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घायल ममता और किसानों के हुंकार के असर से BJP में राजनीतिक व्याकुलता

Faisal Anurag जब कभी ममता बनर्जी हिंसक हमले का शिकार हुई हैं और ताकतवर बन कर उभरी हैं. तो क्या नंदीग्राम से चुनावी पर्चा भरने के बाद हुआ ताजा हमला इतिहास को फिर दुहराएगा? बात 2007 की है, जब नंदीग्राम में ही उन पर जानलेवा हमला हुआ था. किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ ऐतिहासिक आंदोलन और पुलिस के साथ संघर्ष तथा हिंसा के बाद वह बड़ी नेता के तौर पर उभरी थी. सिंगुर में भी जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उन्होंने आंदोलन को गति दिया था. नंदीग्राम आंदोलन की लहर से उन्होंने 2011 में वामपंथियों के सबसे लंबे शासन का अंत किया और पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे के 34 साल के शासन को उखाड़ फेंका. घायल ममता बनर्जी राजनैतिक तौर पर ज्यादा प्रभावी हो कर उभरती रही हैं. ममता बनर्जी ने एलान किया है कि वे व्हीलचेयर पर बैठकर चुनाव प्रचार करेंगी. भाजपा और वाम कांग्रेस गठबंधन दोनों को यह एलान व्याकुल कर रहा है. तृणमूल नेता और सांसद सौगत रॉय ने कहा है, ममता एक योद्धा हैं, आप उन पर जितना हमला करेंगे, वह उतनी मजबूती से वापसी करेंगी`. सौगत रॉय की इस टिप्प्णी को खारिज नहीं किया जा सकता. ममता बनर्जी के हमले पर पूरे बंगाल की राजनति में उबाल आ गया है. भाजपा और कांग्रेस के नेता जहां ममता बनर्जी पर नाटक करने का आरोप लगा रही हैं, वहीं तृणमूल के नेता चुनाव आयोग पहुंच रहे हैं. घायल ममता के वीडियो और फोटोग्राफ के चुनावी असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इस बीच बंगाल में किसान नेता भी हुंकार भर रहे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के नेता उन तमाम राज्यों में भाजपा को पराजित करने की अपील के साथ पहुंच गए हैं, जहां चुनाव हो रहे हैं. बंगाल में किसान नेताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन की उस विरासत को याद किया है, जिसमें पंजाब और बंगाल मिल कर लड़े थे. खासकर रासबिहारी बोस के नाम का उल्लेख किया जा रहा है. जिन्होंने गदर पार्टी के नेताओं की मदद की थी. इसके साथ ही एक और बात किसान नेताओं ने कहा है कि भारत के विभाजन का सबसे ज्यादा दर्द पंजाब और बंगाल को ही सहना पड़ा था. इस उदाहरण का चुनाव के समय खास महत्व है. बंगाल में चुनावों में जिस तरह सांप्रदायिक रूझान पैदा करने का प्रयास भाजपा ने किया है, उस नजरिए से किसान नेताओं का खास महत्व है. किसान नेताओं ने भाजपा के ध्रुवीकरण के प्रयास को नाकाम करने के लिए पंजाब और बंगाल के दर्द के साझेपन का उल्लेख किया है. ममता बनर्जी के घायल हाने के बाद भाजपा को रणनीति में बदलाव लाना पड़ रहा है. लेकिन किसान नेताओं की धमक और उन्हें सुनने आ रहे लोगों की संख्या उसके लिए नयी परेशानी पैदा कर रही है. भाजपा के थिंकटैंक अब तक पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही 40 लोकसभा सीटों पर ही किसानों के आंदोलन के नुकसान का आकलन करता रहा है. बंगाल पर उसके प्रभाव का आकलन होना बाकी है. किसान आंदोलनों का इतिहास बंगाल में भी रहा है. हालांकि तेभागा और नक्सलबाड़ी जैसे किसान आंदोलनों का असर अब नहीं है. लेकिन बंगाल के किसानों की राजनीतिक समझ को कम कर नहीं आंका जा सकता है. अगले कुछ दिनों में राकेश टिकैत, गुरूनाम चढ़ूनी, राजेबाल और दर्शन पाल जेसे बड़े किसान नेता बंगाल में किसान पंचायतों में शामिल होने जा रहे हैं. इसमें एक बड़ी पंचायत नंदीग्राम में भी होने को है. नंदीग्राम ने हल्दिया औद्योगिक परियोजना के जमीन अधिग्रहण के खिलाफ बगावत किया था. इस के साथ लालगढ़ का वह आंदोलन भी जुड़ा हुआ था, जिसने ममता बनर्जी की मुख्यमंत्री तक के सफर को कामयाब किया. नंदीग्राम में अब भी संकट बना हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह बंगाल में फिर से उद्योगों का जाल बिछाने की बात कर रहे हैं. जाहिर है कि बगैर भूमि अधिग्रहण उद्योगों का जाल नहीं बिछाया जा सकता है. बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य को सत्ता से जिन कारणों से बेदखल होना पड़ा था. उसमें सिंगुर और नंदीग्राम के जमीन अधिग्रहण का फैसला शामिल था. नरेंद्र मोदी सरकार आर्थिक उदारीकरण के नाम पर जिस तरह कंपनीराज का रास्ता बना रही है. किसान का आंदोलन उसे चुनौती दे रहा है. अब श्रमिकों के अनेक संगठनों ने भी किसानों के साथ हाथ मिला लिया है. तो क्या बंगाल में किसानों का राजनीतिक नरेटिव संयुक्त किसान मोर्चा के नरेटिव के साथ एकाग्र हो जाएगा. ये सवाल ही मई में आने वाले जनादेश की दिशा तय करेगा.

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