैसा बहुत है. रोजगार को तरसते युवा के लिए हथियार उठाना मजबूरी है.
20 साल पहले उन्होंने अपने देश के माओवादियों के साथ हथियार उठाये थे. फिर राजशाही उखाड़ फेंकी. उन्हें अच्छे दिन की आशा थी. जो आये नहीं. नेपाली माओवादी दो पार्टियों में बंट गए. पूर्व स्थापित नेपाली कांग्रेस, कुछ छोटे दल और इंडिपेंडेंट और दो माओवादी दल.
इनके बीच कोई भी कॉम्बिनेशन का गठबंधन बनाकर प्रचंड, देउबा और ओली सत्ता में आते रहे. फिर पार्टियां इधर-उधर होती, नई सरकार, नया पीएम. नेपाल में विपक्ष कोई नही. बारी-बारी, आपसी अरेंजमेंट से सभी सत्ता की मलाई लेते रहे. सभी के करप्शन के किस्से हवा में तैरते रहे. खूब चीनी इन्वेस्टमेंट आया और धन, ठेके, प्रोजेक्ट की लूट मची.
नेपाली युवा विदेशों में मामूली काम खोजता रहा. रिफ्यूजी स्टेटस लेकर विदेश में जाने लगा. तो नेताओं ने रिफ्यूजी साबित करने के दस्तावेज बेचने का धंधा अपना लिया.
तो गरीब के बच्चों के ताबूत आते और नेताओं के बच्चों की विदेशों में गुलछर्रे उड़ाती तसवीरें. इसकी आलोचना और गुस्सा सोशल मीडिया पर दिखने लगा. कंट्रोल करना जरूरी था. तो सरकार कानून लायी की सभी विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपना रजिस्ट्रेशन करायें और अमुक-अमुक नियम का पालन करें.
रजिस्ट्रेशन की डेट चली गयी. लेकिन टिकटॉक छोड़ किसी ने रजिस्ट्रेशन नहीं कराया. नतीजा ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट सहित 25 प्लेटफार्म बैन हो गए. इसके विरोध में मुट्ठी भर छात्रों ने जुलूस निकाला, संसद की तरफ तख्तियां लेकर बढ़े.
15-20-22 साल के बच्चे, उनपर लाठीचार्ज हुआ. वे भागे, कुछ संसद परिसर में छुपने लगे. इनको सीधे गोली मार दी गई. 22 मौत में एक 12 साल का एक बच्चा था. हत्याकांड की खबर फैलते ही पूरा काठमांडू उमड़ पड़ा. देखते ही देखते दंगा, आगजनी, अराजकता फैल गयी. हालत नियंत्रण से बाहर हो गए. सरकार को इस्तीफा देना पड़ा.
भारत मे बैठे मूर्ख खुश हैं. वे खुद को दक्षिणपंथी मानते हैं, इसलिए तो वामपंथी सरकार गिरने से खुश है. खुद को सत्ताधारी मानते है, तो विपक्ष के घर जलने से खुश हैं. उनकी खुशी तो हर कत्लेआम में है. गाजा में मुसलमान मरे- खुश. उक्रेन में पुतिन के दुश्मन मरे-खुश. मणिपुर में मोदी के दुश्मन मरे- खुश. कश्मीर में कश्मीरी मरे- खुश. मगर ऐसी खुशी किसी सरकार के लिए आत्मघाती है. जब सरकारें और उनके समर्थक समाज की गहरी पीड़ाओं को नजरअंदाज कर, अपने ही स्वप्नलोक में उतराते रहती हैं, तब वे ज्वालामुखी के मुख पर बैठे होते है.
यह ठीक कि भारतीय समाज की तासीर नेपाल, बंग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव या पकिस्तान जैसी नहीं. इसका लावा जल्द नहीं फूटता. मगर जल्द ठंडा भी नहीं होता. बेरोजगारी, महंगाई, मूर्खतापूर्ण टैक्स, दिशाहीन विदेश नीति, विचित्र मौद्रिक नीति, अर्थनीति और व्यापार- हर तरफ उदाहरणों की एक पूरी सूची बन चुकी है कि प्रशासन किस तरह से नहीं चलाया जाना चाहिए.
लेकिन इनका सबसे बड़ा पाप सोशल एजेंडा है. नफरत और टूट की राजनीति है. तो 90 साल जो विचारधारा हाशिये पर रही, घृणित और हास्यास्पद मानी गई, उसने पहली बार खुद को साबित करने को मिला भरपूर मौका यूं गंवाया है कि जब सत्ता से जाएगी, तो ढूंढे से न दिखेगी.
नेपाली पोलिटिकल एलीट की तरह, वह भी रिसते सामाजिक आर्थिक घावों से आंख मीचे, आवाज दबाने के टुच्चे तरीकों में मशगूल है. चुनाव हो या सोशल मीडिया, अभिव्यक्ति का गला घोंटा गया है. न्याय के मार्ग औऱ अदालती निदान भी अवरुद्ध हैं. सरकारी भाषा मे धमक, बुलडोजर और गुंडई की प्रतिध्वनि है. नतीजे गले तक आ चुके हैं. तेजी से नाक से ऊपर जा रहे हैं.
जिस तरह दिया बुझने के पहले तेजी से जलता है, आवाज में गुंडई की प्रतिध्वनि भी, पतन के पहले तेज होती जाएगी. तब इतिहास के नए सफहे पर, वक्त किस रंग से अंजाम लिखेगा, कोई नही जानता. लेकिन अब तक जो नुकसान हो चुका, उसके ही असर दूरगामी हैं.
भारत मे अग्निवीर लागू है. 10 साल के भीतर दुनिया के कांफ्लिक्ट जोन में हमारे बच्चे लड़ते दिखेंगे. ट्रेंड और बेरोजगार वे दुनिया को असुरक्षित बनाने में योगदान देंगे. फटेहाल घरवालों को रेमिटेंस (वेतन के रुप में मिली नकद राशि) भेजेंगे. तब, तस्वीर आपके बेटे की होगी और वर्दी विदेशी फौज की.
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