Shyam Kishore Choubey
इस बार भाजपा की चतुरंगिणी सेना काम न आयी. जिससे मिलजुलकर वह सरकार बना सकती थी, वह आजसू भी फिसड्डी साबित हुई. राज्य के अंदर और बाहर जो भौकाल बनाया गया था, उससे लोगों को भरोसा ही नहीं था कि अपने बल पर, मित्र दलों के दम पर या फिर गोवा, मणिपुर आदि के समान चाहे जैसे भी हो झारखंड में भाजपा ही सरकार बनायेगी. इस बात का इलहाम 23 दिसंबर 2019 को तब हुआ, जब मशहूर खबरिया चैनल एबीपी के आमंत्रण पर सुबह-सुबह मैं उसके स्टूडियो नोएडा पहुंचा. उस दिन झारखंड विधानसभा चुनाव-4 की मतगणना होनेवाली थी.
दिल्ली-नोएडा की उस कड़कड़ाती ठंड में ‘एबीपी’ के अन्य गेस्ट थोड़ा पहले ही आ चुके थे. वे सभी किसी न किसी न्यूज चैनल पर प्रायः हर दिन नजर आनेवाले दिग्गज विश्लेषक थे. एबीपी के भी कई वरिष्ठ पत्रकार उस पैनल में थे. पिछड़े किंतु मूल इलाके से एक मैं ही था. मूल इलाके का मतलब यह कि जिसके चुनाव परिणाम पर चर्चा-परिचर्चा होनी थी. अनौपचारिक बातचीत में जब मैंने कहा कि इस बार झारखंड में भाजपा की हालत खराब है, जबकि यूपीए मजबूत है तो सहसा किसी को विश्वास न हुआ. बात शुरू हुई तो सुबह छह बजे से रात के सात बजे तक लगातार 13 घंटों तक चली. दरअसल, कुछ परिणाम देर तक आते रहे.
जब पोस्टल बैलेट्स की गिनती में ही भाजपा कमजोर नजर आने लगी तो वरिष्ठ पत्रकार दिवांग मेरी ओर देखकर मुस्कुराये. उसके बाद तो दिन भर बतकूचन होती रही. रघुवर का ट्रैक रिकॉर्ड देखकर वहां मौजूद अधिकतर पत्रकार और विश्लेषक यह मानने को तैयार न थे कि निर्दलीय सरयू राय से वे हार जायेंगे. रांची से पांच बार चुने गये भाजपा विधायक सीपी सिंह काफी अरसा तक मार्जिनल वोट से पीछे चलते रहे तो तकरीबन पांच बजे उनकी प्रतिद्वंद्वी झामुमो प्रत्याशी महुआ माजी से फोनो लेते हुए एक एंकर ने उनको बधाई देने के साथ-साथ मंत्री बनाये जाने की उम्मीद जता दी. मैंने कहा, अभी सब्र करें तो उसने मेरी ओर ऐसे देखा मानो कोई गलत बात कह दी हो.
थोड़ी ही देर बाद टीवी पर खबर आयी कि महुआ मार्जिनल वोटों से पीछे रह गयीं. चार बजे के आसपास तक काफी परिणाम आ चुके थे और यह तय हो चुका था कि हेमंत के नेतृत्व में यूपीए सरकार ही बनेगी. उस समय शिबू सोरेन के आवास पर मौजूद एबीपी रिपोर्टर और कैमरामैन माता-पिता संग बैठे हेमंत की तस्वीरें दिखा रहे थे, जो चैनल पर चल भी रही थीं. देखते-देखते हेमंत उसी परिसर में साइकिल चलाने लगे तो एंकर ने कहा, बिना तनाव के हैं, सरकार चला लेंगे.
चुनाव परिणाम के अनुसार यूपीए को 81 में से 47 सीटें हासिल हुईं, जिनमें से झामुमो को 30, कांग्रेस को 16 और राजद को एक सीट मिली थी. भाजपा 25, आजसू दो और जेवीएम तीन पर सिमट गए. दो निर्दलीय भी जीते एक तो जमशेदपुर पूर्वी से सरयू राय और दूसरे बरकट्ठा से अमित कुमार. अमित दरअसल भाजपा के ही सदस्य थे, जो 2009 के चुनाव में विधायक चुने जा चुके थे लेकिन इस बार टिकट जानकी प्रसाद यादव को दे दिये जाने के कारण निर्दलीय खड़े हो गये थे. ये वही जानकी प्रसाद यादव हैं, जो पिछला चुनाव जेवीएम से जीतने पर दल-बदल करते हुए भाजपा में शरीक हो गये थे. एक प्रकार से कह सकते हैं कि दोनों ही निर्दलीय भाजपाई थे, जो परिस्थितिजन्य कारणों से बागी बनने पर आमादा हो गये थे.
फर्क इतना ही है सरयू अब भी भाजपा के पक्ष में नहीं हैं, जबकि दूसरी बार विधायक बने अमित के विषय में पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. उनके पिता चितरंजन प्रसाद यादव धाकड़ सीपीआइ नेता भुवनेश्वर प्रसाद मेहता को हराकर बरकट्ठा से भाजपा के टिकट पर विधायक चुने गये थे. उनके देहांत के बाद 2009 में अमित भाजपा के ही टिकट पर बरकट्ठा से चुने गये थे. 2014 में उनको जेवीएम के जानकी प्रसाद यादव ने हरा दिया था. चुनाव जीतने के बाद जानकी दल-बदल करते हुए भाजपा में शामिल हो गये थे. इस बार भाजपा ने पुनः जानकी को ही मौका दिया लेकिन अमित ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ही चुनाव में उतर कर जानकी प्रसाद यादव को हरा दिया. अमित की जड़ें तो भाजपा से ही जुड़ी हुई हैं लेकिन राजनीति में अब जड़ के बजाय फल-फूल पर अधिक दिया जाने लगा है.
23 दिसंबर 2019 को चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा को कुछ करना नहीं था. कल तक जो स्वदलीय रघुवर दास से मिलने पर गर्वान्वित होते थे और इसकी दो-चार दिनों तक चर्चा करते रहते थे, वे भी रघुवर की खामियां गिनाने लगे. राजनीति हो या सामाजिक जीवन, होता ऐसा ही है. मौके के यारों की पहचान तत्काल नहीं, अक्सर बाद में ही होती है.
अब जो करना था, यूपीए को ही करना था, खासकर झामुमो, वह भी हेमंत को. उनका आभामंडल अचानक बहुत बढ़ गया था. अब उनसे मिलना मुश्किल होता चला जा रहा था. सरकार गठन के लिए जो तीन-तिकड़म होती है, वह अब यूपीए में अंदर ही अंदर चलने लगी थी. यक्षप्रश्न जेवीएम का था. वह सरकार में शामिल होगा या बाहर से समर्थन करेगा या अपोजिशन बेंच की राह पकड़ेगा. बाबूलाल कुछ भी स्पष्ट कह नहीं रहे थे, हालांकि हेमंत उनसे मिलने गये और सकारात्मक भाव लेकर लौटे.
चुनाव परिणाम आने के छह दिन बाद 29 दिसंबर 2019 को हेमंत सोरेन ने
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए कार्यभार संभाल लिया. मुख्यमंत्री के रूप में यह उनका दूसरा कार्यकाल था. इसके लगभग साढ़े छह साल पहले वे 17 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे. इस बार हेमंत के साथ कांग्रेस के आलमगीर आलम और रामेश्वर उरांव तथा राजद के सत्यानंद भोक्ता ने मंत्री पद की शपथ ली. इसके साथ ही कांग्रेस और झामुमो की आंतरिक गतिविधियां बहुत तेज हो गयीं. इस चुनाव में जेवीएम हालांकि तीन सदस्यों वाला ही दल था लेकिन सबकी निगाहें उसकी ओर लगी हुई थीं. चुनाव जीतनेवाले पार्टी प्रमुख बाबूलाल मरांडी सहित प्रदीप यादव और बंधु तिर्की तीनों विधायक महत्वपूर्ण थे.
इन लोगों का राजनीतिक कार्य-व्यवहार लस्टम-पस्टम चल रहा था. बाबूलाल पर भाजपा की ओर से दिल्ली का दबाव कहें, आग्रह कहें या प्रलोभन कहें, जारी था. 14 वर्षों के निरंतर संघर्ष का परिणाम वे महज तीन विधायकों के रूप में देख रहे थे. भाजपा प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व विहीन थी. भाजपा 28 में से 26 जनजातीय सीटें गंवा चुकी थी. अर्जुन मुंडा को केंद्र की राजनीति में बुला लेने के बाद राज्य खाली हो गया था. रघुवर दास हार चुके थे. उसके पास आदिवासी चेहरा के रूप में हालांकि कई चुनाव जीत चुके नीलकंठ सिंह मुंडा जैसा नाम जरूर था लेकिन शायद वह उनको मास लीडर नहीं मान रही थी.
हेमंत सरकार के गठन के बाद मरांडी के सुर बदलने लगे थे, हालांकि मुख्यमंत्री और तीन कैबिनेट सदस्यों के शपथ ग्रहण के हफ्ता भर बाद 06 से 08 जनवरी 2020 तक आहूत विधानसभा की कार्यवाही में जेवीएम सत्तापक्ष के साथ ही रहा. लेकिन यह साथ-समभाव क्षणिक रहा. राजनीतिक गलियारे में अचानक चर्चा चल पड़ी कि 12 जनवरी को बाबूलाल अपने राजनीतिक सलाहकार सुनील तिवारी संग विदेश यात्रा पर निकल गये. हफ्ता-दस दिन बाद वे लौटे तो उनका मन-मिजाज बदला हुआ था. उन्होंने दो मर्तबा अपने दल की कार्यसमिति की बैठकें की. इसकी परिणति उनके दोनों स्वदलीय साथी विधायकों प्रदीप यादव व बंधु तिर्की के पार्टी से निष्कासन के रूप में हुई. (जारी)
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.